The Author राज कुमार कांदु Follow Current Read इंसानियत - एक धर्म - 35 By राज कुमार कांदु Hindi Fiction Stories Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books स्वयंवधू - 27 सुहासिनी चुपके से नीचे चली गई। हवा की तरह चलने का गुण विरासत... ग्रीन मेन “शंकर चाचा, ज़ल्दी से दरवाज़ा खोलिए!” बाहर से कोई इंसान के चिल... नफ़रत-ए-इश्क - 7 अग्निहोत्री हाउसविराट तूफान की तेजी से गाड़ी ड्राइव कर 30 मि... स्मृतियों का सत्य किशोर काका जल्दी-जल्दी अपनी चाय की लारी का सामान समेट रहे थे... मुनस्यारी( उत्तराखण्ड) यात्रा-२ मुनस्यारी( उत्तराखण्ड) यात्रा-२मुनस्यारी से लौटते हुये हिमाल... 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“बांगी साहब बीच में ही चीख पड़े थे ।” बांगी साहब ! चिखिये चिल्लाईये मत ! मुझे आपकी फिक्र है । कहीं आपकी तबियत न नासाज हो जाये । जरा दिमाग पर जोर डालिये और सोचिए कि क्या मैंने वाकई इस्लाम को शर्मसार कर दिया है ? ” असलम ने शांति से उन्हें समझाना चाहा था । लेकिन बांगी साहब कहाँ खामोश रहते ” तुझे अभी भी इल्म नहीं है बदजात लड़के कि तूने क्या कुफ्र किया है । तौबा करने की बजाय खुद को सही साबित करने की नाकाम कोशिश किये जा रहा है और सबसे बड़ी बात है कि तुझे तमीज नहीं है कि बड़ों से किस अदब से पेश आया जाता है । अगर तुझे तमीज होती तो अपने अब्बा की उम्र के रहमान भाई से और मुझसे यूँ जबान न लड़ाता । एक काफ़िर लड़की के लिए तूने अपनी ही कौम के एक मासूम और परवरदिगार में यकीन रखनेवाले खुदा के एक नेक बंदे को बड़ी ही बेरहमी से हलाक कर दिया और दुहाई दे रहा है इंसानियत की । क्या तुझे इन काफिरों की इंसानियत के किस्से का जरा भी इल्म नहीं है जो आये दिन अखबारों की सुर्खियां बनते रहती हैं ? अखबारों में आये दिन खबरें आते रहती हैं कि इन इंसानियत के पुजारियों ने कहीं किसी अखलाक को तो कभी कहीं किसी गाड़ी के ड्राइवर को सिर्फ शक की बिना पर पीट पीट कर मार डाला । क्या यही है इंसानियत ? और तू नाशुक्रे उन काफिरों की तरफदारी कर रहा है । ” बांगी साहब अब खासे उत्तेजित हो गए थे । ‹ Previous Chapterइंसानियत - एक धर्म - 34 › Next Chapter इंसानियत - एक धर्म - 36 Download Our App