rajnarayan bohare-alochna ki adalat in Hindi Book Reviews by कृष्ण विहारी लाल पांडेय books and stories PDF | राजनारायण बोहरे - आलोचना की अदालत

Featured Books
  • ખજાનો - 86

    " હા, તેને જોઈ શકાય છે. સામાન્ય રીતે રેડ કોલંબસ મંકી માનવ જા...

  • ફરે તે ફરફરે - 41

      "આજ ફિર જીનેકી તમન્ના હૈ ,આજ ફિર મરનેકા ઇરાદા હૈ "ખબર...

  • ભાગવત રહસ્ય - 119

    ભાગવત રહસ્ય-૧૧૯   વીરભદ્ર દક્ષના યજ્ઞ સ્થાને આવ્યો છે. મોટો...

  • પ્રેમ થાય કે કરાય? ભાગ - 21

    સગાઈ"મમ્મી હું મારા મિત્રો સાથે મોલમાં જાવ છું. તારે કંઈ લાવ...

  • ખજાનો - 85

    પોતાના ભાણેજ ઇબતિહાજના ખભે હાથ મૂકી તેને પ્રકૃતિ અને માનવ વચ...

Categories
Share

राजनारायण बोहरे - आलोचना की अदालत

राजनारायण बोहरे की कहानियां यानी हमारी आत्म कथाएं
केबीएल पांडे
विगत दशकों में कहानी ने जितने रूप गढे हैं वे रचना शीलता का आह्लाद उत्पन्न करते हैं पर इसके साथ ही पाठ की प्रतिक्रिया में यह भी अनुभव किया जा रहा है कि कहानी में हमारे आसपास की दुनिया और उससे जुड़े हमारे छोटे बड़े अनुभव कम होते जा रहे हैं कहानी के विमर्श में एक बात यह भी कहीं जा रही है कि विपुल लेखन के बीच नए पन की तलाश में अनेक कहानियों के कथ्य और रूप के प्रयोग जीवन से दूर तथा अविश्वसनीय लगने लगते हैं ऐसी कहानियों में विचित्रता का आकर्षण तो हो सकता है पर भी रचनात्मक सरोकारों से प्रतिबद्धता की जरूरत पूरी नहीं करती यह प्रतिक्रिया सामाजिक यथार्थ से मुठभेड़ करती रचनात्मकता के नए औजारों के विरोध में नहीं है यह तो अमूर्त अन की हद तक पहुंचती अर्थहीन बात चलता के प्रति है हालांकि यह सच है कि जीवन की निरंतर जटिल होती स्थितियां अभिव्यक्ति के अपने रूप तो तलाश ऑल लेखक के साथ पाठक की संवेदना में भी तो वह आता रहता है लेखक के रचनात्मक सामर्थ इसी में है कि वह साधारण सी लगने वाली घटना या स्थिति के लगभग छूट गए आशय को सामने लाए और तो वह लगे कि अरे यह तो दरअसल कहानी बन गई चेखव मॉम मोपासा ग्रीन मोराविया के साथ ही प्रेमचंद्र सुदर्शन जैसे आज अनेक कहानीकारों में ऐसे रचनात्मक उदाहरण भरपूर हैं इस थोड़े से लंबे संदर्भ में राजनारायण बौहरे की कहानियों पर विचार करना काफी सार्थक होगा अपने तीन कथा संग्रह से चर्चित बौहरे की रचनात्मक दृष्टि सामाजिक परिपेक्ष में घटित जीवन की विभिन्न घटनाओं के प्रति इतनी सजग और संवेदनशील है कि हमें उनकी कहानियों के माध्यम से ही अपनी ही दुनिया को अधिक निकट से भीतर से जानने का अनुभव भी होता है और उसे परिभाषित करने का पुलक भी
प्रत्यक्ष का केवल बयान देकर नही रह जातीं बल्कि उसके भीतर की प्रासंगिकताओं को आविष्कृत करती हैं। वे प्रसंग अपनी प्रतीति के संसार की किसी घटना से सम्बद्ध होते हुए भी अपनी व्यक्तिवाचक व्यक्तिवाचक ऐकांतिकताओं को अतिक्रमित करके व्यापक मानवीय संवेदन बन जाते हैं। इस तरह हम अपने समय और समाज से परिचित ही नहीं होते बल्कि अनमें भागीदार होने का अनुभव करते हैं। इसलिए हम अनायास ही कह उठते हैं कि 'हां, ऐसा ही तो है !

