ek aur damayanti - 5 in Hindi Moral Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | एक और दमयन्ती - 5

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एक और दमयन्ती - 5

उपन्यास-

एक और दमयन्ती 5

रामगोपाल भावुक

रचना काल-1968 ई0

संपर्क कमलेश्वर कॉलोनी ; डबरा

भवभूति नगर जिला गवालियर ;म0प्र0

पिन. 475110

मोबा. 09425715707

एक और दमयन्ती ही क्यों?

राजा नल और रानी दमयन्ती की संघर्ष -गाथा पौराणिक आख्यानों में है। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से ही उनका सम्बन्ध रहा है।

इसके साथ ही पंचमहल क्षेत्र में क्वॉंर के महीने में हाथी-पुजन के समय एक कथा कही जाती है-

आमोती दामोती रानी, बम्मन बरुआ

कहें कहानी।

हमसे कहते तुमसे सुनते, सोलह बोल की

एक कहानी।

सुनो महालक्ष्मी रानी ।।

इस क्षेत्र के घर-ऑंगन यों आमोती दामोती रानी की यह कथा भी प्रचलित है।

पुनर्जन्म में भारतीय जनमानस की पूर्ण आस्था है। पौराणिक दमयन्ती ने भी वर्तमान परिवेश में जन्म लिया होगा। आज वह अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही होगी। यहाँ, मेरा चित्त एक और दमयन्ती की तलाश में रमा है।

रामगोपाल भावुक

पांच

रात को दोनों सो न सके। अपने-अपने बिस्तरों पर पड़े-पड़े सोचते रहे, अज्ञात आशंका उनका पीछा करती रही। दोनों भागते-भागते थक गए। पकड़ लिए गए। पुलिस पूंछताछ करने लगी। सुनीता ने पुलिस के समक्ष भगवती के साथ रहना स्वीकार कर लिया। सभी पीछा करने वाले हैरत में पड़ गए।

यों जाने क्या क्या सोचते-सोचते रात गुजर गई। समय से पहले ही दोनों ने बिस्तर छोड़ दिए। अपने-अपने कमरों से ले जाने वाला सामान ले लिया। आवश्यक सामान पहले ही उस टपरे वाले होटल में पहुँचा दिया था। चलने की पूरी तैयारियां कर ली गईं।

आज सुनीता काम पर रोज की अपेक्षा जल्दी पहुँच गई। मैनेजर फिर भी खिसियाया और बोला-

‘आज बहुत जल्दी आ गई। कल सभी को वेतन दे दिया है। ये रहा तुम्हारा वेतन।’

यह कहते हुए उसने सुनीता की ओर उसके वेतन का लिफाफा बढ़ा दिया। वेतन लेते हुए सुनीता ने सोचा, ‘अभी मैनेजर फुर्सत में है, फिर सारे दिन इन्हें फुर्सत न मिल पाएँगी।

यही सोचकर बोली-‘साहब मैंने सोचा है मैं अपने रुपयों को बैंक में 5 वर्ष के लिए फिक्स कर दूँ।’

मैनेजर क्रोध में आ गया और बोला-‘हमारी तरफ से उनका कुछ भी करो।’

यह कहते हुए उसने तिजोरी खोली और दस-दस की तनी गड्डी उस ओर बढ़ा दी। और बोला-‘ये संभालो अपनी धरोहर, भई हमसे तो चाहे जब ले लो। बैंक में फिक्स करने पर निकाल भी न पाओगी।’

सुनीता कुछ नहीं बोली। उसने उन रुपयों को अपने पर्स में संभालकर रख लिया। उसके बाद वह दबे पांव वहाँ से चल दी। शायद मैनेजर फिर कोई बात न कह दे। डरते-डरते गैलरी तक आई। वहाँ भगवती मिल गया तो बोली-‘मैं साढ़े नौ बजे निकलना चाहती हूँ। आप अभी चले जाइए। और मैं पीछे आती हूँ।’

‘मैं सोचता हूँ सुनीता यहीं से साथ-साथ चलें। फिर अभी तो मुझे भी वेतन लेना है। मैनेजर नौ बजे की कह रहा था।’

सुबह आठ जे तक दोनों होटल में व्यस्त रहे। दोनों का काम में मन न था। दोनों केनटीन में नास्ता करने पहुँच गए। दोनों को साथ-साथ नास्ता करते देख कर्मचारियों में आपस में कानाफूसी होने लगी।

इतनी हिम्मत किसमें थी कि इनसे कोई कुछ कहता।

चाय का घूट गटकते हुए सुनीता को याद आया आज महेन्द्रनाथ के आने का दिन है उसके आने से पहले ही यहाँ से चला जाना चाहिए।

चाय-नाश्ता में पौने नौ बज गए। भगवती अपना वेतन लेने चला गया। नौ बजे वह अपना वेतन लेकर लोटा। सुनीता बोली-‘वेतन मिल गया ?’

‘हाँ............।’

‘तो फिर सामान लेकर एयरपोर्ट चलो, मैं साढ़़े नौ बजे तक आती हूँ।’

‘समझ नहीं आता साथ चलने में क्यों डर रही हो?’

