Jugnu - The world of fireflies - 7 in Hindi Fiction Stories by शक्ति books and stories PDF | जुगनू - the world of fireflies - 7 - अंतिम भाग

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जुगनू - the world of fireflies - 7 - अंतिम भाग

" चलिये " जीवि ने चेहरे पर बिना कोई भाव लिए विद्युत से चलने को कहा जो अब तक उसी दिशा में देख रहा था जिस ओर प्रियमविधा गई थी ।
विद्युत उसके साथ चल दिया । वे दोनों उस जुगनू से सुसज्जित महल के ही भीतर किसी रास्ते से जा रहे थे।
" तो तुम हो जीवि " विद्युत ने मूर्खों की तरह पूछा।
" जी! " वह काफी व्यवहारिक लग रही थी- " राजकुमारी ने परिचित करवाया होगा आपको। "
" हम्म.. " कहकर वह कुछ देर चुप रहा फिर वापस बोल पड़ा- " वैसे तुम्हारी राजकुमारी इतनी ' रूड ' क्यों है?? "
" अर्थात " उसने भौंहे सिंकोड़ी -" हम 'रूड' का तात्पर्य नहीं समझे! "
" तुम्हें इंग्लिश आती है?? विद्युत ने एक और मूर्खता भरा सवाल किया और अपने ही होंठ भींचे।
" क्षमा कीजिएगा?? "
" मेरा मतलब..अंग्रेजी..न..नहीं..नहीं..विदेशी भाषा! हाँ! विदेशी भाषा आती है?? "
" नहीं! हमने कभी ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं किया.. "
" लेकिन तुम्हारी राजकुमारी तो मेरे वर्ड.. मतलब शब्द समझ लेती है। '' विद्युत को कुछ खटका।
" राजकुमारी तो जुगनान के बाहर के पशु पक्षियों व वृक्षों की भी भाषा समझ लेती थीं.. फिर आप तो मनुष्य हैं.. अतः उन्हें कोई भी भाषा समझने में कोई कठिनाई नहीं होती।"
"ओह! " उसने समझ के भाव से कहा और कुछ देर तक खुद में ही बड़बड़ाता रहा- " रूड.. मतलब..म्म... स्ट्रिक्ट! अरे नहीं.. ये भी तो इंग्लिश का वर्ड है.. तो.. म्म..म्म..
" हाँ! " वह अचानक उछल पड़ा। - " तो मैं पूँछ रहा था कि तुम्हारी राजकुमारी इतनी ' खडूस ' क्यों है?? " आखिरकार उसने सही शब्द खोज ही लिया और अपनी इस उपलब्धता पर खुद से ही अपने आप को शाबाशी भी दी।
" ये आप कैसी अनुचित बातें कर रहे हैं?? " वह भड़क उठी पर विद्युत पर उसकी इस प्रतिकिया का कुछ खास असर नहीं हुआ।
" तो? अभी देखा न?? मुझसे कैसे बात करके गई.. पता! जबसे मिली है बस लड़ ही रही है.. किसी बात का सीधा जवाब देती ही नहीं.. कल रात में तो जंगल से ऐसे डाँट कर भगाया कि मैं रो ही देता। ये तुम सब से भी ऐसे ही बात करती है क्या?? "
जीवि विद्युत की इस बचकानी शिकायत पर हंस पड़ी।
" नहीं ! " उसने संक्षिप्त उत्तर दिया और जैसे तैसे अपनी हंसी रोकी - " राजकुमारी ने आपका उचित ही वर्णन किया था.. कि आप अद्भुत हैं। "
" मतलब?? "
" कुछ नहीं!! " उसने बात टाल दी- " अब राजकुमारी हैं तो कुछ गुरूर तो उनपर अच्छा ही लगेगा। "
" नहीं.. " उसने रहस्मयी ढंग से 'हीं' को लंबा खींचा और कुछ सोचते हुए बोला।- " पता वो मेरी फिक्र करती है.. तो कभी बिना किसी बात के ही अजीब सा व्यवहार करती है.. "
" आप राजकुमारी का अतीत जानते है ?? "
" हाँ! " कहते हुए विद्युत ने संक्षिप्त में सब बतलाया - "...और तबसे वो यहीं कैद है?? "
" मतलब आपको नहीं ज्ञात कि वे यहां कैद किसलिए हैं??"
" नहीं! उसने तो नहीं बताया! "
" जुगनपुत्र की वजह से.. " उसने एक लंबी सांस खींची- " यहां के तख्तान जुगन थे.. जिन्होंने जादू की इस मायानगरी की स्थापना की थी.. आप जानते हैं? ऐसे मनुष्यों का जन्म कई वर्षों तक प्रकृति के गर्भ में रहने के पश्चात होता है।
ये जुगनान! , यहां की हर एक वस्तु , जीव, पशु , पक्षी यहां तक की हमारा और अन्य जुगनसेवकों का भी अस्तित्व उनके ही जादू से है। उन्होंने ही हमारा निर्माण किया है..
" तो वो हैं कहाँ!? और प्रियमविधा भी वैसी ही है क्या?? "
" नहीं! राजकुमारी वैसी नहीं हैं! दरअसल जब राजकुमारी आपनी माता के गर्भ में थीं.. तब तख्तान जुगन के जादू का एक कतरा उनके शरीर में प्रवेश कर गया था.. इसीकारण उन्हें भी शक्तियां प्राप्त हैं.. परंतु तख्तान को अपनी इसी गलती की वजह से अपनी जान गवानी पड़ी। "
" लेकिन क्यों?? "
" 'जादू' है ही ऐसा! इसका यदि गलती से भी दुरुपयोग हो जाय अथवा किसी नियम का उलंघन हो जाय तो जादूगर को खामियाज़ा भुगतना पड़ता है। इसी कारण राजकुमारी को भी यहां कैद होना पड़ा.. और तख्तान को तो अपनी जान ही त्यागनी पड़ी। "
" तो तुम सब और ये.. ये जुगनान क्यों अब तक बसा है? जब इसे बसानेवाले ही नहीं है।"
"..क्योंकि ' जादू ' अमर है.. जादूगर खत्म हो सकता है परंतु उसका जादू और शक्तियां नही ।
राजकुमारी भी यहां से नहीं जा सकती अतः उन्होंने आगामी तख्तान के आने तक जुगनान को संभालने का निर्णय लिया और तबसे यहां का संचालन कर रही हैं। "
" मतलब अगर वो तख्तान आ जाय तो वो यहां से आज़ाद हो सकती है?? " विद्युत की आंखें चमक उठी ।
" यहां क्या? तख्तान के आने पर वे इस जीवन से आज़ाद हो जाएंगी। सदियों से उनका समय रुका हुआ है.. उन्हें भी तो इस जीवन से मुक्ति चाहिए। "