रचनात्कता अगर अपने समय और समाज से संवादरत है तो उसका प्रतिफलन उतना ही निजात्मक होगा, जितनी समावेशी दृष्टि से रचनाकार समाज के साथ उठा-बैठा होगा। राजनारायण बोहरे का व्यक्तित्व बौद्धिक विविधता और सामाजिक सांस्कृतिक अनुभवों में व्यवहारिक संलग्नता से समग्र रूप में निर्मित विकसित है। जीवन के विभिन्न क्रिया व्यापारों और व्यवहारों की विशिष्ट हुआ पहचान उनकी कहानियों में तकनीकी प्रयोगों के रूप में मिलती है। बोहरे जी सामान्य या विशिष्ट किसी घटना को विश्लेषित करके उसे अतर्य नही रहने देने। वह उसमें निहित आशय की टोह लेते हैं। यही कारण है कि उनकी कहानियों में अनुभवों के विशद आयतन भी हैं और संवेदना घनत्व भी।

"इज्ज़त-आबरू", "गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ और '"हादसा" संग्रहों की कहानियों का क्षेत्रफल काफी बड़ा है। वे स्थानीयता से चल कर वैश्विकता के प्रयोजनों तक की यात्रा करते हैं। इस यात्रा में जीवन के विविध रूप आते हैं, उन्हें कहानीकार कहानी की शक्ल में ढाल देता है। तब वे एक व्यक्ति या एक स्थानके अनुभव न रहकर सर्व संभाव्य और सर्व संवैद्य बन जाते हैं। बोहरे की कहानियों को पढ़ते हुए हमे अपने समय के समाज को पढ़ रहे होते हैं। उनके माध्यम से हमारा प्रत्यक्ष हमारे लिए अधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय बन जाता है। यह वह दुनिया है जिसमें हम रोज एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं, कभी सामने से आते हुए, कभी संग साथ चल कर। उनके इस प्रत्यक्ष में घर-परिवार, मुहल्ले की आबादियों हैं, उनके परस्पर रिश्ते-नाते हैं, उनमें आत्मीयता भी है और पड़ती दरारें भी हैं। छोटे-बड़े मूल्यों की आस्थाओं का टूटता स्वरूप है, जिन्दगी को धमकी देते तनाव हैं। हम सबको हड़पता बाजार है, प्रेम है, व्यवस्था का भ्रष्ट्र विद्रूप है, हताशा के बाद भी जिन्दा रहने वाले आदर्श हैं, व्यक्ति भी है और पूरा समाज भी।

आज का परिदृश्य अजीब विडम्बनाओं और विसंगतियों का है। इसी समय में विचार, विज्ञान और तर्क का विकास हुआ, इसी समय आस्थाएँ संजीवनी सुरा पीकर नए उन्माद के साथ सजीव होने लगीं। इसी उदयों के रूप में सामाजिक विभाजन भी नयी ताकत के साथ उभरने लगे। मनुष्य की गरिमा और लोकतंत्र के मूल्य भी इसी समय निर्मित हुए और उसके विरुद्ध सामंती और वर्णगत अविवेक संगठित होने लगे। हमे वह उपभोक्ता समाज मिला जिसकी आचरण संहिता में सारे कदाचार वैधानिक है, वर्चस्व और सत्ता को जिन केन्द्रों से बेदखल होना चाहिए था उन पर उनका कब्जा और पुख्ता हुआ। सुखी और अघाये लोगों के कॉरपोरेटों के जरिये आये भूमण्डलीकरण में करूणा जैसी मनुष्यता पासपोर्ट वीज़ा से वंचित है। यह परिदृश्य किसी एक जगह सीमित नहीं है। जाने-अनजाने हम सभी उससे प्रभावित हैं।