‘आप नहीं जानते यहाँ कुछ लोग बड़े खराब हैं। जान गए तो पीछा करेंगे। जहाँ पहुँचेंगे ये लोग वहाँ भी चैन से नहीं रहने देंगे।’

‘क्यों नहीं रहने देंगे ?’

‘ये सब बातें मैं फिर बताऊंगी।’

‘तो तुम जानो मुझे क्या ? मैं चलता हूँ। कहीं ऐसा न हो कि यान का टिकिट ............।’

बात अधूरी छोड़कर वह चला गया। भगवती के जाते ही वह होटल के एक कमरे में गई। उसने अंग्रेजी मेम का लिवास उतार फेंका। भगवती के द्वारा लाई हुई साड़ी पहनी। नारी का पूरा श्रृंगार किया और दर्पण के सामने गई तो लजा गई।

अब वह सहमे हुए कदमों से आगे बढ़ी। उसने लोगों की निगाह बचाते हुए होटल का दरवाजा पार किया। सड़क पर आकर खड़ी हो गई और टैक्सी का इन्तजार करने लगी। बदले हुए लिवास में उस पर किसी ने गौर नहीं किया।

सड़क पर दूर एक कार आती दिखी। उसने सोचा इसे रोकूं। यही सोचकर सुनीता ने उसे रुकने का इशारा किया। वह कार पास आकर रुक गई। उसमें महेन्द्रनाथ बैठा था।

सुनीता नीचे से ऊपर तक कांप गई उसे इस संकट की इस समय सम्भावना न थी। महेन्द्रनाथ सुनीता की ओर घूरने लगा। पहचाने हुए बोला-

‘ओ............ओ ............आप ! ’

यह सुनकर सुनीता में जाने कहाँ से साहस आ गया। वह तुरन्त बोली - ‘जी।’

‘ मेंम साहिबा कहाँ जा रही हैं ? हम तो तुम्हारे पास आए थे।’

डसके मुँह से शब्द निकले-‘मन्दिर।’

‘अरे तब तो आप तपस्विनी बन गई हैं।’

उत्तर में सुनीता झट से बोली-‘आप जैसे महापुरुष बनने देंगे तब।’

‘क्या मतलब ?’

‘मतलब तो सब समझ रहे हैं आप।’ बात कहते हुए सुनीता की त्यौरी चढ़ गई। उसने नम्र रहना ही उचित समझा।

महेन्द्रनाथ ने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया, बोला-आदेश हो तो मन्दिर साथ चल सकता हूँ।’

सुनीता का मस्तिश्क जल्दी-जल्दी काम करने लगाँवह सोचने लगी-‘वह क्यों पीछे रह गई। दुलहन के रुप में सजने के लिए। इस लिवास में भगवती के सामने जाने के लिए पर अब तो पहले इससे निपटना ही पड़ेगा।’

महेन्द्रनाथ बोला-‘क्या सोचने लगी ? चलो ना ............।’

वह झट से कार में पीछे की सीट पर जा बैठी।’

महेन्द्रनाथ ने कहा-‘अरे आगे आओ न।’

सुनीता डाँटते हुए बोली-‘तुम इतना भी नहीं जानते मैं मन्दिर जा रही हूँ। आपने स्नान भी नहीं किया होगा ?’

बात सुनकर वह चुप हो गया। कार आगे बढ़ने लगी। महेन्द्रनाथ ने पूछा-‘कौन से मन्दिर ?’

सुनीता ने झट से कहा-

‘आप जहाँ चाहें।’

‘मैं तो होटल में ही चाहता हूँ। भगवान तो हृदय में बसते हैं।’

बात सुनकर सुनीता ने करारा जवाब दिया-‘तुम्हारे हृदय में भी बसते होंगे भगवान। तुम भगवान को कितना मानते हो ?’

‘वह मैं ............मैं ............।’

वह मिमियाने-सा लगा और बोला-‘आज कोई नया रंग चढ़ गया है क्या ? कुछ गर्म मालूम पड़ रही हो।’

बात सुनकर सुनीता चुप रही। वह चुप रहकर कुछ निर्णय करना चाहती थी, पर सुनीता ने झट से उत्तर दिया-‘जरा चुप भी रहोगे या ............।’

सुनीता की बात सुनकर वह चुपचाप बैठा रहाँ सुनीता सोचने लगी-‘अब इससे छुटकारा कैसे मिले। यह यों तो छोड़ने का है नहीं और कहीं लेट हो गई तो। अब मैं इसके हाथ की कठपुतली नहीं रहना चाहती। यह अच्छा हुआ यह सड़क पर मिल गया। मैं इसे गायब मिलती तो मैनेजर और ये दोनों मुझे खोजने दो तरफ से मोर्चे संभालते।

अब यहाँ से गायब हो जाऊं तो साहब अकेले सारे शहर में चक्कर लगाते फिरेंगे। तब तक मैं। यह भी अच्छा रहा ये होटल में पहले मैनेजर से नहीं मिल पाया। अन्यथा मेरा होटल से भाग पाना मुश्किल हो जाता।’

