औक़ात
बड़ी हीनता-सी महसूस हो रही है उसे. अपना अस्तित्व उसे मखमली चादर पर लगे टाट के पैबंद जैसा लग रहा है. हँसते-मुस्कुराते चेहरे, अभिजात्य मुस्कानें, कीमती कपड़े, जेवर - सब उसकी हीन भावना को और बढ़ा रहे हैं. इसके जी में आ रहा है कि जल्दी से जल्दी यह सब ताम-झाम खत्म हो ताकि वे लोग घर की राह लें. पर घर पहुँचना ही तो सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है इस वक़्त. दिनेश के बेटे की तबीयत अचानक खराब न हो गई होती तो उन्हीं के साथ उनकी गाड़ी में घर वापिस चले जाते. पर उन्हें बच्चे को डॉक्टर को दिखाने जाना पड़ गया. दिनेश ने कहा तो था कि डॉक्टर को दिखाकर थोड़ी ही देर में वे लोग फिर से होटल आ जाएंगे, मगर उन्हें गए हुए करीब पौना घण्टा हो चुका था.
पार्टी अब उतार पर है. कुछ लोग हाथों में अपनी-अपनी गाड़ी की चाबियाँ घुमाते हुये बाहर जाते दिखाई भी देने लगे हैं. उसका दिल बैठा जा रहा है. अब अगर दिनेश का इन्तज़ार करते रहें और वह न आए तो फिर क्या होगा? रात के साढ़े दस का वक़्त तो वैसे भी हो चुका है. बस मिलना तो इस वक़्त कोई इतना आसान नहीं. और फिर सर्दियों के मौसम में इतनी रात गए बीवी और दो साल की बच्ची के साथ पाँच-सात मिनट तक सुनसान रास्ता चलकर बस-स्टॉप तक जाना भी उसे कोई अक्लमंदी का काम नहीं लग रहा. सीमा ने थोड़े-बहुत गहने भी पहने हुये हैं.
आए तो वे दिनेश की गाड़ी में ही थे. उन्हीं के साथ वापस लौटने की बात हालाँकि हुई नहीं थी, पर यह तय ही था कि वे उन्हीं के साथ लौटेंगे. इसी वजह से उन लोगों ने आराम-आराम से खाना खाया था. नहीं तो अगर उन्हें पता होता कि उन्हें बस से वापस जाना है तो वे जल्दी-जल्दी खाना-वाना निपटाकर कब के यहाँ से रूख़सत हो चुके होते.
उसकी बेचैन नज़रें बार-बार घड़ी पर जा टिकती हैं. वक़्त बढ़ता जा रहा है. उसे हैरानी हो रही है कि दूसरे लोग बड़े आराम से बैठे ठहाके लगा रहे हैं. यहाँ तक कि कुछ लोगों ने अभी खाना खाना शुरू भी नहीं किया है. सच है, अपनी गाड़ी में तो चाहें रात के एक बजे भी मज़े से घर जाया जा सकता है. पर वह? उसे अपनी स्थिति बहुत दयनीय लग रही है.
अपने घर की तरफ जाने वाले एक-दो रिश्तेदारों को वह जानता है. पर वे लोग या तो स्कूटर पर आये हैं या फिर ख़ुद ही इतनी तादाद में हैं कि उनकी गाड़ी में औरों के लिए गुजाइश ही नहीं है.
आख़िर जब उसकी घड़ी में पौने ग्यारह बज गये हैं तो उसके सब्र का बाँध टूट गया है. उसने डूबती आवाज़ में सीमा को चलने के लिये कह दिया है. शिल्पी कब की सो चुकी है और ख़ुद उसने उसे उठाया हुआ है.
होटल से बाहर निकलते वक़्त उसके कदम मन-मन भर के हो रहे हैं. एक-एक पल उसे हज़ार बरसों के बराबर लग रहा है. उसे लग रहा है जैसे हर कोई बस उनकी तरफ ही देख रहा है और उसका मज़ाक उड़ा रहा है कि देखो, फाइव स्टार होटल में शादी की पार्टी में शामिल हुए ये लोग पैदल जा रहे हैं.
