Vishwasghat - 9 in Hindi Classic Stories by Saroj Verma books and stories PDF | विश्वासघात--भाग(९)

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विश्वासघात--भाग(९)


दयाशंकर की बात सुनकर जमींदार शक्तिसिंह कुछ सोच समझकर बोले____
अगर ये ही वो नटराज है तो इससे टकराना तो आसान ना होगा,क्योंकि ये तो अब बहुत बड़ा आदमी बन गया है, ना जाने कितने नेता और पुलिसवाले इसकी मुट्ठी में होंगें, इससें टकराने के लिए पहले हमें खुद को मजबूत करना होगा,तब जाकर हम इससे टकराने का सोच सकते हैं।।
आप बिल्कुल ठीक कह रहें हैं,जमींदार साहब! दयाशंकर बोला।।
नटराज से टकराने के लिए किसी शातिर और दिमागदार वकील की जुरूरत है,जो नटराज के मुँह से ही उसके जुर्म उगलवा पाएं और ऐसा वकील ढ़ूढ़ने में वक्त लगेगा, जमींदार शक्तिसिंह बोले।।
हाँ,जमींदार साहब! अब मेरी नइया आपके ही भरोसे है, आप साथ देंगे तो ही ये कलंक धुल सकता है,विश्वासघात का ये कलंक जो हर पल मेरी आत्मा और मेरे मस्तिष्क पर प्रहार करता रहता हैं, जिसकी चोट मेरे मन पर पड़ते ही मैं तिलमिला सा उठता हूँ, तब अपनी जीवनलीला समाप्त करने के सिवाय मुझे और कुछ नहीं सूझता लेकिन कुसुम का मुँह देखकर रह जाता हूँ,दयाशंकर बोला।।
अब क्यों जीवन से मुँह मोड़ने वाली बातें करते हो?दया! अब तो बेला बिटिया भी तुम्हें मिल गई है, देखना उसे जब सब पता चलेगा तो वो और हम दोनों तुम्हारा कलंक धोने का कोई ना कोई रास्ता जरूर निकाल लेंगें,जमींदार शक्तिसिंह बोलें।।
हाँ,जमींदार साहब! बेला मिल गई, यही बहुत बड़ा सौभाग्य है मुझ अभागे के लिए,दयाशंकर बोला।।
ऐसी बातें ना करो दया!जैसे बेला बिटिया तुम्हें मिल गई है, हो सकता है उसी तरह तुम्हारा बिछड़ा हुआ पूरा परिवार मिल जाए,जमींदार साहब बोलें।।
आपके मुँह में घी शक्कर ,जमींदार साहब! दयाशंकर बोला।।
पता है दया! मैं कभी कभी सोचता हूँ कि काश मेरा नन्हे मुझे मिल जाता तो मैं बेला का ब्याह उसके साथ कर देता,लेकिन ना जाने कहाँ होगा अभागा और ना जाने कहाँ होंगी लीला,जमींदार साहब बोलें।।
जी,जमींदार साहब! मुझे लीला जीजी ने सब बताया था कि आप उनसे मौहब्बत करते थे लेकिन उन्होंने अपने भाइयों और बहन के पीछे आपको ठुकरा दिया था,दया शंकर बोला।।
तो तुम्हें सब पता है, जमींदार साहब ने पूछा।।
जी,जमींदार साहब! दिल छोटा ना करें, जैसे मुझे बेला मिल गई है वैसे ही विजय भी आपको मिल जाएगा, दयाशंकर बोला।।
भगवान करें! ऐसा ही हो,जमींदार शक्तिसिंह बोले।।
और ऐसे ही शक्तिसिंह और दया शंकर दोनों आपस में अपने सुख दुख बाँटते रहे।।

