The Author राज कुमार कांदु Follow Current Read इंसानियत - एक धर्म - 39 By राज कुमार कांदु Hindi Fiction Stories Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books THE DROWNED WHISPERS The village of Kashiwara sat like a forgotten memory, nestle... The Time Depritiarion, Evan Universe breaths by Sunlight. - 5 So friends, how are you!!Hopoing fine.Any way, wel come back... Love at First Slight - 30 Radha's Day in IndiaThe sun shone brightly in India, and... Trembling Shadows - 7 Trembling Shadows A romantic, psychological thriller Kotra S... MYSTERIOUS RAPIST AND MURDER MYSTERIOUS RAPIST AND MURDER (Based on a hellish rape and... 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लघुशंका ! शंका का होता है ई तो हमको मालूम है लेकिन ई लघुशंका ? अरे भैया ! पगड़ी वगडी बांधे हो । देहाती मनई लग रहे हो और बोली बोल रहे हो विलयती ? ” एक दुसरे दबंग से दिख रहे देहाती ने उसका उपहास उड़ाया था । उसके साथियों ने भी जम कर उसकी बात पर ठहाके लगाए थे । मुनीर के आसपास खड़े दुसरे लोग भी हंसने लगे थे ।तभी मुनीर के बगल में खड़े एक संभ्रांत से दिख रहे युवक ने उनका प्रतिरोध किया ” अरे भाई ! इन भाईसाहब को पेशाब लगी है । उनकी मदद करने की बजाय तुम लोग हंसी कर रहे हो ? ठहाके लगा रहे हो ? ” उसकी बात उन देहातियों को नागवार गुजरी । उनमें से एक दूसरा गुर्राया ” अबे ओ ! दालभात में मुसलचंद ! तुझे कौनो तकलीफ है का ? काहें हम लोगन के मुंह लग रहा है ? अरे सफर का मामला है । थोड़ा सा हंसी मजाक हुई गवा तो इसमें तेरा का बिगड़ गवा जो इतना खिसिया रहा है ? ”लेकिन वह युवक भी कहाँ माननेवाला था ? लगता था वह भी मजाक के मूड में आ चुका था । हंसते हुए ही बोल ” वो सब तक तो ठीक है ,अब सब लोग थोड़ी देर के लिए बाहर आ जाओ और इन भाईसाहब को हल्का हो लेने दो । ”लेकिन पहलेवाले दबंग से दिखाई दे रहे देहाती को उसकी हंसी नागवार गुजर गयी । कड़े रौबदार आवाज में बोला ” अबे पिद्दी के शोरबे ! अब तेरी इतनी औकात हो गयी कि तू हमें हुकुम करेगा ? तू है कौन बे ? ”वह युवक भी कम नहीं था । अपने कमीज की आस्तीन चढ़ाते हुए उस युवक ने एक भद्दी सी गाली उस रौबदार आवाज के मालिक को दिया और फिर अपने हाथों की उंगलियां मुंह में डालकर जोर की सीटी मारी ।उसके सीटी मारने की देर थी कि डिब्बे के गलियारे में फंसी जनता को रौंदते हुए कई युवा पल भर में ही वहां जमा हो गए । उस भीड़ में जहां पैर रखने की जगह के लिए भी मुनीर काफी देर से तरस रहा था उन गुंडों जैसी शक्ल सूरत वाले युवाओं को देखते ही वहां काबिज सवारियां पता नहीं कहाँ गायब हो गईं । अब उस दुबले पतले युवक में गजब का जोश दिखाई दे रहा था । इससे पहले कि उन देहातियों की तरफ से कोई जवाब आता उसने उन पांचों में से एक अधेड़ का गिरेबान पकड़ कर उसे बाहर खींच लिया । इसी के साथ युवक के साथियों व उन देहातियों के बीच खूंखार लड़ाई शुरू हो गयी । मुनीर ने बीचबचाव करने का काफी प्रयास किया लेकिन अब यह लड़ाई उन दोनों समूहों की नाक का सवाल बन गया था ।