ek aur damayanti - 6 in Hindi Moral Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | एक और दमयन्ती - 6

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एक और दमयन्ती - 6

उपन्यास-

एक और दमयन्ती 6

रामगोपाल भावुक

रचना काल-1968 ई0

संपर्क कमलेश्वर कॉलोनी ; डबरा

भवभूति नगर जिला गवालियर ;म0प्र0

पिन. 475110

मोबा. 09425715707

एक और दमयन्ती ही क्यों?

राजा नल और रानी दमयन्ती की संघर्ष -गाथा पौराणिक आख्यानों में है। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से ही उनका सम्बन्ध रहा है।

इसके साथ ही पंचमहल क्षेत्र में क्वॉंर के महीने में हाथी-पुजन के समय एक कथा कही जाती है-

आमोती दामोती रानी, बम्मन बरुआ

कहें कहानी।

हमसे कहते तुमसे सुनते, सोलह बोल की

एक कहानी।

सुनो महालक्ष्मी रानी ।।

इस क्षेत्र के घर-ऑंगन यों आमोती दामोती रानी की यह कथा भी प्रचलित है।

पुनर्जन्म में भारतीय जनमानस की पूर्ण आस्था है। पौराणिक दमयन्ती ने भी वर्तमान परिवेश में जन्म लिया होगा। आज वह अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही होगी। यहाँ, मेरा चित्त एक और दमयन्ती की तलाश में रमा है।

रामगोपाल भावुक

छह

कभी-कभी आदमी स्वयं अपने लिए संकट उत्पन्न कर लेता है। उन संकटों के जाल में ऐसा फंसता है कि मुश्किल से निकल पाता है। प्रलोभन आदमी को पथ से गिरा देते हैं। भगवती सोच में डूबा था-

‘किसी औरत को लेकर भागना अच्छा कार्य नहीं है। पकड़े गए तो ऐसा फजीता होगा कि फिर दोनों कहीं के नहीं रहेंगे।’

आकाश में उड़ते हुए यान के झटके ने विचारों के बहाव को तोड़ दिया। अब वह बन्द खिड़की से नीचे की ओर देखने लगा। ऊंचे-ऊंचे पेड़ बोने हो गए थे। बड़े-बड़े पहाड़ छोटे दिखाई दे रहे थे। दोनों को यान में बैठे अभी आधा घण्टा हो पाया था। मौन को तोड़ते हुए भगवती सुनीता के कान के पास जाकर बोला-‘तुम जब एरोड्रम पर आई थीं। घबड़ाई हुई थीं, शायद भागकर आई थीं।’

यह सुनकर सुनीता बोली-‘मैं भागकर न आती तो शायद जीवन भर आपके पास न आ पाती। उस वक्त न भागना मेरे लिए अभिशाप बन जाता। भागना वरदान बन गया है।’

‘सुनीता तुम्हारा मुझसे इतना गहरा प्यार ............।’

‘अब प्यार कहाँ है? अब तो जीवन जीने के लिए एक ठोस कदम है।’

‘दुलहन की भेशभूशा में तो ............।’

यह सुनकर वह लजा गई तो वह और अधिक सुन्दर लगने लगी।

भगवती बोले बिना न रहा-‘दुलहन के भेश में स्वर्ग की अप्सरा को भी मात दे रही हो। मेरे साथ ही उसे पहनकर आ जाती। शायद मेरे साथ आतीं तो बीच रास्ते में ही मैं अपने होस गंवा बैठता।’

सुनीता उसकी चापलूसी बातें सुनकर बोली-‘रहने दो, रहने दो, थोड़े दिन बाद ही ठुकरा दी जाऊंगी।’

भगवती झट से बोला-सुनीता मैं अब ऐसा नहीं रहाँ ठोकर खाकर ही आमदी संभलता है। फिर ये पति-पत्नी का पावन सम्बन्ध ठुकराने के लिए नहीं, जीवन जीने के लिए है।’

यह बात सुनकर सुनीता चुप रह गई। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। सुनीता सोचने लगी-‘पुरुष औरतों को लेकर भागते हैं और मैं हूँ जो अपने पति को लेकर भाग रही हूँ।’

उसके इस सोचने मे भोपाल का हवाई अड्डा आ चुका था। यान अड्डे पर उतरने की तैयारी करने लगा। दोनों वहाँ का दृश्य देखने में लग गए। कुछ ही क्षणों में यान धरती से आ लगा।

कुछ ही देर में दोनों अपने सामान के साथ टैक्सी स्टेण्ड पर खड़े थे। टैक्सी वाले ने उनकी विचारमुद्रा भंग की-

‘कहाँ चलना है साब ?’

