Gulnar in Hindi Classic Stories by mandavi barway books and stories PDF | गुलनार

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गुलनार


गुलनार
जैसे ही मेरी नींद खुली, मैंने देखा कि दूर खड़ी वो कातर दृष्टि से मुझे देख रही थी। आँखों की चमक, सेब जैसे गालों का गुलाबीपन बहुत फीका था।
मुझे याद है अप्रैल का वो दिन जब मैंने उसे पहली बार देखा था। जैसे ही हमारा ट्रक श्रीनगर के बाहरी इलाके में बने कैम्प में दाखिल हुआ, कुछ बच्चे सड़क के दोनो तरफ खड़े अपने दोनों हाथ हिला कर ज़ोर ज़ोर से उछल रहे थे, मानो हमारी पलटन का स्वागत कर रहे हों। ट्रक से उतर कर उन बच्चों को देख अनायास ही एक मुस्कान तैर गयी मेरे होठों पर। उन सभी प्यारे चेहरों में से एक पर जा कर मेरी नज़र जम सी गयी। कोई बारह तेरह साल की रही होगी वो। चमकीली नीली आँखें, मानो नीलम जड़े हुए हों, गोरा रंग, सेब जैसे गुलाबी गाल जिनमे हंसने पर गड्ढे पड़ रहे थे। बेहद मासूम। देखता रह गया मैं। उसे देख कर जाने क्यों मन खिल से गया।
तभी मेरे अर्दली ने मुझे पुकारा। उससे अपने कमरे की चाबी लेकर मैं जैसे ही पलटा, वो बच्चे तब तक भाग कर दूर जा चुके थे।
दूसरी बार जब मैंने उसे तब देखा, जब मैं किसी ज़रूरी काम से श्रीनगर के दफ्तर जा रहा था। कस्बे से थोड़ा बाहर की ओर सड़क के किनारे किनारे वो और उसकी सहेली दोनो सर पर टोकरियाँ रख कर कहीं से आ रहीं थीं, उसने मुझे देखा, मैंने मुस्कुरा कर हाथ हिलाया। पहले तो वो थोड़ा झेंप गयी, फिर उसने भी मुस्कुरा कर हाथ हिला दिया। फिर खिलखिलाकर हंस दी।
मैं अपनी जीप के आईने में उसे देखता रहा, अगले मोड़ तक।
वो वहीं आस पास उसी कस्बे में रहती थी, श्रीनगर से बाहर की ओर। अक्सर दिख जाती, और शर्मा कर मुस्कुरा देती।
उस दिन जब मैं अपने कमरे के बाहर अपने साथी अफसर से बात कर रहा था, दूर तारों की बाड़ के पार वो ज़ोर ज़ोर से अपने दोनो हाथ हिला कर मेरा ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रही थी।
"एक्सक्यूज़ मी, एक मिनट अभी आया।"
मैं भाग कर उसके पास पहुंचा।
"बोलो, क्या हुआ, क्यों बुलाया।"
वो शर्मा कर नीचे देखने लगी
" जल्दी बोलो, मेरे पास ज़्यादा वक़्त नहीं होता है"
उसने अपना हाथ आगे बढ़ दिया, उसके हाथ में एक सुंदर सा तुलिप का पीला फूल और एक सेब था।
"ये क्या है? मेरे लिए लाई हो?"
"हाँ" उसने गर्दन हिलाई। मैंने वो सेब और तुलिप का फूल उसके हाथों से ले लिया।
"अच्छा ये बताओ, ये तुम मेरे लिए क्यों लाई?"
वो कुछ न बोली, मुस्कुरा कर गर्दन झुक ली। फिर जाने क्या हुआ, अचानक मेरी बाँह को कौतूहलवश देखने लगी। हिचकिचाते हुए मेरी ऊपरी बाँह को अपने दोनो हाथों से छूकर चौंकते हुए बोली "सलमान खान!!!"
मेरी हंसी निकल गयी। " अच्छा, मेरे डोले। सलमान खान पसंद है तुम्हे"
उसने शर्माते हुए गर्दन हिलाई।
"नाम क्या है तुम्हारा?"
"गुलनार"
"स्कूल जाती हो"
"नई, सकूल बन्द हो गया"
"क्यों?"
"उदर बम फट गया"
"ओह!"
तभी किसी ने उसे दूर से पुकारा, और वो भाग गयी।
जब भी मैं अपनी ड्यूटी के अवकाश में कुछ देर आराम करने अपने कैम्प पहुँचता, अक्सर गुलनार से मुलाक़ात हो ही जाती। मुझे सलमान खान कह कर आवाज़ लगती वो। धरती के इस स्वर्ग में खिले मासूम फूल सी लगती मुझे, मेरे घर से मीलों दूर एक अपनी सी।
एक बार लकड़ी के दो पटिये सिर पर लाद कर कहीं से आ रही थी। मैं कैम्प के बाहर ही खड़ा था। मैंने पूछा "ये क्या है? चूल्हा जलाने के लिए लकड़ियां?"