क्या इसका मतलब वही था जो विद्युत ने समझा? उसने पिछले दस सेकंड में ही अपनी और प्रियमविधा की एक सामान्य दुनिया की कल्पना भी कर ली थी, और अभी ही न जाने किन बंधनों में बंध गया।
प्रियमविधा यहां से तब तक नहीं जा सकती जब तक यहां का वह 'तख्तान' मिल नहीं जाता, और वह यहां आ भी गया तो प्रियमविधा उसे हमेशा के लिए छोड़ जाएगी।
न जाने! दो दिन में ही कैसे किसी का ऐसा फितूर चढ़ गया था कि उसके जाने का सोचकर ही उसकी आँखें भारी हो रही थी।
वह अब जल्द से जल्द वापस प्रियमविधा के पास जाना चाह रहा था। उसने अपने कदमों की गति तेज कर ली और वह जीवि से भी आगे चलने लगा।
" अभी हमने बात पूरी नहीं की!!" जीवि ने पीछे से आवाज़ दी और विद्युत के कदम ठहर गए। यद्यपि वह उसके अभी कई सवाल अधूरे थे। वह पूंछना चाहता था कि अगला तख्तान कब आएगा? और कैसे पता लगेगा? लेकिन हर बार असलियत जानकर उसे अफसोस ही हुआ था इसलिए वह प्रश्नों को उकसाना नहीं चाहता था।
" ..और तख्तान कब आयेगा? " वह खुद को रोकता तब तक न चाहते हुए भी उसके मुंह से निकल ही गया।
" शायद! आ गया है.. " जीवि ने बर्फ से भी ठंडे स्वर में कहा, और विद्युत को लगा किसी ने उसे तमाचा जड़ दिया हो।
" मतलब!? " वह पीछे मुड़ा और उसने पाया कि जीवि उसे ही देख रही थी, उसकी आंखें बता रही थी कि उसके पास कहने को बहुत कुछ था ।
"तुम मुझे ऐसे क्यों देख रही हो? बताओ!? "
" आप जानते हैं? राजकुमारी आपको यहां क्यों लेकर आयीं हैं? " उसने सपाट लहज़े में कहा
" नहीं! लेकिन पहले तुम बता..
" आप जानते हैं? तख्तान जुगन ने, उनकी गलती दोबारा न दोहरा जाने के लिए अनुशासन बनाया था; कि अगले तख्तान को शक्तियां जुगनान आकर ही प्राप्त होंगी.. वह भी 'पच्चीस' वर्ष की आयु पूरी करने के बाद! "
" देखो! तुम बात घुमाने की कोशि..
" आप जानते हैं? राजकुमारी को होने वाले तख्तान से इतना लगाव है कि कोई अन्य उनकी जगह या शक्तियों की बराबरी करे उन्हें बर्दाश्त नहीं। "
" क्या!? " विद्युत को लगा किसी ने उसके दूसरे गाल पर भी तमाचा मार दिया हो- "..लेकिन वो तो उसे जानती भी नहीं!? "
..और.. और तुम! ये सब मुझे क्यों बता रही हो? " उसने हीन भाव से कहा और दूसरी ओर मुड़ गया। अपने पूरे जीवन में उसे इतनी जलन किसी से नहीं हुई, जितनी उस 'फटीचर तख्तान' से हो रही थी।
" प्रश्न तो आपने ही किया था! कि राजकुमारी कभी आपकी फिक्र तो कभी आपपर नाराज़ क्यों होती हैं? हम तो केवल उत्तर दे रहे हैं। "
विद्युत के दिमाग में अचानक सौ सवाल एक साथ कौंधे..