राजनारायण बोहरे गांवों, कस्बों, नगरों के मध्यवर्गीय जीवन के सामाजिक, आर्थिक संघर्षों पक्षों के यथार्थ कहानीकार है। वह उपस्थित भयावहता की कुरता भरी दिखाते है और उसके बीच बचे हुए साहसी आदर्शों को भी चित्रित करते हैं। बोहरे जी मानते हैं कि 'नमक का दरोगा' का दरोगा व्यक्ति के रूप में भूले ही अब नहीं है, परंतु उसका अडिग आदर्श कहीं न कहीं सुरक्षित है।

"सत्य भले ही दुनिया में पूरी तरह नही है, उसे रोंदा जाता है, आहत कियाजाता है लेकिन यह तय है, सच पूरी तरह नष्ट नही होता है, कोई न कोई उसे बचाये रखता है।" इज्जत-आबरू : भय)

इसे भय कहानी के में प्रोफेसर रवि उसे बचाते हैं तो 'आदत' कहानी में यादव साहब उसे बचाये रखते हैं और जमीन का आदमी के संपतप्रसादके पास वह सुरखित है। यह सच आकाशीय या काल्पनिक नही है दुर्लभ अवश्य है, तो कहीं न कहीं उसे धरती पर देखा जा सकता है, आदर्श की ये स्थितियां बोहरे जी कल्पना से नहीं रचते, न ही उन्हे निरापद माहौल में दिखाते है, क्योंकि निरापद स्थिति में तो आदर्श निभाने में कोई त्याग खतरा है ही नहीं। उनके आदर्श पात्रों के सामने प्रलोभन और भय भी विचलित कर देने वाली शक्तियां है। प्राफेसेर रवि को छात्र घेर लेते हैं। तो यह उन्हें अनुचित साधन प्रयोग करने देने की कीमत है, जिला पंचायत अध्यक्ष संपत प्रसाद का त्यागपत्र इसलिये है क्योंकि वह अपनी सचाई के विरूद्ध पुत्र को अनुचित लाभ नहीं दे सकते और अभाव ग्रस्त जीवन बिताने को तैयार हैं। पर यादवजी के साथ कोई नही है। अपने पहले कथा संग्रह 'इज्जत-आवरू' की कहानियों से बोहरे जी ने अपनी जबर्दस्त उपस्थिति से चौंका दिया था और सभावनाओं की की घोषणा कर दी थी। 'गोस्टा तथा अन्य कहानियां' में उनके कथानकों में वे स्थितियां आयीं जिन्हें हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं, पर

जिनसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते है। 'हादसा' संग्रह उनकी दृष्टि का पर्याप्त
विस्तार है। कोई यथार्थ अपनी समकालीनता के आगे जाकर कितने समय तक प्रसंगिक या प्रभावी रह सकता है यह उसके क्वांटम पर तो निर्भर है ही साथ ही यह कि उसे किस तरह पेश करता है, इस बात पर भी इसका होना टिका है। साधु यह देश विराना (अस्थान) कहानी काफी पहले लिखी गयी थी। तथाकथित सायुओं और बाबाओं के मध्य पलते यौन शोषण, अपराध और भ्रष्ट्राचार पर लिखी यह कहानी आज का पहले से बड़ा सत्य है। धर्म के नाम पर फैला यह सांस्थानिक व्यापार आज भी सुर्खियों में है। यह कहानी मात्र धर्म के नाम पर चल रहे आश्रमों की निंदनीय हरकतों पर ही नही है बल्कि कई बहाने कई और प्रश्नों की ओर भी संकेत करती है। ये आश्रम किस लिए? इतने संत महंत क्यों? सासांरक काम, क्रोध, लोभ, मोह को हेय मान कर जीवन को अद्यात्म से जोड़ने की साधना के लिए मनुष्य यहां आता है वह संसार यहां तो और भी निकृष्ट है। ओमदास मोह भंग के बाद अपने संसार में लौट आते हैं।

