Ek aur Damayanti - 1 in Hindi Moral Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | एक और दमयन्ती - 1

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एक और दमयन्ती - 1

उपन्यास-

एक और दमयन्ती

रामगोपाल भावुक

रचना काल-1968 ई0

संपर्क कमलेश्वर कॉलोनी ; डबरा

भवभूति नगर जिला गवालियर ;म0प्र0

पिन. 475110

मोबा. 09425715707

एक और दमयन्ती ही क्यों?

राजा नल और रानी दमयन्ती की संघर्ष -गाथा पौराणिक आख्यानों में है। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से ही उनका सम्बन्ध रहा है।

इसके साथ ही पंचमहल क्षेत्र में क्वॉंर के महीने में हाथी-पुजन के समय एक कथा कही जाती है-

आमोती दामोती रानी, बम्मन बरुआ

कहें कहानी।

हमसे कहते तुमसे सुनते, सोलह बोल की

एक कहानी।

सुनो महालक्ष्मी रानी ।।

इस क्षेत्र के घर-ऑंगन यों आमोती दामोती रानी की यह कथा भी प्रचलित है।

पुनर्जन्म में भारतीय जनमानस की पूर्ण आस्था है। पौराणिक दमयन्ती ने भी वर्तमान परिवेश में जन्म लिया होगा। आज वह अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही होगी। यहाँ, मेरा चित्त एक और दमयन्ती की तलाश में रमा है।

रामगोपाल भावुक

एक

यामिनी तारों को बटोर चुकी थी। चिड़ियाँ चहचहा रहीं थीं। दूर चमकती पहाड़ियों को चीरकर सूर्यदेवता निकलते हुये दिखाई देने लगे। सुनहरी किरणों से धरती पुलकित हो उठी। सभी जगह चेतन-ही-चेतन जगत दिखाई देने लगा। राहगीर मंजिल को पाटने का इरादा लेकर अपने अपने काम पर निकल पड़े।

अभी-अभी सड़क सुनसान थी, अब चहल कदमी दिखाई पड़ने लगी। कुछ लोग स्वास्थ्य की दृष्टि से घूमने वालों के अलावा कुछ लोग ऐसे भी पथ पर जा रहे थे जो कहीं दूर जाने का इरादा रखते हों। बसें, टेम्पो, ताँगे सभी अपनी गति से सड़क को रोंदते हुए निकल जाते।

सुबह के सात बज चुके थे। एक ताँगा आम के पेड़ के नीचे रुका, एक व्यक्ति उससे उतरा। पहले उसने अपना ताँगे में से बैग उठाया और आम के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर रख दिया। उसने ताँगे वाले को पैसे चुकाए, फिर तीन मंजिला बिल्डिंग की ओर इशारा करते हुए पूंछा- ‘क्यों यही है न धवन होटल ?’

ताँगे वाले ने उत्तर दिया -‘हाँ बाबू साहब, यही है।’ यह कहकर वह अपना ताँगा लेकर चला गया।

भगवती की निगाह उस होटल की ओर उठी। सामने लिखा था -‘धवन होटल‘। वह सोचने लगा ‘आज तक वह इसके बारे में जाने क्या क्या सुना करता था। इसके अन्तः में क्या छिपा है कौन जाने ? फिर मुझे यह जानकर भी क्या करना है?’ यही सोचकर उसने अपना बैग उठाया और स्वाभिमान को जतलाने वाले किसी का भी मुँह तोड़कर लटका देने वाले कदम आगे रखे, पर गर्दन झुक गई- ‘नौकरी, क्या नौकरी ? अपनी जान की बाजी लगाकर की जाने वाली नौकरी ‘दीवानगिरी‘ उर्फ चौकीदारी।’

वह सोचने लगा-‘नौकरी ना करे तो क्या भूखों मरे ? फिर इतनी सुविधायें, मालिक भी दयालु है। विदेशी पर्यटकों की सुविधा के लिये ये होटल बनवा दिया है। जिससे देश की प्रतिष्ठा को आँच न आने पाये। देश की प्रतिष्ठा इससे बचेगी। नहीं-नहीं यह तो सारे देश को बदलने से बचेगी। मैं भी कैसा हूँ जो बेकार की बातें सोचने में लग जाता हूँ।’

यह सोचते हुये वह मुख्य गेट पार काउन्टर पर पहुँच गया। काउन्टर पर बैठी हुई लड़की से पूंछा -‘क्यों मैंनेजर साहब कहाँ हैं ?’