" शायद! आ गया है.. "
" ये जुगनान है..
" राजकुमारी आपको यहां क्यों लेकर आयी हैं? "
" ..अभी हम खुद भी सत्य नहीं जानते..
" और यर जिम्मेदारी दी किसने है? " " सबर रखो! अवश्य बताएंगे.. "
" जुगनान के तख्तान! "
" आप जानते हैं? राजकुमारी को होने वाले तख्तान से इतना लगाव है कि कोई अन्य उनकी जगह या शक्तियों की बराबरी करे उन्हें बर्दाश्त नहीं। "
" तुम न जाने हमें और इन वृक्षों को कैसे अनुभव और स्पर्श कर पाते हो? "
" ..और हमने तुम्हारा स्पर्श अनुभव किया.. हमें लगा कि तुम..

" उसे लगता है कि मैं.. मैं यहां का.. जुगनान का तख्तान हो सकता हूँ.. " उसने फुसफुसाहट में पर थोड़े ऊँचे स्वर में ही सदमें से कहा।
"..या नहीं भी! " उसने बात पूरी की और पलटा। उसने अपने आंसुओं को गालों तक आने पर रोक रखा था, जिससे उसकी आँखें लाल हो चुकी थीं।
शायद इसी धर्मसंकट से प्रियमविधा भी जूझ रही थी... इसीलिए; कभी उसका मन इस बात पर यकीन कर लेता कि वही तख्तान है, और वह उसकी फिक्र करती! मतलब कुछ देर पहले जो उसे प्रियमविधा की आंखों में दिखा; वह 'वही' था, जो विद्युत ने समझा लेकिन वह उस तख्तान के लिए था...
तो कभी वह विद्युत की इन असामान्य शक्तियों को केवल इत्तेफाक मानकर, खीझ जाती की कैसे किसी दूसरे इंसान को वो शक्तियां प्राप्त हो सकती हैं जिनपर उसके किसी अपने..'खास' का अधिकार है।
शायद इसी वजह से ये जान कर, कि विद्युत के माता पिता हैं, उसका परिवार है.. उसकी आँखों में खालीपन आ गया था, वह विचलित हो उठी थी।

इतनी बातें! इतने राज़!.. शायद इतनी उसके मस्तिष्क में नसें भी न थीं, जितने विचार कौंध रहे थे। उसके पैर लड़खड़ा गए और उसने संभालने के लिए गलियारे की दीवार थामीं।
वह यह भी नहीं समझ पा रहा था कि उसे 'प्रतिक्रिया' क्या देनी चाहिए? अगर वाकई वही तख्तान है तो उसे इस बात से खुश होना चाहिए कि प्रियमविधा उसे पसंद करती है या इस बात से दुखी होना चाहिए कि उसकी वजह से प्रियमविधा का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा।
..और अगर वह नहीं है.. तो प्रियमविधा कभी उसकी थी ही नहीं।
" हम जानते हैं! आप भी राजकुमारी को पसंद करने लगे हैं। " जीवि ने अपनेपन से कहा। विद्युत ने नज़रें उठाई। अब आंसू रोकते-रोकते उसके गले में दर्द होने लगा था और बरबस ही उसके आंसू गालों पर लुढ़क आये।
" राजकुमारी स्वयं भी इस तथ्य से अनिभिज्ञ नहीं हैं.. " उसने ऐसे कहा जैसे वह यह बताना न चाह रही हो पर किसी विवशता के कारण बताना पड़ा।
" क्या!? " वह चिहुँक उठा- " लेकिन उसे तो मैंने न कहा, न जताया। "
" उसकी आवश्यकता भी नहीं है.. " वह मुस्कुराई- " आपकी आंखें ही बता देती हैं.. और हमारी राजकुमारी से आँखें चुराना संभव नहीं.. हम आपको ये बता कर और दुखी नहीं करना चाहते थे.. परंतु यह राजकुमारी का ही आदेश है कि आप किसी भी बात से अनिभिज्ञ न रहें। "

"उसे क्या लगता है! यह बता कर कि उसे मेरी फीलिंग्स पता हैं और उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, उसके लिए मेरी फीलिंग्स खत्म हो जाएंगी? नेवर! "