बोहरे जी जिन सामान्य लगती स्थितियों को अपनी कहानी में महत्वपूर्ण बना देते हैं, उनमें से 'हादसा' 'बुलडोजर' ' उजास' 'विडम्बना'' पूजा' 'गाड़ी भर जौक' 'बिसात' मलंगी' और 'समय साक्षी' के नाम लिए जा सकते हैं। 'हादसा' किसी भिड़न्त की दुर्घटना नहीं है बल्कि मन के भीतर मनुष्य और सामाजिक व्यवस्था के बीच कुछ टूटने की कहानी है। विश्वास और आस्था के टूटने से बड़ा क्या हादसा हो सकता है? प्रत्येक चुनाव लड़कर लोकतंत्र की गरिमा अनुभव करने वाला एक साधनहीन व्यक्ति अन्त में पराजित भाव से स्वीकार कर लेता है कि *दरअसल मेरा इस पूरे तंत्र से विश्वास उठ गया है।' कहानीकार का निष्कर्ष के रूप में यह कहना बिलकुल सत्य है कि एक आम आदमी का हमारे समूचे तंत्र पर से विश्वास उठ जाना भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा हादसा है।

'बुलडोजर' अस्तित्व के लोप होने की आशंका का दुःस्वप्न हैं । 'मलंगी' कहानी पशु प्रेम की कहानी नहीं है। वह मनुष्य और पशु के बीच वह आत्मीय संबंध है जो स्वयं मनुष्यों में आपस में समाप्त हो रहा है। 'कुपच' रूढ़ि से चिपके रहने और अपनी खोखली प्रतिष्ठा को बचाये रखने में क्षरित होते जीवन की कहानी है । अराजक और भ्रष्ट व्यवस्था की विसंगतियां 'हड़ताल' और 'हड़ताले जारी हैं' कहानियों में हैं।

'मृगछलना' और 'डूबते जलयान' बोहरे जी की प्रेम कथाएँ हैं। 'मृगछलना' पूरी तरह निराशान्त कहानी है, तो 'डूबते जलयान' में विवाह और विवाहेतर प्रेम का ऐसा द्वंद्व है जिससे दिवा निकल नहीं पाती है। उस द्वंद्व एक समाधान है भी नहीं। नैतिकता और सामाजिकता के दबाब भले ही उसे अन्ततः पति की और जाने का सुखान्त समाधान दे देते।

तुलना का प्रयोजन न होते हुए भी अगर बोहरे जी की कुछ प्रमुख कहानियों का चयन करना हो तो वे हो सकती हैं-साथु यह देश विराना, मुठभेड़, लौट आओ सुखजिंदर, भय, जमील चच्चा, गोस्टा, कुपच, निगरानी, बाजार वेब और मुहिम। कोई स्थिति, कोई घटना कैसे अपना सीमित सन्दर्भ छोड़कर व्यापक अनुभूति की कहानी बन जाती है और कैसे वह एक मानवीय मूल्य का निष्कर्ष बन जाती है यह "लौट आओ सुखजिंदर' कहानी में देखा जा सकता है। 1984 के सिख विरोधी दंगों का स्मरण कराती यह कहानी जबर्दस्त शॉक, भावनात्मक आधात की कहानी है। कल तक सबके साथ रहने वाला खुशमिजाज़ सुखर्जिदर अब सहम गया है, भयग्रस्त हो गया है कि कहीं वह सिख होने के कारण न मार दिया जाये। ऐसी स्थिति में बहुत स्वाभाविक ही कि उसका विश्वास टूट जाये। बहुत निकट के दोस्त पर भी भरोसा न रह जाए। भय से तब तक तो बचा भी जा सकता है जब तक उसे उत्पन्न करने वाला कारण ज्ञात हो। जब भय चाहे जब पैदा होने की स्थिति बन जाए तब भय के प्रति समर्पण के अलावा कोई उपाय नही रह जाता।