उसने मैनेजर साहब के कमरे की ओर इशारा कर दिया। भगवती इस पर बोला -‘क्यों क्या गूँगी हो ?’

वह उत्तर सुने बिना ही मैनेजर के कमरे की ओर चल दिया।

मैनेजर प्रकाश अपने कमरे में कुर्सी पर बैठा हुआ कुछ लिख रहा था। प्रवेश की अनुमति लिये बिना वह उसके सामने जाकर खड़ा हो गया। प्रकाश की दृष्टि उठी सामने लम्बी मोहरी वाली लाल वैलवाटम, नीली बनियान, हाथ में पंजाबी कड़ा शोभायमान था नुकीली मूंछों की शान, सिर के बाल गर्दन पर सवार हो रहे थे। कद पांच फीट आठ इंच, रंग गेहुंआ, चेहरे पर उदासी का भाव देखकर मैनेजर समझ गया वह कौन हो सकता है? झट से बोला -‘तुम भगवती हो।’

‘हाँ ।’

‘तो बैठिए।’

भगवती कुर्सी बैठते हुए बोला-‘आप ?’

‘मुझे मैनेजर प्रकाश कहते हैं। अभी तक आप ।’

‘मैं टाकीज पर असिस्टेंट मैनेजर था। मालिक को मेरा काम पसन्द आ गया बस ।’

‘ओ हो तो यह बात थी, कल ही उनका फोन आया था।’

यह सुनकर भगवती ने शान बतलाते हुए कहा-‘मैं कोई काम स्वीकार करता नहीं हूँ। यदि करता हूँ तो जान की बाजी लगाकर, उसे पूरा करके मानता हूँ।’

‘मित्र इसके बदले तुम्हें सारी सुविधायें भी मिलेंगी । कल तुम अपने क्वार्टर में पहुँच जाओगे। आज इसी कमरे में मेहमानदारी और कल से नौकरी।’

‘कल से क्यों, आज से क्यों नहीं ?’

‘आज नौकरी का पहला दिन है न, आराम कीजिए।’ यह कहते हुए मैनेजर अपने कार्यालय से बाहर निकल गया।

भगवती उठा और पास में पडे़ सोफे पर लेट गया जैसे बड़ी भारी मेहनत करके आ रहा हो।

शहर का यह वीरान हिस्सा है, जहाँ आव-हवा की दृष्टि से इस शहर में रईसों ने मनोरम बंगले बनवा लिये हैं। दूसरी ओर से धवन होटल । जी हाँ, ये वही होटल है जो सारे संसार में विख्यात है। विदेशी पर्यटक यहीं आकर ठहरते हैं।

दिनभर तो यहाँ सूनापन छाया रहता है पर यह क्षेत्र शाम के पांच बजें से भरा पूरा लगने लगता है। मनोरम दृश्य उपस्थित हो जाता है। होटल में ठहरने वालों की अपेक्षा शहर के रईस भी आ जाते हैं। कुछ लोग ऐसे भी आ जाते हैं जो ऐश और आराम करने आते हैं। या घूमने के बहाने मनोरंजन करने चले आते हैं। कुछ लोग जोड़े के साथ घूमते नजर आएंगे पर इनमें से कुछ लोगों का जोड़ा अपना नहीं होता या तो कोई प्रेमिका होगी या किसी को खरीदकर लाया गया होगा।

तीन मंजिला यह होटल की बिल्डिंग भी बहुत अच्छे ढंग से बनी हुई है। यह वातानुकूलित भी है। यह ठहरने वालों को सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध हैं। किसी राजा महाराजा का होटल होने राजनैतिक लोगों और पलते गुन्डों का घर तो है ही। होटल के पीछे कुछ क्वाटर्स बने हुये हैं जिसमें होटल के कर्मचारी रहते हैं।

