#तलाश-भाग-2
(गतांक से आगे)
दुर्गा दी ने बताया" मांजी सख्त तो हमेशा से रही हैं, बाबूजी बड़े साहब होकर भी मांजी से डरते थे, और दोनों बेटे भी, करीब आठ साल पहले मणि भैय्या जर्मन पढ़ने गये थे , मांजी नही चाहते थी,पर बाबूजी की शह में मणि भैय्या चले गये और तीन साल पहले लौटे,पर साथ में जर्मन बीबी के साथ ,मांजी और बाबूजी ने कहा तो कुछ नही, सभी को बुला कर बहुत बड़ी दावत की थी,
पर मांजी बाबूजी से बहुत नाराज रही, पर कुछ तो टूटा था बाबूजी के अंदर भी , उसके दो महिने बाद बाबूजी चल बसे , मणि भैय्या आना चाहते थे,पर मांजी ने सख्ती से मना कर दिया , उसके बाद मणि भैय्या कभी नही आये, मांजी उनसे फोन में भी बात नही करती हैं, कभी कभी मणि भैय्या शमित भैय्या को फोन करके हाल समाचार ले लेते हैं।
कविता अक्सर सोचती "मुझे यहां क्यों लाया गया है? मेरी क्या जरुरत है इस घर को... घर में रखे देश विदेश से जमा किये कई डेकोरेशन पीसेस् की तरह ही मेरा इस घर में अस्तित्व है",
कविता अपना वजूद तलाशने लगी थी,उसे लगा कि अपनी उच्च शिक्षा की डिग्रीयों का उपयोग उसे करना चाहिये।
बड़ी हिम्मत करके एक दिन उसने शमित से पूछ ही लिया कि "वो आस पास किसी स्कूल में पढ़ाना चाहती है , क्या एप्लाई कर दे" , शमित ने उस दिन चौंक के कविता को देखा , "हां तुम्हारी इच्छा है तो कर सकती हो,पर एक बार मां जी जरुर पूछ लेना",
बहुत साहस जुटा के उसने मां जी से पूछा था "कि मैं सर्विस करना चाहती हूं",
बड़ी गहरी नजरों से मांजी न ऊपर से नीचे तक देखा,बोली "हमारी और से कोई प्रेशर नही,तुम्हारी मर्जी है तो करो"। कैसी आवाज थी , न खुशी थी.. न नाराजगी, न समर्थन का भाव।
बहुत सोचने के बाद कविता ने एक स्कूल में एप्लाई कर दिया,और उसे चुन भी लिया गया।
कविता को लगा कि जिन्दगी एक ढर्रे में आ गई है, जिन्दगी एक रुटीन में बंध गई थी,घर की उपेक्षाओं के बारे में सोचने
का वक्त कम ही मिल पाता था अब,
बस दुर्गादी थी जिनका सबसे बड़ा समर्थन कविता के साथ था,उसके हिस्से के कई काम वो ही निपटा देती , सुबह स्कूल जाते हुये लंच पकड़ाती तो कविता की आंखें भर आती ,उनमें मां दिखने लगती ,कहती "बहू जी समय से खा लेना", कविता सर झुकाये बोलती , हां दुर्गा दी ..खा लूंगी।
स्कूल में कविता का अलग रुतबा था , सभी को लगता कविता शहर के प्रतिष्ठित परिवार की बहू है,घर में पैसों की कोई कमी नही है,शायद समय काटने के लिये नौकरी कर रही हो,
कविता स्कूल में पढ़ाने तो लगी पर स्टाफ से ज्यादा घुलने मिलने से कतराती थी, न किसी को घर आने का आमंत्रण देती न खुद किसी के घर जाती , अगर स्टाफ रुम में घर परिवार की बातें होती तो वो किसी बहाने से निकल जाती,
स्टाफ में कविता के बारे में अलग अलग राय थी,कुछ को वो अन्तर्मुखी लगती, कुछ सोचते गर्व से भरी है,कुछ लोगों को लगता अभी तक इसके आंगन में किलकारी नही गूंजी हैं शायद इसलिये कतराती है.. कुल मिलाकर नकारात्मक सोच ज्यादा लोग रखते थे,
