The Author राज कुमार कांदु Follow Current Read इंसानियत - एक धर्म - 38 By राज कुमार कांदु Hindi Fiction Stories Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books THE DROWNED WHISPERS The village of Kashiwara sat like a forgotten memory, nestle... The Time Depritiarion, Evan Universe breaths by Sunlight. - 5 So friends, how are you!!Hopoing fine.Any way, wel come back... Love at First Slight - 30 Radha's Day in IndiaThe sun shone brightly in India, and... Trembling Shadows - 7 Trembling Shadows A romantic, psychological thriller Kotra S... MYSTERIOUS RAPIST AND MURDER MYSTERIOUS RAPIST AND MURDER (Based on a hellish rape and... 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” कंडक्टर का सीधा सा सवाल भी मुनीर को परेशान कर गया क्योंकि उसने तो जल्दबाजी में यह भी नहीं देखा था कि जिस बस में वह बैठ गया है वह कहां तक जाएगी । तभी खिड़की से बाहर झांकते हुए सामने ही एक रेलवे स्टेशन दिखाई पड़ गया । देखते ही उसके चेहरे पर मुस्कान आ गयी । ठेठ देहाती अंदाज में बोला ” अब कहाँ जाना है साहब ! जहां जाना था अब वहां तो हम पहुंच ही गए हैं । बस अपनी गाड़ी थोड़ी देर के लिए रोक ले और हमें यहीं उतर जाने दे । इस रेलवे टेशन पर । ”” ठीक है ठीक है । चल दस रुपये निकाल , टिकट के । ” कंडक्टर ने उससे पैसे मांगते हुए बस रोकने के लिए सीटी बजा दी थी ।” अब हम टिकट लेकर क्या करेंगे ? ये ले पांच रुपये ! बहुत होते हैं इत्ती दूर के लिए । रख ले चाय वाय पी लेना । ” तब तक बस रुक चुकी थी । बस के रुकते ही मुनीर नीचे उतर गया ।उसके उतरते ही बस आगे बढ़ गयी और मुनीर बढ़ गया रेलवे स्टेशन की तरफ जो मुख्य सड़क से हटकर थोड़ी दूर था । मुख्य सड़क से एक छोटी सी सड़क स्टेशन की तरफ जा रही थी । मुनीर उसी सड़क पर चलने लगा । दरअसल यह प्रतापगढ़ रेल्वे स्टेशन था जो शहर की सीमा से थोड़ा हटकर शहर से बाहर था । दिन भर में गिनती की गाड़ियों की आवाजाही की वजह से इस स्टेशन के आसपास का क्षेत्र भी काफी सुनसान व निर्जन जैसा ही था ।जिस समय मुनीर वहां पहुंचा कोई पैसेंजर ट्रेन आनेवाली थी । उसने पता किया । यह ट्रेन विलासपुर जानेवाली थी जो कि वहां से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर था । चूंकि ट्रेन का समय हो चुका था व लाइन क्लियर हो चुकी थी नियमों के अनुसार टिकट खिड़की बंद हो चुकी थी ।मुनीर के लिए यह भारी परेशानी का कारण था । टिकट न होने की वजह से यदि वह यह ट्रेन छोड़ देता तो अगली ट्रेन उसे लगभग छह घंटे बाद मिलनी थी । अभी वह सही या गलत कुछ सोच भी नहीं सका था कि तेज सिटी मारती ट्रेन उस स्टेशन के एकमात्र प्लेटफॉर्म पर आकर रुक गयी ।प्लेटफॉर्म पर तो गिने चुने लोग ही नजर आ रहे थे लेकिन ट्रेन में भीड़ काफी नजर आ रही थी ।‘ जो होगा देखा जाएगा ‘ सोचकर मुनीर बिना टिकट ही ट्रेन में सवार हो गया । वर्दी की धौंस दिखाकर बस वगैरह में बिना टिकट के सफर करना तो उसके लिए आसान था लेकिन पहली बार ट्रेन में बिना टिकट यात्रा करने के अहसास ने ही उसके हृदय की धड़कन बढ़ा दी थी ।किसी तरह डिब्बे में प्रवेश कर चुके मुनीर ने डिब्बे का एक जायजा लिया जो बेतरतीब ठूंसे हुए लोगों से भरा हुआ था । मुनीर खुद भी अपने आपको चारों ओर से दबा हुआ महसूस कर रहा था । इस दबाव की स्थिति से बचने के लिए मुनीर बलपूर्वक एक तरफ बढ़ने की कोशिश करने लगा । आगे बढ़ते हुए मुनीर डिब्बे के एक तरफ बने दोनों शौचालयों के बीच की जगह में आ गया । यहां अपेक्षाकृत राहत थी । मुनीर बड़ी देर तक वहीं खड़ा रहा । ट्रेन अपनी सधी हुई गति से भागती रही और समय भी अपने प्रवास पर निरंतर आगे बढ़ रहा था । चलते चलते ट्रेन अचानक कहीं रुक जाती । बगल की पटरी पर से कोई तेज गाड़ी धड़धड़ाती हुई गुजर जाती । कुछ देर बाद यह ट्रेन भी पटरी पर रेंगने लगती । इसी तरह तीन छोटे स्टेशन गुजर चुके थे लेकिन मुनीर सहित शौचालय के गलियारे में खड़े किसी भी यात्री को ट्रेन की सही स्थिति का पता नहीं चल रहा था । ट्रेन में चढ़ने वाले यात्रियों की शोरगुल व नोकझोक से उन्हें अंदाजा लग जाता कि शायद कोई स्टेशन आया है ।लघुशंका की आवश्यकता महसूस होने पर मुनीर ने एक शौचालय का दरवाजा खटखटाया । लेकिन वह शायद अंदर से बंद था । कुछ देर की प्रतीक्षा के बाद उसने बेतरतीब शौचालय के दरवाजे को पीटना शुरू किया । थोड़े से प्रयास के बाद ही शौचालय का दरवाजा खुलने की आवाज आई । अंदर का दृश्य देखकर मुनीर का कलेजा मुंह को आ गया । ‹ Previous Chapterइंसानियत - एक धर्म - 37 › Next Chapter इंसानियत - एक धर्म - 39 Download Our App