गरीब जनता को तो यहाँ की छांया में भी बैठने के पैसे लगते हैं। इसी कारण गरीब व मध्यम वर्ग के लोग इधर निगाह उठाकर भी नहीं देखते हैं। होटल में काम करने वालों में पुरुष बैरा तो होते ही हैं यह भारतीय महिलाएं भी काम करती हैं पर उन्हें अंग्रेजी मैम बनाना पड़ता है। कुछ तो अंग्रेजी मैमों को मात दे जाती हैं और कुछ अपना समय व्यतीत करने में लगी रहती हैं।

सुनीता भी तो उन्हीं में से एक है वह। वह भी तो अपना समय निकालने में लगी है। सुनीता को मैनेजर का सख्त आदेश रहता है कि वह साधारण ग्राहकों की ही सेवा करे, फिर उसे अंग्रेजी का भी तो इतना ज्ञान नहीं है। आठवी पास लड़की को मैम बनाना पड़ा। उसे अंग्रेजी के कुछ शब्द बोलना तो अन्य साथियों के साथ रहते-रहते आ गया है। चार वर्ष हो गये, फिर भी कल तमीज सीखने के चक्कर में मैनेजर की डाँट सहनी पड़ी थी। रात्री को सोई तो बारह बज चुके थे। कल विदेशी पर्यटकों की अधिक भीड़ थी। इसलिए काम में अधिक व्यस्त रहना पड़ा था।

तीन घण्टे ही सो पाई होगी स्वप्न में चौंककर जाग गई। जागने पर भी बड़ी देर तक हतप्रभ बनी रही, फिर जब चेतना आई, रोज की तरह विचारों में खोने लगी- यहाँ तो वह तंग आ गई है इस जीवन से। इससे तो उसका गाँव का जीवन ही अच्छा था। वहाँ स्वच्छन्द तो रहती थी। मेरी माँ तो बचपन में ही स्वर्ग सिधार गईं थीं, पिताजी ने ही मेरा पालन पोशण किया है।

पिताजी कहते रहे कि राजा नल और दमयन्ती के पौराणिक आख्यान को तेरी माँ अक्सर सुनाया करतीं थी। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से उनका सम्बन्ध रहा है। वे दमयन्ती की संघर्ष कथा से वहुत प्रभावित थीं, इसी करण तेरी माँ ने तेरा नाम दमयन्ती रखा था।

यहाँ चार वर्ष तक दिन रात काम करने के बाद भी तमीज नहीं सीख पाई। यहाँ रहते-रहते अप्राकृतिक वेशभूषा में सजते-सजते प्राकृतिक सुन्दरता भी लुप्त हो गई है। ये लिपिस्टिक, ये पाउडर, ये अंग्रेजी लिवास वहाँ कहाँ थे ? वहाँ तो वह एक साधारण सी धोती में ही कितनी सुन्दर लगती थी। कितनी लावण्यता थी उसके चेहरे पर। हर कोई उसकी सुन्दरता की प्रशंसा किये बगैर नहीं रहता था। ‘सुन्दरता‘, इसी सुन्दरता ने तो उसे यहाँ लाकर खड़ा कर दिया है।

उसके बिना लाली लगे होंठ, कितने सुन्दर थे। हर कोई उस पर मुग्ध हो जाता था । गाँव घर में चर्चा का विशय बनीं रहती। गाँव के नवयुवक उसकी निगाहें देखने के लिये तरसते थे और आज इतना सजने के बाद भी एकाध कमी रह जाती है।

आज इतने सुन्दर वस्त्र होने पर भी दोशी लगते हैं। होता भी ऐसा ही है जब मनुश्य प्रकृति में विचरण करता है, उसे कहीं कोई दोष दिखाई नहीं देता। यहाँ तक कि अंग भंग वाले लोग जब तक प्रकृति में रहते हैं अपने को दोशी नहीं मानते। उसके शारीरिक दोशों का उनके मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, पर जब वही सभ्य कहे जाने वाले समाज में पहुँच जाते हैं। स्वयं को हीन समझने लगते हैं।

वे लोग उस समाज से दया की याचना भले ही ना चाहें पर समाज उन्हें दया की दृष्टि से देखता है। हर किसी की दयावान निगाहें उन पर ठहर जाती हैं। वे जमीन में धंसते चले जाते हैं। उन्हें अपने शारीरिक दोशों का दुख नहीं होता पर दुख होता है उस दृष्टि का, जो उसे रहम की दृष्टि से देखती है।, आज सुनीता ऐसे ही विचित्र चिन्तन में खोई रही।