UJALE KI KI OR - 31 in Hindi Spiritual Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | उजाले की ओर - 31

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उजाले की ओर - 31

उजाले की ओर

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स्नेही मित्रो

प्रणव भारती का नमस्कार

मुझे याद आ रहा है अपना बचपन जब मैं उत्तर-प्रदेश के एक शहर में रहती थी | जैसे ही जाड़ों का मौसम आता गाड़ियाँ भर-भरकर गन्ने (ईख) कोल्हू पर अथवा ‘शुगर मिलों’में जाने लगतीं|कोल्हू तो बाद में कम ही हो गए थे ,मिलें खुलने के बाद ये ईख मिलों में ही जाती जहाँ मशीनों सेगुड़,शक्कर और चीनी बनाई जाती | कभी कभी तो पूरी-पूरी रात भर ये गन्ने की गाड़ियाँ चलती थीं और हम बच्चे रात में भी अपने झज्जे से लटकते हुए गन्ने की गाड़ियाँ लेजाते हुए और सुबह उठकर भी गाड़ीवानों को कतारबद्ध अपने बैलों को हाँकते हुए देखते थे |

ये गाड़ियाँ सड़कों पर से गुज़रती हुई न जाने कितने मीलों की लंबी यात्रा करती हुई अपने गन्तव्य पर पहुंचती थीं |इन गाड़ियों में कभी एक अथवा कभी दो गाड़ीवान होते थे |कड़ाके की सर्दी में ये गाड़ीवान कंबलों में अपने आपको लपेटे हुए थरथराती सर्दी में कांपते हुए अपने काम को पूरा करते थे |इनका पूरा शरीर ढका रहता केवल आँखें ही खुली रहती थीं |ये गन्ने की गाड़ियाँ मिलों में पहुंचाते तब ही तो इन्हें पैसा मिलता जिससे ये अपना भरण-पोषण करते थे |

सर्दी को कम करने के लिए कभी-कभी ये बहुत जोर से गाने गाते हुए जाते थे |कुहरे भरे मार्ग में गाने गाते हुए इनको सब लोग टोकते भी बहुत थे क्योंकि सड़क पर जिनके घर थे उनकी नींद खराब होती थी|कोई यह समझने के लिए नहीं तैयार था कि ये बेचारे ,शीत के मारे किस प्रकार पूरी-पूरी रात भर खुली हुई गाड़ियों में सफर करते होंगे |

शहर में सर्दियों में प्रभातफेरी भी निकाली जाती थीं ,उनका समय भी चार-पाँच के बीच होता था |प्रभातफेरी सनातनी तथा आर्य-समाजी दोनों ही निकालते थे |ठिठुरती शीत में स्नान करके ये लोग शिव-मन्दिर अथवा आर्य-समाज मन्दिर में एकत्रित हो जाते थे और वहाँ से नारे लगाते हुए और भजन गाते हुए सड़कों पर से निकलते थे |

हमारे बाल-मनों में ये बात बहुत खटकती थी कि गरीब गाड़ीवानों को डांट पड़ती लेकिन भगवान के नाम पर प्रभातफेरी निकालने वालों की प्रशंसा की जाती थी |छः-सात वर्ष का बाल मन उस समय आज के जैसा चपल नहीं होता था ,उसमें अनेक गंभीर विचार उठते रहते थे |एक दिन मैंने अपनी सखी से कहा कि इस बात पर घर के बड़ों से बात करनी चाहिए ,बेचारे गाड़ी वाले जब खूब तेज़-तेज़ गाड़ी चलाते थे तो उन्हें पवन भी उतनी ही अधिक तेज़ी से शीत का अहसास कराती थी |

नन्हा मन सोचता ,’क्यों वे बेचारे ठिठुरती सर्दी में अपने घरों से बाहर निकलते हैं ?’

हम बच्चों ने मिलकर अपने बड़ों के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि अगर वे गाड़ीवान अपना मन सर्दी से हटाने के लिए जोर-जोर से गाना गाते हैं तो इसमें किसीको क्यों आपत्ति होनी चाहिए? अब यह बात पूरे मुहल्ले में चर्चित हो गई |हम बच्चों ने सबसे कहा कि जब हम भगवान जी के लिए प्रभातफेरी निकाल सकते हैं तो ये गाड़ीवान अपने बच्चों के लिए इतना कष्ट उठाकर पैसा कमाने के लिए जाते हैं ,इन्हें गाना गाने से रोकने का हमें क्या अधिकार है ?

