Insaaniyat - EK dharm - 37 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | इंसानियत - एक धर्म - 37

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इंसानियत - एक धर्म - 37

असलम ने रजिया के हाथ से पानी का गिलास थामते हुए रहमान चाचा की तरफ देखा । उनके चेहरे के भाव बदले हुए थे । वह उनके चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश करते हुए पानी पीने लगा । अचानक रहमान चाचा की गंभीर आवाज फिजां में गूंज उठी ” तुम सही कह रहे हो बेटा ! मैं ही भटक गया था । भुल गया था कि एक और एक मिलकर दो नहीं ग्यारह होते हैं । तुमने मेरी आँखें खोल दीं । उस दिन अगर नारंग साहब ने मेरे बेटे आमिर को समय से अस्पताल नहीं पहुंचाया होता तो अल्लाह जाने क्या होता ? अब मेरी समझ में आ रहा है कि ये कायनात , ये दुनिया सिर्फ दीन और ईमान से नहीं , आपसी मोहब्बत और भाईचारे से चलती है । इंसानियत से चलती है । अमन और चैन से चलती है । नफरतें तो इस दुनिया को नेस्तनाबूत करती हैं । अल्लाह ताला ने फरमाया भी है एक दिन ऐसा आएगा जब इंसान इंसान को नहीं पहचानेगा । नफरतें बढ़ जाएगी और फिर एक दिन सैलाब आएगा । कयामत आ जायेगी । मुझे तो अभी से कयामत के आसार नजर आ रहे हैं । तुम सही कह रहे हो असलम बेटा ! इससे पहले कि हमारा देश सीरिया और बर्मा की राह पर चल पड़े हमें अपना रास्ता बदल देना चाहिए । अब भी समय है हमें अमन की राह पर चलते हुए अपने देश और समाज को तरक्की ………”
अपना वाक्य भी पूरा नहीं कर पाए थे रहमान चाचा । बांगी साहब एक झटके से खटिये से उठे और गुस्से से बिफरते हुए बोले ” रहमान मियां ! तुम भी इस बदजात की बातों में आ गए । हमें तुमसे इसकी कत्तई उम्मीद नहीं थी कि काफिरों की तरफदारी करनेवाले की तुम हामी भरने लगोगे । क्या हुआ जो उस नारंग ने तुम्हारे बेटे को समय से अस्पताल पहुंचा दिया ? अरे ! उसने अपनी जात से कुछ भी नहीं किया । बेशक वह जरिया बना लेकिन करनेवाला तो वो ऊपर बैठा है । उसी ने तुम्हारे आमिर की जिंदगी बख्श दी और तुम उस पाक परवरदिगार का शुक्रिया अदा करने की बजाय इसकी बातों में आकर उस काफ़िर को याद कर रहे हो । उसकी शान में कसीदे पढ़े जा रहे हो । इसकी तो मति मारी गयी है लेकिन तुम्हें क्या हुआ है ? ”
” तुम सही कह रहे हो लेकिन थोड़ी हेरफेर के साथ । तुम्हारी बातों में आकर तो मेरी मति ही मारी गयी थी लेकिन शुक्र है उस मौला का जो इस कायनात के जर्रे जर्रे की खबर रखता है । उसने मुझे इंसानियत का गुनहगार होने से बचा लिया । उसने सही वक्त पर असलम को यहां भेजकर मुझे कयामत के दिन रुसवा होने से बचा लिया । अब बड़े फख्र से कयामत के दिन मैं फरिश्तों से नजरें मिलाकर बात कर सकूंगा । लेकिन तुम्हें क्या हुआ है बांगी मियां ? इतनी सी बात तुम्हारे भेजे में कैसे नहीं आ रही , या समझना नहीं चाह रहे हो ? अगर नहीं समझ आ रही और तुम ये भुल भी चुके हो कि तुम्हारे बेटे ने अपने मालिक से जो कि एक काफ़िर है तुम्हारी नजरों में उधार और वह भी बिना व्याज की रकम लेकर तुम्हें दिया था और उसी रकम से तुम अपनी बिटिया की शादी कर सके थे लेकिन ये कैसे भूल गए कि आज जहां तुम्हारा घर बना हुआ है वह जगह भी तुम्हें किसी काफ़िर ने सिर्फ इंसानियत की खातिर मुफ्त में दे दिया था । इंसानियत का तकाजा तो ये है बांगी मियां कि तुम ताउम्र उस काफ़िर की बंदगी करो , उसके सजदे करो । माना कि इस्लाम तुम्हें इसकी इजाजत नहीं देता । खुदा के अलावा किसी दुसरे की बंदगी और सजदे करना कुफ्र है इस्लाम में लेकिन इस्लाम में कहां ऐसा कहा गया है कि अपने ऊपर अहसान करने वालों से बेअदबी करो ? ऐसा करनेवालों को हम अहसानफरामोश कहते हैं और बदकिस्मती से तुम अहसानफरामोश हो यह मैं आज जान पाया हूँ । अब