खिलखिलाती हुई बोली "नई, किरकिट खेलेंगे, बोत पसंद है।"
"तुम्हें बैट बॉल चाहिए?"
"हाँ, और चाकलेट भी"
और मुस्कुराती हुई आगे बढ़ गयी।
अगली बार जब मैं कैंटीन गया याद से उसके लिए कुछ चॉकलेट ले आया।
अगले दिन जाने कहाँ से भागती हुई आ रही थी। हाथ हिलाया तो बस "मोले... खाना.. एम्बुलैनस..." हांफते हुए इतना कह कर भाग गयी। कुछ देर बाद जब मैं गश्त पर जाने को जीप में बैठा ही था, तब आई।
"क्या हुआ तुम्हारे अब्बा को? सब खैरियत? मैंने चॉकलेट आगे बढ़ते हुए कहा"
"वो मोले (अब्बा), एम्बुलैनस डिराईवर, हैं। उनको ड्यूटी जाना था, खाना बनाना था।"
"ओह, अच्छा, चलो मुझे अभी जाना है।"
"किदर?"
"ड्यूटी। और हाँ, माहौल बहुत खराब है, ज़्यादा घूम मत करो, घर पर रहा करो।"
"ठीक है। बाई-बाई सलमान खान" वो आगे बढ़ गयी। मैं मुस्कुराया, और हमारी जीप निकल गयी।
उस दिन के बाद बहुत दिनों तक वो नज़र नही आई। अपनी व्यस्तताओं में मैं भी उसे भूल सा गया। घाटी का माहौल वैसे भी कम तनावग्रस्त न था।
तभी अचानक एक दिन वो दिखाई दी। अजीब सी बदहवास सी लग रही थी। पास से गुज़री तो देखा रो रही थी। मैंने पूछने की कोशिश की, तो एक नज़र मेरी ओर देखा और भाग गयी। मेरे पास न उसे रोकने का समय था, और न ही सोचने का। पर पता नहीं क्यों उसका वो परेशान चेहरा मुझे भी परेशान कर गया।
मेरे काम की व्यस्तताओं के बादलों के बीच खिलती नरम धूप सी थी। एक अनजान सा रिश्ता बन गया था उस से।
अगस्त में मानसून पूरे जोरों पर था। उस दिन हमारी यूनिट को हमारे कैम्प के पास की बस्ती में दो आतंकवादी छुपे होने की खबर मिली थी। मैं और मेरी यूनिट उस मकान को घेर कर चुपचाप उन दोनों की टोह लेने की कोशिश कर रहे थे। अंदर से बातों की आवाज़ें आ रहीं थीं, जिन्हें हम टीन की छत पर गिरती बारिश की आवाज़ के बीच सुनने की कोशिश कर रहे थे। मेरे एक साथी को मैंने इशारे से अधखुली खिड़की में से झांकने को कहा। वो दबे कदमों से खिड़की की ओर बढ़ा। मुझे इशारा किया की 2 लोग हैं कमरे में। उसने दोवारा झांकने की कोशिश की और फिर तीन का इशारा किया। मैं भी खिड़की की दूसरी ओर आकर दीवार दे सट गया। बारिश कुछ कम हुई। अंदर की आवाज़ें अब कुछ स्पष्ट सुनाई दे रहीं थी।
"न तूने मेरे पाक रास्ते को समझा, न ही मोले (अब्बू) ने।" गुस्से भारी पहली आवाज़ सुनाई दी।
"अगर तेरी बहन न होती तो मैं इसे कब का जन्नत पहुंच चुका होता" दूसरी आवाज़ ने पहले का समर्थन किया।
मेरे साथी ने खिड़की से झांक कर देखा और फिर इशारा किया। दो बंदूकधारी और एक बंधक। उसने फिर देखने की कोशिश की और इशारा किया, एक आदमी और था उस कमरे में, ज़मीन पर पड़ा हुआ।
शायद ज़मीन पर लाश थी, और निश्चित ही बंधक की जान को खतरा। मेरे साथी ने इशारे से दोनों आतंकवादियों की स्थिति मुझे समझाई।
मैंने खिड़की में से गोली दागी जो सीधे जाकर उन में से एक के कंधे पर लगी। वो लड़खड़ाकर वहीं गिर गया।
बंधक की जो अब तक मौन थी, उसकी चीख निकल गयी।
दूसरा आतंकवादी फुर्ती से बंधक को अपनी बाँह की गिरफ्त में दबा कर जवाबी फायरिंग की। वो छुड़ाने की कोशिश करते हुए ज़ोर ज़ोर से रोने लगी।
"गुलनार??"