राम-मन्दिर आ गया। सुनीता ने कलाई पर नजर डाली। घड़ी में पौने दस बजे थे। यह देखकर वह कांप गई। महेन्द्रनाथ ने कार रोक दी। सुनीता कार से उतरी। कहीं महेन्द्रनाथ पीछे ही न चला आए, इसलिए बोली-‘आप जरा यहीं ठहरिए, आपने स्नान ही नहीं किया है मैं अभी आती हूँ।’

यह कहकर सुनीता मन्दिर में चली गई। और पीछे के दरवाजे से निकलकर दूसरी तरफ रोड़ पर जा पहुँची। वहाँ उसे एक ओटो खड़ा मिला। वह उस ओटो में बैठ गई।

ओटो वाला बोला-‘कहाँ चलना है मेडम।’

‘एरोड्रम।’ ओटो चल पड़ा।

इधर महेन्द्रनाथ पन्द्रह-बीस मिनट तक तो प्रतीक्षा करता रहाँ जब वह न लौटी तो उसे शंका हुई। झट से जूते उतारकर मन्दिर में गया। लोगों से पूछताछ करने लगा। वह समझ गया मुझे चकमा देकर भाग गई।

वह उसे खोजते हुए होटल पहुँचा। वहाँ से उसने पुलिस को सूचना दी। रेलवे स्टेशन एवं बस स्टेण्ड पर तलाशी ली जाने लगी। जब उसे तीन हजार रुपयों का पता चला तो उसने अपना सिर पीट लिया। होटल के सारे कर्मचारी उनकी तलाशी में निकल पड़े। पर हवाई अड्डे की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। सुनीता जब हवाई अड्डे पर पहुँची। यान के आने का संकेत एनाउन्समेंट करने वाला दे रहा था। भगवती उसी व्यग्रता से प्रतीक्षा कर रहा था। उसे देखकर उसे सांत्वना मिली। सुनीता उसके पास पहुँच गई। वह बोला-‘तुमने तो मुझे डरा ही दिया, सोच रहा था। क्या संकट आ गया ? कहीं बना तो नहीं गई।’

यह बात सुनकर वह लजा गई। बोली-‘चलो यह फिर बताऊंगी। अब जल्दी चलो, नहीं तो यान छूट जाएगा।’

यह कहते हुए दोनों ऐरोड्रम की सीमा में प्रवेश कर गये।ऐरोड्रम की खाना पूर्ति करके आगे बढ़े। यान आ चुका था। दोनों उसमें जा बैठे। सामान तो भगवती पहले ही बुक कर चुका था।

महेन्द्रनाथ सोच रहा था। चारों ओर खोज जारी है। ग्वालियर से निकलकर वह कहाँ जाएगी , पर बन्द पिंजड़े का पक्षी अब मुक्त हो चुका था। अब उसे पकड़ पाना असम्भव था।

महेन्द्रनाथ को जब यह पता चला कि भगवती भी गायब है। मैनेजर ने उनके सम्बन्धों के बारे में चर्चा की तो महेन्द्रनाथ को पूरा विश्वास हो गया कि वह भगवती के साथ भागकर गई है। अब वह सोचने लगा-‘बस, उसे उनका पता लग जाए। कौन आसमान में उड़कर निकल जाएंगे।’

यह सोचते हुए वह बड़बड़ाया।

‘मैं उन्हें विश्व के किसी भी कोने से ढूंढ निकालूंगा।’

बात सुनकर मैनेजर बोला-‘यार महेन्द्रनाथ दोनों पति-पत्नी मिल गए हैं। अपने को बीच में नहीं आना चाहिए।’

‘तुम्हें कैसे मालूम कि दोनों पति पत्नी हैं। इसने तो उसे विवाह में ही छोड़ दिया था।’

‘मैं सब समझ रहा हूँ कि सच क्या है? इतने बड़े होटल की मैनेजरी क्या किसी और के बलबूते पर कर रहा हूँ। उड़ती चिडिया को पहचान लेता हूँ।’

‘तुमने उसे रुपये क्यों दिए ?’

‘अरे यार मुझे क्या मालूम था कि वह रुपये लेकर भाग जाएगी। मेरे से तो कह रही थी बैंक में फिक्स कर दूँ। ‘

‘और तुम मान गए। पैसे देते वक्त कम से कम मुझसे पूछ तो लेते।’

‘उसकी मेहनत के पैसे थे। मैं मना न कर सका, अब तुम्हें क्या ? वह अपने पति के साथ गई है, जाने दो न।’

‘यार तुम समझते नहीं हो, अपना मन बहला रही थी, वह भी तुमने ............।’

‘मुझे दोष तुम व्यर्थ में दे रहे हो। उसके लिए मैं भी दुखी हूँ। इतने दिनों में वह काम में ट्रेंड हो पाई थी, अब किसी दूसरी को काम सिखाना पड़ेगा।’