इधर गाँव में___
इ लीजिए डाक्टरनी साहिबा! आपको आज नाश्ता बनाने की जुरूरत नहीं है, हम आपके लाने आलू के पराँठे, करौंदे की चटनी और तड़के वाला मट्ठा लाएं हैं, कम्पाउंडर साहब की पत्नी गुलाबो ने महेश्वरी से कहा।।
अरें,गुलाबों भाभी! इतनी तकलीफ़ क्यों उठाई आपने,महेश्वरी बोली।।
तकलीफ़ काहें की,डाक्टरनी साहिबा! तुम भी तो हमार छोटी बहन समान हो और फिर तुम सबकी इत्ती चिंता करत हो,तो तुम्हार थोड़ी बहुत फिकर करबे का फर्ज हमार भी बनत है, गुलाबों बोली।।
अरे,खा लीजिए डाक्टरनी साहिबा! आप हम दोनों की छोटी बहन समान हैं,पीछे से कम्पाउंडर साहब आकर बोले।।
ये सुनकर महेश्वरी की आँखें भर आईं, उसकी आँखों में आँसू देखकर गुलाबों पूछ बैठी____
का हुआ? डाक्टरनी साहिबा! आपकी आँखें क्यों भर आईं?
कुछ नहीं, बस कुछ पुराना याद आ गया,महेश्वरी बोली।।
ऐसा का हुआ ? डाक्टरनी साहिबा! गुलाबों ने पूछा।।
मेरे भी दो छोटे भाई थे,लेकिन कुछ किस्मत का खेल था,वो दोनों मुझसे बिछड़ गए, मेरी माँ और मेरी मुँहबोली बुआ भी थी,उनका बेटा ,सब उस मनहूस दिन एक साथ ही मुझसे दूर हो गए,भाई तो बड़े हो गए होंगें, अब तो मुझे किसी की शकल भी याद नहीं,ना माँ की और ना ही बुआ की और वो भी तो मुझे पहचान नहीं पाएंगे, महेश्वरी बोली।।
चुप हो जाइए,डाक्टरनी साहिबा, भला होनी को कौन टाल सकता है और देखिएगा एक ना एक दिन आपके खोए हुए सारे रिश्तेदार आपको मिल जाएंगे, गुलाबो बोली।।
हाँ,ये तो मैने बताया ही नहीं कि मेरे बापू तो मिल गए हैं, इसलिए मैं इतवार को घर जा रही हूँ उनसे मिलने,महेश्वरी बोली।।
ये तो बहुत अच्छा हुआ,अब आप शांत होकर नाश्ता कर लीजिए, मरीजों के आने का बखत हो गया है,गुलाबों बोली।।
अच्छा ठीक है,बहुत बहुत धन्यवाद भाभी नाश्ते के लिए,महेश्वरी बोली।।
कम्पाउंडर साहब और गुलाबों चले गए।।

स्कूल की छुट्टी के बाद विजयेन्द्र, महेश्वरी के दवाखाने पहुँचा,विजयेन्द्र को देखकर महेश्वरी ने पूछा _____
अरे ,मास्टर साहब! आप! कहिए कैसे आना हुआ?
हाँ,उस दिन के बाद कुछ पाठशाला के काम में ब्यस्त था,बच्चों के तिमाही इम्तिहान शुरु हैं ना,माँ ने सुबह पाठशाला जाते समय कहा था कि पाठशाला से लौटते समय रघु काका के खेत से कुछ सब्जियाँ तुड़वाकर लेते आना, नहर की ओर ही उनका खेत है, आपका दवाखाना रास्तें में पड़ा तो सोचा आप से मिलता चलूँ,विजयेन्द्र बोला।।
अच्छा,तो नहर की ओर जा रहे हैं, महेश्वरी बोली।।
हाँ,ना जाने क्यों मुझे नहर की पुलिया में बैठकर पानी में पत्थर मारना,अच्छा लगता है, विजयेन्द्र बोला।।
हाँ,उस दिन मुझे भी बहुत अच्छा लगा था,जब मैं आपके पीछे पीछे नहर पहुँच गई थी,कितना अच्छा लगा था वहाँ बैठकर,चारों ओर शाँति ही शाँति थी,महेश्वरी बोली।।
तो देर किस बात की है, आज भी चलिए मेरे साथ,आज आपकों खेत की ताजी ताजी सब्जियाँ दिखाते हैं, वैसे भी आप खाली ही बैठीं हैं, कोई मरीज भी तो नहीं है, विजयेन्द्र बोला।।
अच्छा! तो मैं भी आपके साथ चलती हूँ और वैसे भी थोड़ी देर में दवाखाना बंद होने वाला है और फिर कम्पाउंडर साहब तो है ही यहाँ, महेश्वरी बोली।।
और दोनों फिर से साइकिल पर बैठकर नहर के पास वाले खेंतों की ओर चल पड़े,कुछ ही देर में दोनों वहाँ पहुँच गए, विजयेन्द्र को देखकर खेंतों में काम कर रहें,रघु काका बोले।।
अरे,मास्टर साहब! कहिए,कैसे आना हुआ।।
राम....राम...काका! माँ ने कुछ सब्जियाँ मँगवाईं थीं,वही लेने आया हूँ, विजयेन्द्र बोला।।
अच्छा! तो ले लो जो चाहिए, रघु काका बोले।।
अच्छा!डाक्टरनी साहिबा! आपको कौन सी सब्जियाँ पसंद हैं, विजयेन्द्र पूछा।।
तो क्या माँ! मेरी पसंद की सब्जियाँ पकाएगीं,महेश्वरी ने पूछा।।
हाँ,कल इतवार है, पाठशाला की भी छुट्टी है, इसलिए उन्होंने आपको कल खाने पर बुलाया है, विजयेन्द्र बोला।।
ओह...माफ़ कीजिए,शायद आपको याद नहीं है कि इतवार को मुझे घर जाना है, सुबह सुबह ड्राइवर मोटर लेकर पहुँच जाएगा और मैं दोपहर तक निकल जाऊँगी, महेश्वरी बोली।।
अरे, हाँ ये तो मुझे याद नहीं रहा,फिर तो कोई बात नहीं,माँ से कह दूँगा कि आप घर जा रहीं हैं, अगले इतवार तक इंतज़ार कर लो,विजयेन्द्र बोला।।
इस तकलीफ़ के लिए माँ से मेरी तरफ से माँफी माँग लीजिएगा, महेश्वरी बोली।
कोई बात नहीं, गलती मेरी है जो मुझे याद नहीं रहा कि आप इतवार को घर जा रहीं हैं, विजयेन्द्र बोला।।
अच्छा, तो आप सब्जियाँ खरीद लीजिए, थोड़ी देर नहर के किनारे चलकर बैठते हैं, फिर आप घर चले जाइएगा,महेश्वरी बोली।।
बस,थोड़ी देर माँ को बताना पड़ेगा ना कि आप नहीं आ रहीं, विजयेन्द्र बोला।।
और दोनों कुछ देर नहर के किनारे बैठकर बातें करते रहें।।