विद्युत के जज़्बात दृढ़ थे, जो किसी आंधी या तूफ़ान के कारण टस से मस नहीं होने वाले थे। उसके दिमाग में प्रश्नों का सिलसिला खत्म नहीं हुआ था, जैसे- " इस बात का पता कैसे लगेगा कि वह तख्तान है या नहीं? " " क्या वह इतना ताकतवर नहीं कि प्रियमविधा को अपने जादू से जीवित कर सके?'' वगैरह-वगैरह... पर जीवि ने "सारे जवाब आगे हैं " कहकर केवल उसे आगे चलते रहने को कहा।

*
दोपहर हो चुकी थी, सूरज सिर पर चढ़ चुका था ।विद्युत होटल से भी बिना कुछ खाये ही निकला था इसवजह से उसे रास्ते में थोड़ी भूँख भी लगी और जीवि ने उसे फल लाकर दिए।
अब वे एक बड़े.. दरअसल बेहद बड़े से कमरे के अंदर प्रवेश कर चुके थे।
वर्तमान की दृष्टि से देखा जाय तो वह किसी ऐतिहासिक फ़िल्म के दरबार का सेट लग रहा था। विद्युत ने कई ऐसी फिल्मों के सेट देखे थे। फ़िल्म डायरेक्टर्स अक्सर ऐसी फिल्मों के कॉस्ट्यूम्स के लिए विद्युत को ही रेफर करते ।

अंदर आने के दरवाज़े से सीधे बीस फ़ीट की दूरी और लगभग दो फुट की ऊंचाई पर एक गद्दीदार सिंहासन रखा हुआ था जिसके बगल में सिंहासन से आधी ऊंचाई का चौड़ा खम्भा था। जिसके ऊपर एक पुस्तक चमक रही थी। काफी ऊँची और चौड़ी होने के कारण वह दूर से ही दिख रही थी।
उस सिंहासन से लेकर दरवाज़े तक, दोनों; दाईं ओर बाईं ओर भी गद्दीदार कुर्सियां थीं।
विद्युत ने घूमते हुए पूरा हॉल देखा, जब वह सिंहासन के पास पहुँचा तो उसने देखा पुस्तक के बाहरी कवर पर एक आईना लगा हुआ था.. पर बड़ी विचित्र बात थी कि वह बिल्कुल साफ था, उसपर किसी भी वस्तु का प्रतिबिंब नहीं था यहां तक कि उस दरबार की छत भी उसमें कहीं नजर नहीं आ रही थी। ऊपर का कुछ स्थान गहरा और खाली था, जिसपर टूटे हुए 'आधे तारे' का निशान बना हुआ था।
" मैंने भी इस तरह के आधे तारे का निशान कहीं तो देखा था! कहां देखा था? " उसने याद करने की कोशिश की पर वह याद ना कर सका जब उसने प्रियमविधा और उसके पीछे उन्हीं 'जुगनसेवक' को दरवाजे से अंदर प्रवेश करते देखा।
प्रियमविधा ने हाथों में कुछ पकड़ रखा था, जिन्हें वह बड़ी सावधानी से लेकर उसी ओर आ रही थी जिस ओर जीवि और विद्युत खड़े थे ।
आधे रास्ते तक आकर उसके पीछे चले आ रहे जुगनसेवक रुक गए! अब केवल प्रियमविधा ही आगे बढ़ रही थी।
विद्युत हमेशा ही उसे प्यार से निहारता था पर उस वक़्त उसकी आँखों में लाचारी भी दिख रही थी। हो भी क्यों न? वह ऐसे इंसान से जुड़ बैठा था... जिसका उसकी किस्मत में होना संभव नहीं था।
उसने अब उसके हांथों में पकड़ी वस्तु पर गौर किया। वे फड़फड़ाते पन्ने थे, जिनका पीला रंग उनके बेहद पुराने होने का आभास करा रहा था।
उसके और करीब आने पर पता चला कि उन पन्नो पर कुछ लिखा ही नहीं हुआ था, वे एकदम कोरे थे!
प्रियमविधा ने सिंहासन तक पहुंचाने वाली सीढ़ियां चढ़ते वक़्त एक नज़र जीवि की ओर डाली और जीवि ने सहमति में पलकें झपका दीं।
वह विद्युत से नज़रें चुरा रही थी जिसे विद्युत ने महसूस कर लिया। वह उसे बहुत कुछ बताना चाहता था पर न वह वक़्त सही था न वह माहौल।
प्रियमविधा जाकर उस स्तंभ के पास खड़ी हो गई। वह दृश्य कुछ ऐसा था जैसे किसी विद्यालय की सभा में, हेडमास्टर या प्रिंसिपल माइक पर खड़े हों।
" ये तख्तान जुगन के द्वारा बनाये गए अनुशासन पत्र हैं.. इन पत्रों पर भावी तख्तान के लिए एक- एक अनुशासन लिखे हैं.. इन तीनों सूत्रों की उपलब्धता के साथ ही यह तख्तपुस्तक खुलेगी और शक्तियों की प्राप्ति के सूत्र भी मिल जाएंगे.. परंतु यदि इनमें से एक का भी उल्लंघन हुआ तो कदाचित इसका उच्चारण करने वाले... " उसने आगे कुछ नहीं कहा।
" ..उच्चारण करने वाले! क्या!? " विद्युत ने पूछा।
"..उसके साथ कुछ अनुचित घटित हो सकता है। " एक जुगन सेवक ने उत्तर दिया।
"..और यह कौन पढ़ने वाला है?? " विद्युत ने तत्परता से पुनः पूँछा।
" हम!!! "
वही हुआ जिसका विद्युत को डर था वह पत्र प्रियमविधा ही पढ़ने वाली थी।
" सवाल ही नहीं पैदा होता प्रियमविधा! "
" हमें कोई आपत्ति न..
" लेकिन मुझे है! तुम यह नहीं पढ़ोगी.. किसी कीमत पर नहीं।लाओ! इधर दो! " वह आगे बढ़ा।
" परंतु तुम क्यों पढ़ोगे? जब इस तख्त के असली अधिकारी की अनुपस्थिति तक की सारी जिम्मेदारी हमारी है तो तख्तान का चयन भी हमारी जिम्मेदारी का ही हिस्सा है। "
"बिल्कुल है! मैं इस बात से इंकार नहीं कर रहा हूं.. लेकिन जब इसके सूत्र मेरे लिए पढ़े जाने वाले हैं, तो इन्हें पढ़ने के लिए मुझे ही आगे आना चाहिए न? "
" और यदि वाकई एक भी सूत्र का उल्लंघन हुआ और तुम वह नहीं हुए जिसकी कल्पना हम कर रहे हैं.. तो कैसे हम किसी बेगुनाह का जीवन कष्ट में डाल सकते हैं? " उसने परवाह से चेहरे पर मासूमियत के भाव लिए हुए कहा और विद्युत को लगा जैसे उसका दिल फिसल कर उसके जूतों में उछल - कूद मचा रहा हो। वह वाकई बहक गया था।