बस सुजाता थी जो कविता को पढ़ने की कोशिश कर रही थी, सुजाता लखनऊ से आकर इस पहाड़ी शहर में पांच साल से अपने बेटे को लेकर रह रही थी,सभी जानते थे उनके पति नही रहे और ससुराल और मायके दोनों दरवाजा उनके लिये संकोच के साथ खुले थे, फिर इस स्कूल में बतौर होस्टल वार्डन और अंग्रेजी पीजीटी की सर्विस का जुगाड़ होते ही वह चली आई तीन साल के बच्चे को लेकर,
कविता को वो जितना पढ़ती उतनी उलझती जाती, क्योंकि कविता उनसे बात करने या मिलने जुलने में संकोच करती थी ,सब के सामने वह सामान्य बनी रहती, पर अकेले बैठी कविता की उदासी को कोई भी नही पढ़ पाता , सुजाता को लगता कुछ तो है कविता की जिन्दगी में अधूरापन या कोई गहरी पीड़ा, जो उसे इस मासूम सी उम्र में मुरझाये जा रही है,
उस दिन स्कूल में पन्द्रह अगस्त स्वतन्त्रता दिवस के उपलक्ष्य में सांस्कृतिक कार्यक्रम था, सुजाता का सात साल का बेटा मां के साथ स्टाफ रुम में आकर बैठ गया,
अचानक कविता के पास आ कर बोला आन्टी नमस्ते,आपको पता है मैं सुजाता मैम का बेटा हूं,
ओह अच्छा कहते हुये कविता मुस्कुरा उठी,
नाम नही पूछेगीं? छूटते ही बोला,
"अच्छा तो अपना नाम बतायें",
मेरा नाम सुविनय है ..अब ये भी बता देता हूँ कि मेरा नाम सुविनय क्यों है,
हां बतायें ...जरुर जानना चाहूंगी ,
मेरी मां का नाम है सुजाता और पापा का नाम था 'विनय... इसलिये मां पापा ने मिल कर रखा था मेरा नाम 'सुविनय',
कविता ने महसूस किया कि अपने पिता का जिक्र करते हुये सुविनय' एक पल के लिये उदास हो आया,
मुझे पापा की बिल्कुल याद नही है, पर मैं रोज कई बार उन्हें अपने नाम के साथ याद करता हूं,और उनकी फोटो देखता हूं,
कविता को उसकी बातें सुन खुशी और उदासी साथ साथ महसूस हुयी,
छोटा पर मुखर बहुत चुलबुला बातूनी बच्चा सुविनय' बहुत जल्दी कविता से घुलमिल गया,
अच्छा सुविनय' आप स्कूल स्टाफ में सबको पहचानते हो?
हां लगभग सभी को जानता हूं ..सभी मां से मिलने घर में आते हैं ना..पर आप कभी घर में आई ही नहीं...,
चलिये अब जरुर आऊंगी ..सुविनय से मिलने..,ठीक है,
हां.. हां.. आन्टी जरुर आईये, इस सन्डे आयेंगी तो हम लूडो, कैरम भी खेल सकते हैं ..ये कहते हुए सुविनय हाथ में पकड़ी गेंद को धीरे धीरे टप्पा देते हुये बाहर निकल गया,
कविता सुविनय से मिलने के बाद अजीब सी विकलता महसूस कर रही थी, अपने अन्दर एक खालीपन सा महसूस हुआ, जहां न प्रेम, वात्सल्य, सम्मान की कोई जगह नही थी,
तभी सुजाता ने पीछे से कविता के कंधे को स्पर्श करते हुये हंसते हुये कहा हमारे साहबजादे विन्नू अपना परिचय दे गये हैं आपको, बहुत गपोड़ी हैं उनकी गप सुननी है तो घर आओ कभी,
हां सुजातादी जरुर आऊंगी आपके पास.. विन्नू से मिलने तो जरुर ही आऊंगी,
क्रमशः
डा.कुसुम जोशी
गाजियाबाद उ.प्र