दूसरे दिन सुबह ग्यारह बजे तक ड्राइवर आ पहुँचा और दोपहर के एक बजे तक महेश्वरी घर के लिए रवाना हो गई, उधर दयाशंकर, कुसुम और शक्तिसिंह महेश्वरी की बाट जोह रहे थे,दो तीन घंटे में महेश्वरी घर पहुँच गई, बाप बेटी ने एकदूसरे को देखा तो फूले ना समाए,दोनों की आँखों से आँसुओं की अविरल धाराएं बहतीं रहीं,दोनों के गले रो रोकर इतने रूँध गए कि मुँह से बोल ना निकले,कुछ देर के बाद जब बाप बेटे के आँसू थमें,तब दोनों ने एक दूसरे से दोनों का सुख दुख पूछा।।
दयाशंकर बोला,ये तेरी छोटी बहन,अनाथ थी बेचारी तो मैने इसे अपने पास रख लिया,बस इसे देखकर ही जीने की आस बची थी, नहीं तो कब का जीवन खतम कर लिया होता।।
ऐसा ना कहो,बापू! अब जैसे हम तुम मिल गए हैं, वैसे ही सब मिल जाएंगे और अब से कुसुम भी मेरी बहन की तरह हैं, इसके पढ़ने के लिए मैं कोई अच्छी सी टीचर लगवा दूँगी और कलाकेन्द्र में इसका नाम लिखवा देती हूँ, जहाँ ये कढ़ाई बुनाई सिलाई और भी जरूरी काम सीखेंगी, चार लड़कियों से मिलेगी तो थोड़ी दुनियादारी सीखेगी,महेश्वरी बोली।।
और ये सुनकर कुसुम फौऱन महेश्वरी के गले लग गई और महेश्वरी ने भी उसे बड़े प्यार से गले लगाया,इसके बाद सबने चाय पी और कुसुम के हाथों के बने पकौड़े खाएं।
कुसुम बोली,दीदी! आप सुबह सुबह चलीं जाएंगी ना! इसलिए सब मिलकर मंदिर चलते हैं, मैने मन्नत माँगी थी कि आप आएंगी तो हम सब मंदिर जाएंगें।।
कुसुम की बात महेश्वरी टाल ना सकीं और सब मिलकर मंदिर पहुँचे,दयाशंकर मंदिर के भीतर ना गया,उसे डर था कि पुरोहित बखेड़ा ना खड़ा कर दे पहले की तरह,उसे कुसुम ने समझाया भी लेकिन वो भीतर ना गया,शक्तिसिंह, कुसुम और महेश्वरी मंदिर के भीतर चले गए।।
उस दिन संदीप भी मंदिर पहुँचा उसने दयाशंकर को देखा बहुत खुश हुआ,दयाशंकर ने जैसे ही संदीप को देखा तो पूछ बैठा____
अरे,बेटा! तुम! कैसे हो?
अच्छा हूँ बाबा!संदीप बोला।
तुम्हारे पैसे समय से ना लौटा पाने का मुझे बहुत अफसोस रहा,दयाशंकर बोला।।
कोई बात नहीं बाबा! पैसे तो मिल गए ना! संदीप बोला।।
तभी मंदिर से दर्शन करके तीनों बाहर आएं और जैसे ही महेश्वरी ने संदीप को देखा तो पूछ बैठी___
अरे,तुम! कैसे हो?
अरे,दीदी! आप !और कैसीं हैं?मै तो एकदम अच्छा हूँ, संदीप ने जवाब दिया।।
और वो तुम्हारा छोटा भाई,कैसा है?महेश्वरी ने पूछा।।
वो भी ठीक है, संदीप बोला।।
तभी शक्तिसिंह बोले___
बिटिया! ये साहब! कौन हैं?
बाबा! ये वकालत पढ़ रहे हैं,रक्षाबंधन वाले दिन, बाजार में एक गुण्डा मेरा पर्स छीनकर भाग रहा था,तभी दोनों भाइयों ने उस गुण्डे को पकड़ा था और इन्होंने मुझे दीदी बोला तो मैने इन्हें राखी बाँध दी,महेश्वरी बोली।।
बहुत अच्छा! बहुत बहुत धन्यवाद आपका वकील साहब! कभी घर आइए,शक्तिसिंह बोले।।
जी,जुरूर आऊँगा, संदीप बोला।।
अच्छा! तो वकील साहब! अब हम चलते हैं, कल बिटिया! को जाना है और अभी हमारी बातें भी पूरी नहीं हुईं,शक्तिसिंह ने संदीप से कहा।।
जी,अच्छा! संदीप बोला।।
और सब बँगले वापस आ गए और खाना खाने के बाद करीब एक बजे तक सबकी बातें होती रहीं।।