उसने खुद पर काबू पाया और प्रियमविधा के चेहरे से झटककर नजरें फेर ली-" मैं तैयार हूं! पर तुम्हें यह नहीं पढ़ने दूंगा। "
" ठीक है!! " कहते हुए प्रियमविधा ने एक पत्र उसके सामने किया- " कुछ दिख रहा है इस पत्र में तुम्हें? "
विद्युत यह पूछना तो भूल ही गया था कि जब वह पन्ने खाली है, तो उसके सूत्र कहां हैं। उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया।
" इनमें तो कुछ लिखा ही न..
" शक्तियां प्राप्त करने के पहले तुम्हें यह नहीं दिखेंगे..
" लेकिन राजकुमारी यह तो उस आईने..
" अरे वाह! क्षण भर में ही तुम्हें इसकी भांति बात काटने की आदत हो गई?" उसने विद्युत पर नज़र घुमायी - " तुम्हारी प्रशंसा करनी होगी! वाकई तुम्हारी संगति का प्रवाह बड़ी तीव्रता से चल रहा है।"
प्रियमविधा ने जीवि की बात काटते हुए उस पर और विद्युत पर टोंट कसा। जीवि शांत हो गई.. पर उसकी और उन सभी जुगनसेवक की आंखों में कुछ खटक रहा था.. पर प्रियमविधा के इस रवैये के सामने किसी की चूँ-चाँ करने की हिम्मत तक नहीं थी।
वह वापस विद्युत की ओर मुड़ी, जो अभी भी बहुत कुछ बोलना चाह रहा था पर वह खुद समझ न सका कि भला अब प्रियमविधा को पढ़ने से कैसे रोके?
" इसीलिए हमने कहा था, 'हमें पढ़ने दो!' "
" तो हम रहने देते हैं! इस बेवकूफी की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारे होते हुए यहां पर किसी तख्तान की जरूरत है ही नहीं। क्लियर? अब लाओ! वो पन्ने देदो! " वह अब भी तैयार नहीं था।
अब प्रियमविधा के पास कोई चारा नहीं बचा था-
वह विद्युत की ओर बढ़ी - सारे पन्नो को अपने एक हाँथ में समेटा- दूसरे हाँथ की उँगलियों और अंगूठे को आपस में हौले-हौले घुमाते हुए कुछ बुदबुदाने लगी।
विद्युत को डर था; वह उसके कान के नीचे के एक तमाचा भी जड़ सकती थी, पर प्रियमविधा ने हाँथ उठाया और.. विद्युत दुबक- सा गया, पर प्रियमविधा के हाँथ विद्युत के गालों पर ना जाकर उसके माथे पर गए।
उसने माथे पर हाँथ घुमाया; विद्युत सुस्त पड़ने लगा - प्रियमविधा ने उसके माथे से लेकर उसकी ठुड्डी तक हाँथ फेर दिया और फिर कसकर अपनी मुट्ठी भींच ली।
विद्युत ने आँखें खोली.. सब वैसा ही था पर उसे कुछ कसमसाहट महसूस हुई। कुछ क्षण बाद, उसे एहसास हुआ कि उसके हाथ-पैर जकड़े हुए थे, वह अपनी जगह से हिल भी नहीं पा रहा था।
प्रियमविधा वापस उस स्तूप की ओर चल पड़ी। उसके एक हाँथ की मुठ्ठी अभी भी बँधी हुई थी।
" यह गलत है प्रियमविधा! " वह चीखा। यकीनन वह समझ चुका था कि प्रियमविधा ने उस पर जादू किया था.. पर प्रियमविधा पर उसका कोई असर ही नहीं हुआ।
कुछ देर बाद विद्युत खुद ही शांत हो गया। उसने बाकी लोगों पर नजर घुमाई सबकी आंखों में उसके लिए हमदर्दी थी.. पर विद्युत समझ रहा था कि प्रियमविधा की जिद के आगे सब झुके हुए हैं।
प्रियमवधा ने उस पुस्तक पर बने आईने के ऊपर उन पत्रों को रखा और धीरे-धीरे कर उन पन्नों पर सब स्पष्ट तौर पर लिखा हुआ दिखने लगा।
" तुमने झूठ कहा था?" विद्युत एक बार फिर अपने ही स्थान पर कसमसाया। प्रियमविधा चुप ही रही, शायद उसे विद्युत की इस प्रतिक्रिया की उम्मीद थी।
" यही तो हम भी कहना चाह रहे थे.. परन्तु राजकुमारी ने हमें चुप करा दिया।" पीछे से जीवि बहुत हौले- से फुसफुसाई ।
" हमने सुन लिया! " प्रियमविधा ने कहा और जीवि चुप हो गई।
" पहला सूत्र! " उसने कहा और सब चौकन्ने हो गए। विद्युत ने डर और घबराहट के मारे थूंक निगला और कसकर अपनी आंखें भींच ली।