होटल की मुख्य इमारत से बाहर निकल लाउंज से लेकर सड़क पर आने के दौरान तो उसके पसीने छूट गये हैं. रोशनी में चमचमाते हुये चौड़े-चौड़े रास्ते पर खड़ी देशी-विदेशी कारें, टैक्सियाँ और उनके आस-पास खड़े, ठहाके लगाते, कार में बैठते और झन्नाटे से गाड़ी दौड़ाकर बाहर जाते हुये लोग. उसे लग रहा है जैसे वे इन लोगों की नज़रों में भिखारी हों और उनके कपड़े उतारकर उन्हें सरेराह खड़ा कर दिया गया हो.
उसका जैसे रोना छूटने लगा है. काश, उसके पास कम से कम स्कूटर ही होता. पर कहाँ से ले वह स्कूटर? अकेले जने की तनख़्वाह से रोटी तो पूरी पड़ती नहीं, स्कूटर लेने के तो बस ख़्वाब ही देखे जा सकते हैं.
चलते हुये वह रूआँसी आवाज़ में सीमा से सिर्फ़ यही कह पाया है, ‘‘जी कर रहा है धरती में समा जाऊं बस.’’
किसी तरह वे बाहर सड़क पर आये हैं. सुनसान-सी सड़क पर कोई इक्का-दुक्का गाड़ी ही आ-जा रही है. बस स्टॉप पर जाने के लिये पाँच-सात मिनट चलना पड़ेगा, जो ऐसे वक़्त में उसे खतरे से खाली नहीं लग रहा. इस वक़्त बस मिल पाना भी उसे बड़ा मुश्किल लग रहा है. आने को तो उसके मतलब की एक-दो बसें आ भी सकती हैं, पर बेइन्तहा भीड़ से लदी ऐसी किसी बस को बीवी-बच्चे के साथ पकड़ने का ख़याल ही उसे मूर्खतापूर्ण लग रहा है.
वह मनाने लगा है कि कोई ऑटो-रिक्शा मिल जाए. हालाँकि यह बात आरे की तरह उसके दिमाग़ को चीर रही है कि अगर ऑटो वाले को सत्तर-अस्सी रुपये दे दिये तो तनख़्वाह मिलने तक महीने के बाकी दिन कैसे गुजरेंगे. मगर ऑटो मिल जाना ही इस वक़्त उसे इस ज़लज़ले से उबरने का एकमात्र रास्ता नज़र आ रहा है. किन्तु ऑटो भी तो बस स्टॉप के आसपास ही मिल सकता है, जहाँ तक जाना उसे सुरक्षित नहीं जग रहा. वह बदहवास-सा, डर, ग्लानि और शर्म के भंवर में चक्कर खाता घर पहुँचने के बारे में सोच रहा है.
तभी उन्हें पीछे से किसी ऑटो के आने की आवाज़ सुनाई दी है. उन्होंने घूमकर देखा है. अंधेरे में यह पता नहीं चल पा रहा कि उसमें कोई सवारी बैठी है या नहीं, पर उन्होंने उसे रूकने का इशारा कर दिया है. ऑटो रूक गया है. पूछने पर ऑटो वाले ने बड़ी बेरूख़ी से कहा है कि तीन सौ रुपये लगेंगे. तीन सौ रुपये सुनते ही उसके पैरों तले की ज़मीन खिसक गई है. उसके दिमाग़ में अपनी जेब में पड़े 392 रुपये एकदम से घूम गये हैं. परन्तु तभी उसे होटल के अंदर से निकलकर आ रही कोई कार दिखी है. बिजली की-सी तेज़ी से यह ख़याल उसके दिमाग़ में आया कि अगर उन्होंने इस ऑटो को छोड़ दिया तो उस कार में बैठे हुये लोग उन्हें पैदल चलते देखकर उनके बारे में क्या सोचेंगे. यह सोचते ही शिल्पी को उठाए हुए वह झटके से ऑटो में बैठ गया है. सीमा के लिये एक तरफ़ खिसकते हुये उसने महसूस किया कि उसकी आँखों में अब तक अटके हुये आँसू उसके गालों पर फिसलने लगे हैं.
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