उन दोनों समूहों के बीच कहीं उसकी भी धुलाई न हो जाये यही सोचकर मुनीर धीरे से दरवाजे की तरफ खिसक गया जहां अब जगह खाली हो चुकी थी । तेज शोर और गाली गलौज के बीच दोनों समूहों में भयानक जंग छिड़ चुकी थी और संयोगवश यही वो समय था जब ट्रेन धीरे धीरे रुकने लगी थी । मुनीर ने दरवाजे से झांक कर देखा । ट्रेन किसी वीराने में रुकी हुई थी । दूर दूर तक कहीं किसी बस्ती का कोई नामोनिशान तक नहीं था । ट्रेन रुकते ही दूसरे डिब्बे से भी दरवाजे पर लटके लोग नीचे उतर गए । उनकी देखादेखी मुनीर भी नीचे उतर गया और यह सुनहरा अवसर शायद उसे खुदा की मेहरबानी से ही मिला है वह पटरी से दूर खेतों में उतर गया । अभी वह लघुशंका से फारिग हुआ ही था कि ट्रेन के सीटी की आवाज सुनकर ट्रेन की तरफ दौड़ पड़ा । इससे पहले कि वह ट्रेन पकड़ पाता ट्रेन धीरे धीरे सरकने लगी । मुनीर थोड़ा घबरा अवश्य गया था लेकिन उसने हौसला बनाये रखा और तेजी से दौड़ते हुए वह ट्रेन के एक दुसरे डिब्बे में चढ़ने में कामयाब हो ही गया ।कुछ देर तक सीढ़ियों पर खड़े रहने के बाद वह धीरे धीरे डिब्बे में प्रवेश पा गया । इस डिब्बे में अपेक्षाकृत भीड़ बहुत कम थी । और डिब्बे में पहुंचकर अंदर का दृश्य देखते ही उसका हृदय जोरों से धड़कने लगा । डर के साथ ही उसे आश्चर्य भी हुआ यह देखकर कि इस भीड़भाड़ में भयानक गर्मी में भी काले कोट पहने एक टीसी लोगों के टिकट चेक कर रहा था । अभी वह उससे काफी दूर डिब्बे में दूसरे छोर पर था और मुनीर की तरफ ही बढ़ रहा था । ट्रेन अब अपनी सामान्य गति से दौड़ने लगी थी । मुनीर ने अपने पैंट की जेब में हाथ डाला और कुछ मुड़े तुड़े हुए नोटों को अपनी उंगलियों से छुकर महसूस किया । नोटों की मौजूदगी के अहसास ने ही उसके हॄदय की धड़कनों पर काबू पा लिया था और अब उसका दिमाग तेजी से काम करने लगा था । टीसी बड़ी तेजी से टिकट चेक करते हुए मुनीर के और करीब आ गया था । मुनीर सोचने लगा इससे पहले कि वह आकर उससे टिकट मांगे उसे कुछ करना होगा । कुछ ऐसा करना होगा कि वह बिना टिकट पकड़े जाने से बच जाए । कुछ ही देर में उसके शातिर दिमाग ने एक योजना बना ली और उस पर अमल करने के लिए खुद को तैयार करने लगा कि तभी उसे टी सी एक आदमी को धमकी देता हुआ नजर आया । उसे लगा जैसे वह टीसी उस यात्री को नहीं वरन उसे ही धमका रहा है । अपनी योजना के मुताबिक वह भीड़ में जगह बनाते हुए टीसी की तरफ बढ़ने लगा । अभी वह उसके करीब भी नहीं पहुंचा था कि उस दीन हीन से दिखने वाले यात्री का गिरेबान पकड़े वह टीसी डिब्बे में दुसरे दरवाजे की तरफ बढ़ने लगा । किसी कसाई के पीछे जिस तरह बकरा घिसटते हुए चलता है और बचने का प्रयास करता है उसी तरह वह यात्री भरसक उस टीसी के साथ जाने से बचने की कोशिश करता हुआ उसका मनुहार किये जा रहा था । ” साहब ! मैं सही कह रहा हूँ ! मैंने टिकट खरीदा था लेकिन मेरा जेब ही किसी ने काट लिया है । टिकट और पैसे मेरे पर्स में ही थे जो किसी जेबकतरे ने उड़ा लिया है । देखो मेरी जेब कटी हुई है । बच्चों की कसम साहब ! मेरा यकीन करो ! ”दरवाजे के नजदीक आकर टीसी धीरे से फुसफुसाया ” ठीक है ! अब बंद कर यह नौटंकी और कुछ चढ़ावा चढ़ा तब यह देवता तेरे उपर प्रसन्न होगा । जल्दी कर स्टेशन आनेवाला है । स्टेशन आ गया तो हिस्सेदार बढ़ जाएंगे और तेरा नुकसान हो जाएगा । समझा ? ”रोने लगा वह यात्री ” कहाँ से लाऊं साहब मैं चढ़ावा आप के लिए ? जब मेरी जेब ही कट गई है । अब तो दो ही रास्ते हैं , या तो आप मुझे छोड़ दीजिए बिना कुछ लिए आपकी बड़ी मेहरबानी होगी या फिर मुझे ले चलिए और डाल दीजिए जेल में । वहां कम से कम पेट तो भरेगा । ” ‹ Previous Chapterइंसानियत - एक धर्म - 38 › Next Chapter इंसानियत - एक धर्म - 40 Download Our App