" जिसपर हो जुगनान की काया।
देख सके वो सारी माया।।"

" मतलब इस जादू की दुनिया को देख सकता हो! " विद्युत आँखें खोलते हुए तपाक से बोल पड़ा और सभी ने राहत की सांस ली। प्रियमवधा ने भी!
उन पंक्तियों का वास्तविक मतलब यही था। मतलब पहला सूत्र वह पर कर चुका था।
" दूसरा सूत्र! " प्रियमविधा ने केवल पहले ही सफलता से संतुष्टी न पाते हुए जल्द ही दूसरा सूत्र पढ़ने के लिए दूसरा पन्ना खोला।

" प्रकृति स्नेह का अमर सवेरा।
ना बंधन ना कोई बसेरा।।"

"अर्थात प्रकृति से उपजा हो और उसका कोई अपना सगा परिवार नहीं हो। " लरजते स्वर में कहते हुए प्रियमविधा की नजरें अपने - आप विद्युत की ओर चली गई। दोनों ही एक दूसरे की भावनाएं समझ रहे थे क्योंकि विद्युत तो एक सामान्य परिवार से था।
" ..लेकिन आश्चर्य की बात थी कि प्रियमविधा बिल्कुल सही सलामत थी। "
वह बात सच कैसे हो सकती थी? क्यों हो सकती थी? विद्युत को कुछ होश नहीं था लेकिन वह खुश था कि प्रियमविधा सही सलामत है।
" तीसरा सूत्र! " उसने तत्परता से अधिक खुशी न ज़ाहिर करते हुए आखिरी पन्ना खोला और सबका दिल धक- धक करने लगा।

" ला कर रखदे; तख्ती का प्यारा,
लेकर.. जन्मा.. जो.. टूटा... ता..रा.. "

प्रियमविधा की लय टूटने लगी और उसकी गले की नसें तनने लगीं। विद्युत को भी खुद पर कुछ ढील महसूस हुई।

" जोड़.. जोड़कर... पुस्तक.. खो..लो..
और.. जादू.. का.. भेद... तुम्.. हा.. रा.. "

वह अचेत होकर गिरने ही वाली थी और विद्युत को अब खुद पर किसी प्रकार की जकड़ महसूस नहीं हुई वह प्रियमविधा की ओर लपका। प्रियमविधा की गदेलियों से लेकर कोहनी तक छालों के चकत्ते पड़ रहे थे, जिनकी सीमा बढ़ती ही जा रही थी।
" प्रियमविधा!.. प्रि..प्रियम.. मना किया था न? " वह रो पड़ा। उसे कुछ समझ नहीं आया। वह अचानक खड़ा हुआ और..
" नहीं! विद्युत रुको! " प्रियमविधा चीखी पर विद्युत ने एक झटके में उन पन्नो को उठाया और उसके हजार टुकडे कर दिए।
सब कुछ इतना जल्दी हुआ कि जीवि व अन्य जुगनसेवक को कुछ करने का अवसर ही नहीं मिला।
प्रियमविधा पर उस बेहूदा जादू का असर खत्म हो गया।

" ये क्या अनुचित कर दिया तुमने? " उसने विद्युत को झकझोरा पर विद्युत उस वक्त प्रियमविधा को ठीक देखकर कुछ बोल ही नहीं पाया और... तड़ाक!!!