उसे देख मैंने अपनी जवाबी फायरिंग रुकवा दी। अब बारिश बहुत तेज़ हो चुकी थी। तीर सी चुभती बूंदों के बीच एक आश्चर्य का तीर मेरे मन को भी चुभ गया।
तब तक हमारी एक टुकड़ी मकान में प्रविष्ट हो कर उस आतंकवादी को घेर चुकी थी।
उसने गुलनार पर बंदूक तान दी।
"नी बोइजान नी, मोले को मारा, मुझे नी" वो गिड़गिड़ा रही थी।
"आगे नी बड़ना, मार दूंगा इसे, मार दूंगा" बौखलाया हुआ उन्नीस बीस साल का एक लड़का, आँखों में कोई डर या खौफ नहीं था। फर्श पर पड़ी लाश शायद उनके अब्बू की ही थी।
मैंने खिड़की से ही उस पर निशाना साधते हुए चेतावनी दी "लड़की को छोड़ दो। तुम्हें भी बख्श दिया जाएगा।"
"सलमान खान!!!" मास्क से झांकती मेरी आँखों में उसने देखा" शायद मेरी आवाज़ पहचान गयी थी वो।
"अच्छा, ये है तेरा फौजी यार, कितनी बार कहा इनसे दोस्ती मत कर" उसने दाँत पीसते हुए कहा।
"तुझे भी अपने साथ जन्नत ले जाऊंगा, शहादत नसीब होगी"
उसने गुलनार की गर्दन पर गिरफ्त कसते हुये बंदूक उसकी कनपटी पर रख दी।
इसके पहले की वह ट्रिगर दबा पाता, मैंने उसके माथे पर गोली दाग दी और उसके पीछे खड़े मेरे एक साथी ने भी उस पर फायरिंग की। वो वहीं धराशायी हो गया। एक गोली गुलनार की बाँह को छूती हुई निकली, वो भी बेसुध हो कर गिर पड़ी।
तभी पहला आतंकी, जिसके कंधे पर मैंने गोली मेरी थी, उसने अपनी बंदूक उठा कर मुझ पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसा दीं।
आज सुबह पूरे 2 महीने और कई सर्जरी के बाद मुझे आज आई सी यू से कमरे में शिफ्ट किया गया।
वो मेरे सामने खड़ी थी। एक हाथ पर प्लास्टर बंधा हुआ था। मैंने मुस्कुराते हुए उसे अपने पास आने का इशारा किया।
उसने झट से मेरा हाथ थमा और अपने माथे से लगा कर फूट फूट कर रोने लगी। उस दिन के बाद शायद आज उसे मौका मिला था दिल का गुबार निकल देने का।
मैंने उसके सिर पर हाथ रखते हुए उसे सांत्वना देना चाहा।
"सलमान खान, मेरी मोजी, मेरी अम्मी बचपन में ही गुज़र गईं। मोले (अब्बू) बहुत अच्छे थे। बोई (भाई) बार्डर पार भाग गया। तो दिन पूरे दो साल बाद घर आया। मोले ने घर से निकल जाने को कहा तो उनको गुस्से में मार दिया।"
उसने अपने आँसू पोंछते हुये कहा "उसदिन तुमको गोली लगी, तो मुझे लगा की एक बोई तो चला गया था पहले ही। सलमान बोई भी चला जाएगा।"
वो फिर गर्दन झुकाकर ज़ार ज़ार रोने लगी। शायद उसकी दुआ ही मुझे वापस ले आई थी।
मुझे ज़्यादा बात करने के लिए मना किया गया था। लेकिन मैं उसे ऐसे देख न सका।
"तुम्हारे इस सलमान बोई का नाम मेजर विक्रम जीत सिंह है। जो तुम्हारे साथ खड़ा है और हमेशा रहेगा।" मैंने उसके आँसू पोंछते हुए कहा, "स्कूल जाओगी?"
उसने अचरज भरी निगाहों से मेरी ओर देखा। "मैंने सब इंतज़ाम करवा दिया है जम्मू में। वहां अच्छा स्कूल भी है और होस्टल भी। तुम ठीक हो जाओ, फिर भेजेंगे।"
"सलमान बोई.....जाऊँगी" वो इस से ज़्यादा कुछ कह न सकी।
तभी नर्स ने मिलने का समय खत्म होने का इशारा किया। और उसे अपने साथ ले जाने लगी। जन्नत पाने की जद्दोजहद में इस जन्नत को जहन्नुम बना दिया है कुछ लोगों ने। पहाड़ों की सफेद चाँदी सी बर्फ को सुर्ख करने पर आमादा लोगों की वजह से जाने कितनी गुलनार खिलकर महकने से पहले ही कुचल दी जाती हैं। उसे देखकर मेरा मन इन्ही ख़यालों से भर गया।
"गुलनार" मेरी आवाज़ सुन उसने पलटकर देखा। "जब स्कूल जाओगी ना तो ये अपने साथ लेती जाना" मैंने एक ओर रखे बैग की ओर इशारा किया।
उसने नर्स की मदद से बैग खोला। "बोई ये तो..." उसकी सूनी आँखों में एक बार फिर नीलम चमक उठे, मेरे सारे ज़ख्मों को मरहम सा लग गया।
"हाँ बैट और बॉल है, सकूल में खोलेगी ना, तुम्हारा किरकिट"