Baingan - 23 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | बैंगन - 23

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बैंगन - 23

भाई ने अपने पुलिस वाले मित्रों से कह कर तन्मय को तुरंत छुड़वा दिया और मामला रफा- दफा करवा दिया। वह घर पहुंच गया।
मैं जानता था कि बेचारे निर्दोष तन्मय की कोई ग़लती न होने पर भी उसके पुजारी पिता उसे दिल से कभी माफ़ नहीं करेंगे और मौके बेमौके उसे जलील करते रहेंगे इसलिए उनकी ग़लत फहमी दूर करना हर हाल में ज़रूरी है। इसलिए मैं खुद उसके साथ उसके घर गया और पुजारी जी को सारी बात बताई कि किस तरह मेरी दुकान पर ही ग़लत फहमी होने से बेचारा लड़का बिना बात के फंस गया।
सुनते ही तन्नू ने पिता के पांव छू दिए और पुजारी जी गमछे से भीगी आंखें पौंछते हुए मंदिर चले गए।
मेरे लिए उलझन बाक़ी थी। मैं अब भाई के घर को छोड़ कर यहां तन्मय के घर नहीं रह सकता था और दूसरी तरफ मैं इस हाल में तन्मय को भी अकेला नहीं छोड़ना चाहता था। इसके दो कारण थे।
एक तो पुजारी जी को सही बात पता चल जाने के बावजूद तन्मय की गिरफ़्तारी की खबर अख़बार में छपी थी, इससे चारों तरफ़ उसकी भारी बदनामी हो चुकी थी। वह अपने दोस्तों और मिलने वालों से मुंह छिपा कर अकेला घर में ही पड़ा था। तो उस निर्दोष को संभालने की ज़िम्मेदारी भी मेरी ही थी।
दूसरे, मेरे मन में ये जानने की उथल- पुथल भी तो मची हुई थी कि आखिर हुआ क्या? तन्मय पकड़ा कैसे गया? क्या हुआ उसके साथ? क्या मेरे भाई के घर में कोई घटना घटी या फिर कुछ और चक्कर हुआ।
अब मेरे लिए तन्मय के घर रुकना संभव नहीं था और मैं भाई के घर उसे अपने साथ ले जाना नहीं चाहता था अतः मैं दुकान का कुछ सामान खरीद कर लाने के नाम पर वहां से किसी और जगह जाने के लिए निकल गया।
इधर घर में भाई - भाभी को समझाना जितना मुश्किल पड़ा, उससे कहीं ज्यादा पुजारी जी से तन्मय को अपने साथ ले जाने की बात करना मुश्किल पड़ा। बहुत समझाने और ये विश्वास दिलाने के बाद ही पुजारी जी ने तन्मय को मेरे साथ जाने दिया कि मेरे पास उसकी नौकरी पक्की है और उसकी पूरी ज़िम्मेदारी मैं लेता हूं।
सबको एक तरह से संशय में डाल कर ही मैं और तन्मय वहां से निकल पाए। भाई की कार बस स्टैंड तक छोड़ने आई, जहां से टिकिट लेते समय तक मैं खुद भी नहीं जानता था कि हम दोनों कहां जाएंगे।
तन्मय कुछ बुझ सा गया था किंतु मुझे उससे ये सब बातें जानने की जल्दी थी कि उसके साथ क्या हुआ।
मेरा बैग तन्मय के पास ही था और अब हम दोनों अजमेर जाने वाली एक बस में सवार थे।
तन्मय ने बताया कि उस दिन वो फूल देने के लिए भाई साहब के बंगले पर पहुंच गया और तांगे को बाहर ही छोड़ कर भीतर चला गया।
वह तीन- चार गुलदस्ते निकाल कर मेज पर रख ही रहा था कि उसे घर की नौकरानी से ये पता चला कि घर में कोई नहीं है। भाभी बच्चों को लेकर बाज़ार गई थीं और भाई किसी मिलने वाले के साथ अपने शो रूम पर चाय पीकर गाड़ी में बैठ कर कहीं निकले हैं।
तन्मय को मैंने जिस काम से भेजा था उसे देखते हुए तो इससे अच्छा मौका कोई और हो ही नहीं सकता था। तन्मय उस लड़की से इधर- उधर की बातें करने लगा। युवा नौकरानी ने भी उसकी बातों में पूरी रुचि दिखाई।
यहां तक कि गुलदस्ते बनाने के कौशल और फूलों की बातें करते हुए तन्मय ने एक बार तो उसका हाथ भी पकड़ लिया।
लड़की ने कोई प्रतिरोध नहीं किया।
लेकिन इसी बीच भाई के शोरूम के किसी कर्मचारी के आ जाने की आहट से घबरा कर लड़की ने तन्मय को जल्दी से एक वाशरूम में भेज दिया और दरवाज़ा बन्द कर दिया।
ये सुनते ही मेरा माथा ठनका। और आगे की बात मेरे दिमाग़ में कौंध गई। मुझे वो मनहूस दिन याद आ गया जब मैं खुद भाई से मज़ाक करने का इरादा करके उस वाशरूम में जा बैठा था।