Baingan - 19 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | बैंगन - 19

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बैंगन - 19

जैसे जैसे शाम गहराती जा रही थी मेरा मन डूबता जा रहा था। मुझे लग रहा था कि ऐसा न जाने क्या हुआ जो सुबह का गया हुआ तन्नू यानी तन्मय अभी तक वापस लौट कर नहीं आया।
उसके पिता मंदिर से लौट आए थे और लड़के द्वारा बना कर रखे गए भोजन की थाली लेकर आंगन में खाना खा रहे थे। मैं उद्विग्न सा उनके पास बैठा हुआ था और मन ही मन डरा हुआ भी था।
मुझे खाना बनाने वाले लड़के ने गर्म खाना उसी समय खिला दिया था और पुजारी जी का खाना रख कर वो चला गया था।
मैंने अभी तक पुजारी जी को ये नहीं बताया था कि तन्मय को सुबह मैंने ही अपने काम से भेजा है और वो न जाने कहां फंस कर अब तक नहीं लौटा है। वो तो यही समझ रहे थे कि उनका लापरवाह बेटा मुझे घर में छोड़ कर अपने दोस्तों के संग इधर उधर मटर गश्ती करता घूम रहा है। उन्हें बेटे की लापरवाही पर खिन्नता हो रही थी जो खुद को नौकरी देने वाले सज्जन आदमी को भी नहीं बख्श रहा है।
तन्मय की उम्र अभी ज़्यादा नहीं थी पर बिना मां के बच्चे वैसे भी समय से पहले ही बड़े हो जाते हैं। दूसरे, तन्मय किसी बात पर उनसे उलझ कर कुछ दिन पहले काम ढूंढने मेरे पास आ ही चुका था इसलिए वो इस बात को भी जानते थे कि उनका बेटा अकेला घर से बाहर भी रह सकता है। उसकी आवारगी को उन्होंने अपनी नियति मान लिया था।
बहरहाल, जो भी हो, मुझे अब उन दोनों पिता पुत्र पर मन ही मन तरस आ रहा था जो मेरे कारण मुसीबत में घिर गए थे। मैं निर्दोष पुजारी जी को चुपचाप रोटी खाते हुए देखता रहा।
मेरा मन कहता था कि अब मुझे उन्हें सच बता ही देना चाहिए कि उनका बेटा दोस्तों के साथ आवारगी करने नहीं, बल्कि मेरे द्वारा भेजे जाने पर अब तक लौट कर नहीं आया है। बेचारे ने सुबह से कुछ खाया भी न था। न जाने कहां होगा, किस हाल में होगा।
भगवान की भक्ति में रमे रहने वाले लोग अपनी बेहतरी का ख्याल भी तो नहीं रख पाते बेचारे। यही सोचते रहते हैं कि सब परमात्मा की माया है।
खाना खाते ही पुजारी जी अपने कपड़े उतार कर सोने के लिए कमरे में जाने लगे, और जाते जाते मुझसे भी बोले- आप भी आराम कीजिए, वो नालायक आ जाएगा जब उसका मन करेगा। आपको किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो मुझसे मांग लेना।
सुबह बहुत जल्दी उठने के कारण शायद अब उनकी आंखों में नींद भरी हुई थी इसलिए वो सोने चल दिए।
मेरा मन और भी कातरता से भर गया।
इस मकान में जिस छत पर हम लोग कल रात सोए थे वहां चढ़ने के लिए कोई पक्की सीढ़ी नहीं बनी थी। बल्कि एक लकड़ी की सीढ़ी ही थी जिसे दिन में उतार कर दीवार के सहारे रख दिया जाता था।
पुजारी जी जाते जाते मुझसे फ़िर बोले- आपके लिए सीढ़ी लगा दूं, आप आराम करो।
पर मेरा चिंतित मन अकेले छत पर जाकर सो रहने का नहीं था इसलिए मैंने उनसे कहा- आप फ़िक्र मत करो, आप सो जाओ, मैं खुद सीढ़ी रख लूंगा, जब नींद आयेगी।
वो अपने बिस्तर पर पसर गए। मैं टहलता हुआ तन्मय की खोज और चिंता में एक बार फ़िर अहाते से बाहर निकल आया।
दूर दूर तक तन्मय के लौटने का कोई संकेत नहीं था। उसके तांगे की आहट भी सुनाई नहीं देती थी।
मैं बेचैनी में इधर- उधर टहलता रहा।
पुजारी जी के खर्राटों की तेज़ आवाज़ यहां तक आ रही थी।
काश, मुझे पुजारी जी के खर्राटों की नहीं, घोड़े के हिनहिनाने की कोई आवाज़ सुनाई दे!