मेरी आँखें खुल चुकी हैं । अब मैं तुम्हारे बहकावे में नहीं आनेवाला बांगी साहब और इतना ही नहीं अब किसी को तुम्हारे झांसे में आने भी नहीं दुंगा ये वादा रहा । अगर तुम मदरसे में बच्चों को दीन ईमान की सही तालीम देने के अलावा अपनी उल्टी सीधी तकरीरें बच्चों को पढ़ाई और अगर किसी बच्चे ने हमें बता दिया तो समझ लो तुम्हारा मदरसा उसी दिन बंद और तुम्हारा क्या होगा यह तुम अच्छी तरह समझ सकते हो । अब जाओ और मगरिब के नमाज की तैयारी करो । दिन डूब गया है और मगरिब के नमाज का वक्त हो गया है । ”
” खुदा मुझे कुफ्र से बचाये रहमान मियां ! तौबा करो तौबा ! ” पलटकर बांगी साहब ने जवाब दिया था और और फिर अपने दोनों हाथों को उठाकर दुआ मांगने के अंदाज में ऊपर देखते हुए बोला ” या खुदा मुझे माफ़ कर । मैं तेरा गुनहगार हूं । ये मेरी खता ही तो है कि मैंने अपने इन कानों से तेरी शान में गुस्ताखी करनेवाली तकरीरें सुनी और कुछ नहीं कर सका । हमें तो चाहिए था कि इन गुस्ताखों की गर्दन इनके बदन से जुदा कर देते लेकिन क्या करें ? देश भी काफिरों का और कानून भी उन्हीं का । हमारा क्या ? ”
अब असलम से नहीं रहा गया । छूटते ही फट पड़ा ” अब बहुत बोल चुके आप बांगी मियां । हम सब बरदाश्त कर सकते हैं लेकिन अपने वतन की रुसवाई हमारे लिए नाकाबिले बरदाश्त है । आप कहते हैं यह देश भी काफिरों का , तो क्या यह देश आपका नहीं है ? यहां की आबोहवा में आप पले बढ़े और अपनी जिंदगी के हसीन और बेहतरीन पलों को बड़ी शान से जिया और अब यह देश आपको बेगाना लगने लगा ? तो फिर कौन सा देश है आपका ? वो पाकिस्तान जो पूरी दुनिया में दहशतगर्दों की खेती करने के लिए बदनाम है । जहां के हुक्मरान गले तक स्याह कारोबारों में लगे हुए पाए जाते हैं । जहां रियाया की आजादी का इल्म आपको इसी एक समाचार से हो जाएगा कि वहां नमाज के दौरान एक शख्स के पादने से इस कदर अफरातफरी मची कि उस पादने वाले शख्स को गिरफ्तार करना पड़ा और उस पर मुकदमा चलाया गया । और हैरान तो आप अब होंगे जब उस मुकदमे का फैसला सुनेंगे । मुकदमे की कार्रवाई पूरी हुई और उस शख्स को खुदा की शान में गुस्ताखी करने का गुनहगार पाया गया । जानते हो उसका आगे क्या हुआ ? नहीं न ? तो सुनो ! आपके उस प्यारे व पसंदीदा मुल्क में जिसकी तारीफ में आप उसकी शान में कसीदे पढ़ रहे हैं उस शख्स को सिर्फ पादने के गुनाह में सजाए मौत दी गयी । है न अजीब बात ?
लेकिन आप जैसे आंख वाले अंधों को वहां की बुराइयां और अपने वतन की अच्छाइयां न कभी दिखी हैं न दिखेंगी । तभी तो अपने मुल्क के कुछ हिस्सों में कुछ ईमानवालों की जमात ऐसी है कि अगर पाकिस्तान में बरसात भी हो रही हो तो वह यहां छत्री ताने घुमते हैं । भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच के मुकाबले में अगर पाकिस्तान जीत जाए तो खुशियां मनाते हैं । वहां की हर अच्छी बुरी खबर से अपने आपको जोड़े रहते हैं । मैं पुछता हूँ अगर इस्लाम के नाम पर आपको हमारा दुश्मन मुल्क इतना ही पसंद था तो आप लोग बंटवारे के वक्त ही पाकिस्तान क्यों नहीं चले गए ? अभी पिछले जुम्मे की ही बात है जब दिल्ली की जामा मस्जिद से निकलती सैकड़ों नमाजियों की भीड़ ने दिल्ली की सड़कों पर नारे लगाए ‘ बर्मा के मुसलमानों ! हम तुम्हारे साथ हैं । ‘ क्यों भाइयों ! आप लोग क्यों इनके साथ हैं ? क्या सिर्फ इस लिए कि वो भी मुसलमान हैं या आपकी इंसानियत जग गयी है ? आपकी इंसानियत तब कहां गयी थी जब कश्मीर में लाखों पंडितों पर बेइंतहा जुल्म करके उन्हें उनके वतन से बेदखल कर दिया गया था । तब आप लोग खामोश इसलिए रहे क्यों कि जुल्म करनेवाले कोई और नहीं बल्कि मुस्लिम थे । मजहब के नाम पर इंसानियत की तरफदारी करनेवालों कश्मीरी पंडित क्या इंसान नहीं थे ? ”