‘जहाँ तुम ले चलो।’

‘यहाँ अच्छे-अच्छे होटल हैं साब।’

‘ठीक है किसी भी होटल में ले चलो।’

टैक्सी वाले ने सामान टैक्सी में रखा। दोनों उसमें बैठ गए। टैक्सी चल पड़ी, टैक्सी शहर की ओर बढ़ती चली जा रही थी। भगवती ने सुनीता से मौन तोड़ते हुए पूछा-‘तुम्हारा यह अपरिचित स्थान चुनने का कारण समझ में नहीं आया।’

‘अब भी नहीं समझे। यहाँ की अपार अपरिचित भीड़ में हमें कौन पहचान पाएँगा फिर राजधानी ठहरी कुछ काम-धन्धा भी मिल सकता है। मेरे ख्वावों की गृहस्थी बस सकेगी और मैं सच्ची गृहणी .........।’ कहते हुए रुक गई।

टैक्सी वाले ने टैक्सी को मोड़ लिया। दोनों रोड़ के दोनों तरफ देखने लगे। लगभग एक घण्टा चलने के बाद टैक्सी बीच बाजार में रुकी। सामने था राज होटल। यह होटल भी चार मंजिल का बना हुआ है।

यह होटल उनके होटल के समान शान-शौकत वाला तो न था। पर मध्यम वर्ग के लिए समस्त सुविधाएं थीं। ठहरने के लिए एक कमरा बुक करा लिया गया। उसमें सामान जमाया। अब उन्हें चैन मिला। एकान्त का लाभ उठाकर भगवती ने उसे अपने सीने से सटा लिया था। अब वह भी अपना अस्तित्व मिटाने के लिए बेचैन हो उठी थी।

मनुश्य जब स्वतन्त्र वातावरण में पहुँच जाता है तो उसकी चिन्तन की धारा का प्रवाह बदल जाता है। पुरानी जिन्दगी की थकान नई जिन्दगी में प्रवेश के समय अलग ही अनुभव देती है। आज ऐसा ही अवसर सुनीता के जीवन में आकर खड़ा हो गया था।

दो-तीन दिन तो सोचते-ही-सोचते में निकल गए। एक होटल की दीवारों से निकलकर दूसरे होटल में आ बैठे थे। होटलीय जीवन से उकताहट हो चुकी थी। अन्त में सुनीता को भगवती से कहना ही पड़ा-‘ये क्या हुआ एक होटल से निकली दूसरे में बस गई। मैं तो अपना घर बसाना चाहती थीं कहीं नौकरी तालश करो। अन्यथा जीवन ऐसे बैठे-बैठे कब तक निकलेगा।’

बात सुनकर वह बोला-‘नौकरी तो यहाँ मिलना बड़ा मुश्किल है।’

‘आप कहें तो मैं इस होटल में अपनी नौकरी की बात कर देखती हूँ।’

‘अब भी तुम नौकरी करोगी।’

‘तो क्या हुआ ?तुम्हें नौकरी न मिली तो............।’

‘तब देखेंगे। अभी तो मैं प्रयास करके देखता हूँ। कहीं न कहीं तो नौकरी मिल ही सकती है।’

‘फिर कब से तलाश शुरु करेंगे ?’

‘आज से ही शुरु कर देता हूँ।’

‘हाँ, इस कार्य में विलम्ब करना ठीक नहीं है। नहीं तो हम कहीं के न रहेंगे।’

‘हाँ, सुनीता, यही मैं सोचता हूँ। आज शाम के समय हम घूमने निकलेंगे। उस समय यही काम रहेगा। तुम्हें साथ देखकर कोई भी हम पर विश्वास कर लेगा।’

यह सुनकर वह मुस्करा दी थी।