विद्युत स्तब्ध रह गया । प्रियमविधा उसे इस बात पर थप्पड़ मारेगी उसे उम्मीद नहीं थी।
प्रियमविधा गुस्से से हांफ रही थी।
" दूर हो जाओ हमारी दृष्टि से! " उसने हीनता से कहा।
उसकी आंखों में अपने लिए इतना खालीपन देख अब उसमें वहां पर रहने की बिल्कुल भी शक्ति नहीं रह गई थी।वह अपने अंदर दुख और लाचारी का अंबार लिए बाहर चला आया।
उसे रास्ते याद रखने में कोई मात नहीं दे सकता यह बात तब सिद्ध हो गई; जब उसने उस विषम परिस्थिति में भी उस पत्थर को एक ही बार में ढूंढ लिया, जिसके सहारे प्रियमविधा उसे जुगनान के भीतर ले कर आई थी।

उसका गोरा चेहरा पूरी तरह से लाल हो गया था और उसपर उसकी नसें ऐसी तनी हुई थीं, कि कोई बाहर से ही गिन ले।

उसे नहीं पता था ; इस पत्थर को किस प्रकार पार करना है, पर उस वक़्त उस पत्थर से ज्यादा मजबूत उसके इरादे थे। उसने आव देखा न ताव और उस पत्थर को धकेलने लगा।
उस पत्थर पर इस ओर से भी वैसे ही हाँथ के निशान बने हुए थे जैसे उस पार थे।
विद्युत ने अनिभिज्ञता में, उस पत्थर को धकेलने की कोशिश करते हुए, अपना हाँथ उसी निशान पर रख दिया और दूसरे झटके के साथ वह वापस उसी जंगल में पहुंच चुका था।
ठंड का मौसम था, इस वजह से शाम के पांच बजे से ही अंधेरा और धुंध ने जंगल को जकड़ रखा था।
विद्युत को अब कुछ डर का आभास हुआ, वह उल्टे पाव वाली भूतनी और उस टूटे दांत वाले भूत को तो भूल ही चुका था जो उसके सपने तक में उसे सताने चले आये थे।
अभी कल की ही तो बात थी जब उसी भूत से बचाने के लिए प्रियमविधा उससे मिली थी.. और अब लग रहा था जैसे सादियां बीत गयीं हों। वह अपने आपको देवदास ही मानता अगर उसके हांथों में एक शराब की बोतल होती।
वह अपने आंसू पोंछते हुए आगे बढ़ ही रहा था कि उसे कुछ अधिक ठंड लगने लगी। उसने अपनी हूडी पहनने को अपना हाँथ पीछे किया पर.. ये क्या? उसे लगा जैसे किसी ने कसकर उसकी हूडी को पकड़ रखा हो।
अचानक इस ठंडी में भी उसे पसीने आने लगे और साथ ही 'किसी' का ख्याल। वह किसी हाल में प्रियमविधा को याद कर कमज़ोर नहीं पड़ना चाहता था।

" तो क्या हुआ प्रियमविधा उसके साथ नहीं है ? वह खुद से अपनी रक्षा कर सकता है"
" आउच! " उसे अपनी गर्दन पर खिंचाव महसूस हुआ " द..देखो! अगर तुम मुझे मारना चाहती हो..य..या.. चाहते हो.. तो मुझे क..कोई प्रॉब्लम नहीं है..लेकिन अपना चेहरा मत दिखाना.. बस.. बस पीछे से ही मार देना..म..मैं कोई ऑब्जेक्शन नहीं करूंगा.. आई प्रॉमिस!.. वैसे भी अब मैं जीना भी नहीं.. आह! आउच...
पीछे से किसी ने उसे ट्रेन की फुर्ती से घसीटा और एक पत्थर पर लाकर छोड़ दिया। विद्युत ने देखा वह वापस उसी जुगनान ले जाने वाले पत्थर के पास खड़ा था.. वह उसकी हूडी खींचनेवाले का उद्देश्य समझ गया।
" मैं नहीं जाऊंगा! " वह चीखा " तुम जो भी हो! सुना तुमने! मैं कभी वहां वापास नहीं जाऊंगा... कभी नहीं! " उसकी चीख किसी का भी हृदय चीर देने वाली थी...