"तब तक नही लगता था जब भय के तर्कपूर्ण कारण थे पर अब तो भय इतना अनायास और प्रायोजित सा हो गया है कि रास्ते में चलते समय भी अगला कदम रखते हुए यह सन्देह बना रहता है कि कही हम बारूद या बम पर तो पैर नही रख रहे।"(इज्जत-आबरू : लौट आओ सुखजिंदर)

सुखजिंदर है तो वहीं, पर अब वह लौट नहीं पाता। 'चम्पामहाराज, नर्स चेलम्मा और प्रेमकथा 'कहानी मजबूरी में ढहते हुऐ पारंपरिक सामाजिक मूल्यों की कहानी है। चम्पामहाराज के बड़े भाई कालका प्रसाद केरल की नर्स चेलम्मा से विवाह करना चाहते हैं। जाति हमारे समाज की अलंघ्य दीवार है, पर कालकाप्रसाद खेती बंटा कर अलग न हो जायें इस डर से चम्पामहाराज कई तरह के तर्क गढ़ लेते हैं इस सम्बंध के समर्थन में। शास्त्रों में हर तरह के उदाहरण मिल ही जाते हैं। गोस्टा' कहानी में गांवों में स्वयं अपने जानवर चराने ले जाने की सहकारी प्रथा कावर्णन है। परम्पराऐं और प्रथाऐं समय के दबाब में बदलती रहती हैं। गोस्टा केवल जानवर चराने का सहकार नही है वह पूरे गांव में कामकाज करने और वस्तुओं के उपयोग की प्रथा रही है। अब कुछ लोग अकेले प्रकाश पर जानवरों का काम छोड़ देना चाहते हैं तो प्रकाश जैसे गरीब लोग अपना अलग गोस्टा बना लेते है अर्थात वर्ग चेतना का उभार होने लगा है। बोहरे जी की अत्यंत चर्चित कहानी ' भय" कहानी न प्रोफेसर रवि की है न उनके श्रद्धालु शिष्य कुणाल की, न उन छात्रों की जो अनुचित साधना उपयोग करने देने के कारण प्रोफेसर रवि को घेरने आए हैं, वह सच के संघर्ष की सुखान्त कहानी है। छोटी घटना पह वहां से निकलता है बड़ा आशय ! यही कौशल है बोहरे जी का।

कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टि से 'निगरानी' बोहरे जी की बहुत सशक्त कहानी है, व्यवस्था क खोखलेपन को खोलती यह कहानी बताती है कि चुनाव में आया एक पर्यवेक्षक किस तरह यौन सत्कार में डूब कर अपना कर्तव्य भूल जाता है। 'मुठभेड़' कहानी में एक सिपाही पिता अपने पुत्र को दरोगा की नौकरी में जाने की अनुमति नहीं देता क्यों कि वह जानता है कि वहां बहुत भ्रष्ट्राचार है, लेकिन जब एक दरोगा उस पिता के मित्र सिपाही को मुठभेड़ बता कर मार देता है तव यह लगता है वह अपने पुत्र को पुलिस की नौकरी में और भी सख्ती से मनाकर देगा, पर होता ठीक उसके विपरीत हैं अब वह पुत्र को इस हत्यारी व्यवस्था से मुठभेड़ के लिए खुद पुलिस में जाने का कह देता है।

'बाजार वेब' बिलकुल हमारे समय की कहानी है। उपभोक्ता समाज में बाजार ने हमे अपने निर्मम जबड़ों में जकड़ लिया हैं। अब घरेलू वूमन सेल्सगर्ल बन गई हैं। बाजार अब कोई निश्चित जगह का नाम नही रह गया। बाजार अब घरों के भीतर तक चला आया है, उसके प्रसार में घर की अन्य चीजें अपनी जगह से बेदखल हो रही हैं। 'मुहिम' कहानी इस विषय पर आधारित उनके उपन्यास 'मुखबिर' का संक्षिप्त रूप है।

इन सब कहानियों में टूटते बिखरते सम्बंधों और विपरीत स्थिति के बाद भी बोहरे जी की आस्था बची रहती है और वह कहीं न कहीं इन कहानियों में आत्मीय संस्पर्श बचाये रखते है। वह सुख जिंदर के मन में 'टूटते भरोसे' के कारण चिन्तित हैं, क्यों कि उसका टूटना एक व्यक्ति का टूटना नही बल्कि पूरी सामाजिक स्ट्रक्चर का टूटना है। बोहरे इस विडम्बना को उभार कर इस त्रासदी को और विशादमय बना देते हैं जिसमें जैन धर्म की स्तुति गाता सुखजिंदर, चर्च जाता सुखजिंदर धर्म को इंसान से इंसान को जोड़ने वाला मानता है पर वह भयभीत है कि इस जाति धर्म से केवल सिख समझ कर न मार दिया जाये।

बोहरे जी के जिस तकनीकी ओर व्यवहारिक पहलू का उललेख पहले कियाजा चुका उसे स्पष्ट करना आवश्यक है। जिज्ञासा और सजगता ने उन्हे अनेक क्षेत्रों की विशिष्टताओं से परिचित कराया। इस विशिष्टताओं में भाषा के विशिष्ट शब्द भी हैं और क्रिया व्यापार भी। इस सुविधा ने बोहरे जी की कहानी को कथाकार स्वाभाविक ओर प्राथमिक लगने में सहायता की है। 'साधु यह देश विराना' कहानी में साधु समाज में प्रयुक्त सभी क्रियाकलाप और उसकी तकनीकी शब्दावली इस बात का प्रमाण है। 'गाड़ी भर जीक' में वह ट्रक के सारे कलपुजों के नाम जानते हैं। 'आदत' में वह भवन निर्माण की सारी तकनीक जानने का परिचय देते हैं। वह 'कुपच' में पुरोहिताई और पंडिताई करने की विधि कहते हैं, तो गोस्टा कहानी में गांव में जानवर चराने की प्रथा से जुड़े सारे शब्द उनके जेहन में है। विभिन्न अवसरों पर कहे और गाये जाने वाले श्लोक, चौपाई और लोकगीत तो उनके दाये बांये रहते ही हैं। ये सारे उपकरण बोहरे जी के कवानकों को असाधारण पठनीयता से संपन्न कर देते हैं। 'कुपच' कहानी में श्लोक ओर सुन्दरकाण्ड और चम्पामहाराज.....कहानी में कार्तिकी लोक गीतों के सन्दर्भ बोहरे जी की किस्सागोई को नये उपकरण प्रदान करते हैं।

अनुभूति की तीव्रता, कथानकों के अद्भुत गठन के कौशल और कहानी को कहानी बनाए रखने के करिश्में के साथ ही बोहरे का शिल्प भी काफी रचनात्मक है। उनमें वृत्तांत का कौशल भी है और चाक्षुष प्रभाव की दृश्यात्मता भी है। नैरेशन और चित्रण दोनों कहानी कहने के बहुत उपयोगी माध्यम हैं और बोहरे जी उनका उचित प्रयोग करना जानते हैं। बोहरे जी की कहानियाँ हमे विचार के लिए भी प्रेरित करती है और कहानी का स्वत्व भी बनाए रखती हैं।

राजनारायण बोहरे : आलोचना की अदालत