और उधर नटराज सिघांनिया के बँगले पर____
मधु!खाना खा ले बेटी! मधु की माँ साधना ने आवाज़ लगाई।।
माँ! मेरा मन नहीं है, मधु बोली।।
क्या हो गया है तुझे! मैं एक हफ्ते से देख रहीं हूँ कि तू ठीक से खाना नहीं खा रही है, कौन सा सोंच और कौन सी चिंता सता रही है तुझे जो तू खाना नहीं खा रही है, साधना बोली।।
माँ! कुछ नहीं, एक लड़के से काँलेज में झगड़ा हो गया था,उससे कैसे बदला लूँ, यही सोच रही हूँ, मधु बोली।
सुन! ये बाप जैसी आदतें छोड़ दे,मैं तुझे समझा चुकीं हूँ कि बाप जैसी मत बन,उनके कहें पर मत चल,उनकी जिन्दगी तो ऐसे ही गुजर गई, धोखे और बेईमानी की जिन्दगी जीते,तू उनके जैसी मत बन,साधना बोली।।
ये क्या उल्टी सीधी पट्टी पढा़ रही हो? मधु को मेरे खिल़ाफ, खबऱदार जो आज के बाद कभी ऐसा कहा तो जुबान खीच लूँगा, नटवर सिंघानिया ने अपनी पत्नी साधना से कहा।।
मैं कौन सा गलत कह रही हूँ, सही ही तो कह रही हूँ, तुम धोखेबाज हो,साधना बोली।।
ये सुनकर नटवर ने साधना के गाल पर एक झापड़ दिया और बिना कुछ बाहर चले गए और इधर मधु ये सब तमाशा देखकर बोली____
माँ! तुम क्यों हमेशा डैडी की बेइज्जती करती रहती हो,आखिर तुम्हें क्या मिल जाता है ?ये सब करके,
तू जिस दिन सच्चाई जान जाएंगी ना तो,तेरे पैरों तले जमीन खिसक जाएंगी और अब ज्यादा दिन ये राज दफ़्न रहने वाले नहीं है, कभी ना कभी तो कोई ना कोई ये सच ऊपर लाकर रहेगा,उस दिन तुझे और तेरे बाप को पता चलेगा कि कौन सही है और कौन गलत,साधना बोली।।

क्रमशः___
सरोज वर्मा___