*

दो महीने बाद-

एक बार फिर वह उसी दरवाज़े के पास खड़ा था (पहला दृश्य , भाग - 1)... पर आज उसके भीतर से लड़ने की आवाज़ें नही आ रही थी क्योंकि यह कोई सपना नहीं था। वह अपने उसी घर में आया था जहां उसने अपना बचपन गुज़ारा था।
'उसके पापा का घर' जिसके लिए उसकी सौतेली माँ उसकी जान के पीछे पड़ी थी.. या फिर है..
विद्युत प्रियंविधा से अपना ध्यान हटाने की हर रोज़ एक नाकाम कोशिश करता था। वह बहुत बदल चुका था, अब उसने जुगनुओं से अपनी यारी भी तोड़ ली थी। जंगलों में भटकना भी छोड़ दिया था.. शायद प्रियमविधा को भूलना चाहता था, लेकिन हर नए दिन की सुबह के साथ वह उसकी ही यादों के साथ उठता था; वजह उसका वह सपना था; जो , प्रियंविधा से मिलने के बाद से उसे आने लगा था.. उस दिन के बाद से उसने कभी किसी जंगल में कदम नहीं रखा था.. और नाहि जुगनुओं के करीब जाता था.. सब भूलने के लिए। और शायद यहां भी वह खुद को उन सब ख्यालों से दूर रखने के लिए ही आया था।
वह घर की चौखट पार कर अंदर गया पर उसे वो झूमर भी नहीं दिखा जो उसके सपने में रहता था.. क्योंकि उसकी सौतेली माँ उसे ले गयीं थी।
वह उस कमरे में जा पहुँचा और अपने पापा की चीज़ों को छूकर अपने पापा की छुअन महसूस कर रहा था। बहुत देर तक उन सब चीजों को देखने के बाद वह उठा और उस खिड़की की ओर जाने के लिए कदम बढ़ाए जिसपर उसे अपने पिता की मौत दिखाई देती थी(सपने में), वह बढ़ा ही था और..
" खट! " कुछ ठोस वस्तु के गिरने का स्वर हुआ। विद्युत ने पीछे मुड़कर देखा एक कागज में लिपटा कोई पत्थर था शायद जो दराज बंद करने पर गिर गया था।
" ये क्या है? " वह आश्चर्य से फुसफुसाया और उस कागज़ को अलग किया।
..और ये क्या था? वह कोई पत्थर नहीं था...
" वह तो वही टूटा हुआ आधा तारा था !" एक लोहे की चेन में , किसी तावीज़ की तरह लटक रहा था।
उसने उस कागज़ को खोला... वह एक चिठ्ठी थी!

प्यारे विद्युत,
पता नहीं मैं ये तुम्हे कब और कैसे दे पाऊंगा पर आज हिम्मत कर लिख ही देता हूँ।
तुम मेरे बेटे नहीं हो! हाँ बेटा मैंने तुम्हे एक जंगल में पाया था, तब मेरी शादी भी नहीं हुई थी । तुम्हारी माँ के मरने की भी बात या कहूँ तो.. जो कहानी मैन तुम्हे सुनाई थी वह झूँठ ही थी।
जानते हो! जब तुम्हें मैंने तुम्हें जंगल में देखा तो खुद को तुम्हे अपनाने से रोक नहीं पाया।ये लॉकेट जो तुम अपने हाँथ में देख रहे हो, यह भी तुम्हारे साथ ही था पर मैंने इसे उतारकर तुमसे अलग कर दिया था क्योंकि तुम तो अपनी माँ को जानते ही हो.. उसे तुम अंधी आंखों से भी नहीं पसंद थे, और ये जानने के बाद की तुम मेरे बेटे नहीं हो वह तुम्हारे साथ न जाने क्या करेगी? बस इसीलिए शादी के बाद तुम्हारी सौतेली माँ से ये बात छुपाने के लिए मैंने इसे भी छुपा कर रखा था।

तुम्हारे ' पापा ' "

और विद्युत एक बार फिर स्तब्ध रह गया था, ये उसके साथ क्या हो रहा था? जिन बातों और रहस्यों से छुटकारा पाने को वह इस जगह पर आया था, उसी जगह ने उसे एक और रहस्य से अवगत करा दिया था। न जाने अब उसकी जिंदगी उसे कहां ले जाने वाली थी.....

समाप्त***

ये अंत केवल इस कहानी का है, विद्युत के सफर का नहीं! अभी कई सारे रहस्यों से उसे पर्दा उठाने बांकी था..
जैसे..
1) वह इंसान कौन था ; जो उसे प्रियमगढ़ जाते वक्त रास्ते में मिला था?
2) जुगनान से वापस आते वक़्त कौन उसे वापस वहीं पंहुचाना चाह रहा था?
3) उसने जुगनान का पत्थर कैसे पार कर लिया?
4) वे दोनों प्रेत कौन थे?
5)वास्तविक तख्तान कौन है?
6) उसके सपने का तात्पर्य क्या था?
7)सबसे महत्वपूर्ण बात; उसका खुद का अस्तित्व क्या था?

अगली सिरीज़ तक सब्र अवश्य कीजिये.. या स्वयं अपनी कल्पनाओं के पंख भी फड़फडाइये! क्या पता!? उत्तर स्वयं ही मिल जाएं! क्योंकी मेरी उंगलियां, आंखें और दिमाग मुझे गालियाँ दे रहे हैं( साथ ही फ़ोनवा की बैटरी भी ) अतः मुझे विराम की आवश्यकता है।

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शुभ..रा..त्रि..( माफ कीजियेगा! उबासियाँ आ रही हैं)


पर्णिता द्विवेदी