समय की बात है कि लोगों की समझ में यह बात आ गई क्योंकि हम बच्चों में पड़ौस के एक बड़े भैया भी थे जिन्होंने हमारी बात बहुत प्रभावी ढंग से सबके पास पहुंचाई थी |कितनी ही बार कुछ गर्म मिजाज़ के लोगों ने तो रात को उठकर गाड़ीवानों को पीट भी डाला था |अत: शशांक भैया भी इस बात से काफ़ी नाराज़ थे |उनके कहने से हम सब बच्चों को इतना उत्साह तथा बल मिला जैसे हमें ही कुछ खज़ाना मिल गया हो | अंत में सबने यह स्वीकार लिया कि हमें शीत के मौसम में उन लोगों की कुछ सहायता करनी चाहिए न कि उन्हें लताड़ना !प्रभातफेरी में सड़कों पर चाय के पंडाल लगे रहते थे |सेवा-भावी लोग प्रभातफेरी वालों को चाय पिलाते थे |सो ,हमने भी शशांक भैया के साथ निश्चय कर लिया कि हम भी अपने जेब-खर्च से पैसे इक्कठे करके चाय वाले भैया को उन्हें चाय पिलाने के लिए कहेंगे |

यह तय हुआ कि सुबह उठकर शशांक भैया उन गाड़ीवानों को रोकेंगे और उन्हें यह सूचना देंगे ,उन्होंने पीटे जाने के भय से रुकना बंद कर दिया था |पूरी रात माँ की नजरों से बचकर गर्म कपड़ों में लिपटी मैं बिस्तर में पड़ी तो रही किन्तु नींद ही नहीं आ रही थी |चौक पर लगी घंटाघड़ी के बजते हुए घंटे सुनती और कच्ची नींद में मैं उन्हें गिनती |आखिर चार बजे का घंटा सुनकर तो रहा ही नहीं गया |मैं झज्जे पर जा पहुंची और छज्जे पर लटककर गाड़ीवानों को हाथ हिला-हिलाकर रोकने का प्रयत्न करने लगी |जब अँधेरे में मेरा कार्य सफ़ल नहीं हुआ तो मैं जोर से गाने लगी ,

‘ओ गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे -----‘गाना-वाना तो किसे आता था किन्तु अँधेरे में जोर से बच्चे की चीखती सी आवाज़ सुनकर आगे वाली गाड़ी रुकी फिर पीछे की कई गाड़ियाँ रुक गईं |गाड़ीवान भी अँधेरे में आँखें फाड़कर देख रहे थे और मैं लगातार एक ही पंक्ति दुहरा रही थी ,’ओ गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे –‘

कुछ दूरी पर खड़े शशांक भैया ने चाय वाले को उठा लिया था और चूल्हे पर एक बड़े एल्युमुनियम के भगौने में चाय का पानी भी चढा दिया गया था जो मुझे अपने छज्जे से दिखाई नहीं दे रहा था |जब शशांक भैया ने मुझसे पूछा कि मैं क्यों इतनी सुबह उठ गई थी तब मैंने बड़े सहज भाव से कह कि अगर मैं न उठती तो वो सब गाड़ीवान वहाँ से चले न जाते ?शशांक भैया ने मेरी बात सुनकर मुस्कुराते हुए मुझे ठंड में से अन्दर जाने का आदेश दिया |मुझे नहीं पता ,मैं कब बिस्तर की गरमाई में लिपटकर सो गई थी |सुबह उठकर शशांक भैया ने सबको मेरे उत्साह की बात सुनी व मीठे रस भरे गन्नों का गट्ठर हम सब बच्चों के सामने रख दिया |अब यह काम पूरी सर्दियों भर चलने वाला था ,गाडीवान चाय पीटे और हम उनके दिए हुए मीठे गन्नों का स्वाद धूप में बैठकर लेते |

प्यार मिल ही जाता है अगर चाहे कोई

एक यही तो है जो दिलों को जीते है -------

आप सबकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती