Black pupil in Hindi Comedy stories by Alok Mishra books and stories PDF | काली पुतली 

Featured Books
Categories
Share

काली पुतली 

काली पुतली

ये गाँव से विकसित होता छोटा सा कस्बा था । इस शहर में कुछ सड़कें ऐसी भी थी जिन पर रातों को लोग जाने से कतराते थे । आज मै जहाँ हूँ वहाँ से ही कभी शहर का वीराना प्रारम्भ होता था । इस शहर के कुछ कलाकारों नें मुझे कागज पर उकेरा । चित्र से निकाल कर मुझे अपने घड़े से छलकते पानी और उसमें भीगते हुए वस्त्रों के साथ फौहारे के बीच चौराहे पर बिठा दिया गया । मेरे काले रंग ने मुझे एक अलग ही आकर्षण और कलात्मक रुप प्रदान कर दिया । मेरा छलकता हुआ घड़ा आने - जाने वालों के लिए शुभता और मंगलकामनाओं का प्रतीक बन गया । फिर न जाने किसने मुझे नाम दे दिया ‘‘कालीपुतली’’। तब से आज तक मैं बस आप लोगों को आते-जाते हुए देख रही हूं । आज यह चौक मेरे ही नाम से जाना जाता है । मैं दुनिया भर में और कहीं भी नहीं केवल और केवल यहीं हूं । विश्वस्तरीय कलाकारों की नज़र मुझ पर नहीं पड़ी । इसका कारण मैं या मेरे बनाने वाले की कोई कमी न होकर इस क्षेत्र का अपेक्षाकृत पिछड़ा होना है । कभी मैं सोचती थी कि कला के कद्रदान जरुर ही मेरे आसपास जमा हुआ करेंगे लेकिन ऐसा हो न सका ।

अब बदलते प्रशासनों के बीच कभी मैं जगमगाती रोशनी में रोज ही नहाती हूॅं तो कभी पानी की एक बूंद और रोशनी को तरस जाती हूँ । कुछ लोग मुझे नारी के अपमान के रुप में देखते है उन्हें मेंरा यहां बैठे रहना अच्छा नहीं लगता तो कुछ लोग मुझे यहां की संस्कृति से जोड़ कर देखते है । मेरे लिए विवादों का होना या न होना कोई मायने नहीं रखता । मैं चुपचाप अपने घड़े के साथ एक पैर आगे की ओर किए हुए उठने को उ़द्धयत निर्विकार भाव से नवनिर्मित अहिंसा द्वार की ओर निहारती हुई बैठी हूं । मुझे किसी की प्रतिक्षा नहीं है पर लगता है कि मैं किसी की अनंत प्रतिक्षारत हूं ।

अब मेरे आसपास पहले सा शांत वातावरण नहीं रहा । शहर के कोलाहल से मेरे साथ ही साथ बड़े-बड़े महान लोग जो चौराहों पर विराजमान है अब परेशान दिखाई देते है । शहर भर में होने वाले धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक कार्यक्रम मेरे सम्मुख आए बिना समाप्त ही नहीं होते । वे डी.जे. की धुन पर शैतानों की तरह नाचने का पुनीत कर्म करते हुए आस-पास के लोगों की तकलीफों को भूल जाते है । यातायात रुकता है तो रुके उनकी बला से ..... उन्हें नाचना है....... तो बस नाचना है । उस पर तुर्रा यह कि मेरे आस-पास कान फोडू फटाके फोड़ना भी आवश्यक ही है । यदि इस दौरान कोई चैनल या समाचार पत्र का कैमरा नज़र आ जाए तो समझ लीजिए गदर ही हो गया । बाजू वाले को धक्का दे दो उसकी पीठ पर चढ जाओ लेकिन कैमरे में दिखना जरुरी है ।

ऐसा नहीं कि मेरे आस-पास केवल इसी तरह के आयोजन होते है । आजकल मेरे ठीक सामने कुछ धरने प्रदर्शन और आंदोलनों के पंड़ाल भी लगाए जाने लगे है । ये धरने, प्रदर्शन और आंदोलन ,प्रशासन और उन लोगों तक आवाज पहुंचाने के लिए होते तो उन अधिकारियों के दफ्तर या उन लोगों के घरों के सामने होते । ये सारे आंदोलन तो आपको गुमराह करने के लिए या अपनी नेतागिरी चमकाने की नियत से होते है । इन पंडालों में अधिकांशतः तो पाॅच -दस लोग ही बैठ कर पूरे शहर या क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते है । मेरे सामने बैठने वालों को रास्ता चलने वालों की भीड़ मुफ्त में मिल जाती है और मुफ्त का माल कोई छोड़ता है क्या ?

मेरे आस -पास जिंदाबाद -मुर्दाबाद के नारे लगाते लोगों की भीड़ अक्सर ही आती- जाती रहती है । कभी-कभी तो भीड़ अपने किसी नाते- रिश्तेदार का पुतला लाकर किसी शमशान घाट की तरह ही मेरे सामने जलाती है या जलाने का प्रयास करती है । ऐसे पुतले अक्सर ही भीड़ से अधिक पुलिस को प्रिय होते है इसलिए उसके जलते ही उसे बचाने के लिए पुलिसवाले बड़ी ही बेईज्जती के साथ जूतों से रौंद -रौंद कर उसे बुझाने का प्रयास करते देखे जाते है । ऐसे समय पर यदि आप पुतले से नज़र हटा कर मेरे चेहरे की ओर देखें तो आपको मेरी मुस्कान भी साफ दिखाई देगी । अब मेरे आस-पास मेरी कुछ संगी- साथी भी सब्जी -भाजी बेच कर गुजर -बसर करने का प्रयास करने लगी है । उनके होने से मेरा अकेलापन दूर हो जाता है । आजकल विज्ञापनों के जमाने में लोग मेरे आस-पास इतने अधिक बैनर और पोस्टर लगाते है कि आप लोगों का ध्यान मुझ पर जा ही नहीं पाता ।

शामों को मेरे दाहिनी ओर से अध्ययन करके लौटते छात्र जहां मन को प्रसन्न कर देते है वहीं बायीं ओर जाम से जाम टकराने वाली टोलियां मुझे शर्मिन्दा करती है । मेरी पीठ की ओर से आती हुई सड़क को मेरे लिए देख पाना सम्भव नहीं हो पाता । उस ओर से आने वाले लोगों की नज़रें मुझे अपनी नंगी पीठ पर चुभती हुई लगती है तेा मैं शर्म से पानी -पानी हो जाती हूँ । गंदगी से बजबजाते पार्क से कुछ दूर ठेलों और खोमचे वालों की धमाचैकड़ी और अस्तव्यस्त से आवागमन के बीच मैं बैठी हूं । मैं कालीपुतली बोल रही हूं ..... इस वातावरण में मैं बैठी हूं ........ऐसा आपको लगता है । एक बार ध्यान से देखिए........ मैं बैठी हूं....... या ......उठने का प्रयास कर रही हूं । यदि आपकी नज़रों में कला को देखने और परखने की योग्यता है और आप कला, सौन्दर्य और संस्कृति के स्वरुप को एक ही स्थान पर देखना चाहते है तो एक नज़र मुझ पर ड़ालें । मैं कलीपुतली हूॅं.........।

नोट- यह लेख बालाघाट (म.प्र.) में स्थित कला के अद्वितिय नमूने पर है । यह एक प्रमुख चौक पर स्थित है ।





आलोक मिश्रा