mrityu bhog - 4 in Hindi Horror Stories by Rahul Haldhar books and stories PDF | मृत्यु भोग - 4

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मृत्यु भोग - 4

प्रताप आजकल बीच बीच में निमतला श्मशान में जाकर
बैठा रहता है । वैसे निमतला घाट उसके दक्षिण घर से बहुत
दूर है । लेकिन दक्षिण के गरिया महाश्मशान , सिरियारी व
केवड़ातल्ला के किसी भी घाट पर इस निमतला व काशी
मित्ति घाट जैसा गंगा की हवा नही मिलता है । आजकल
श्मशान बहुत अच्छा लगता है उसको , शांत शीतल जगह ।
वहाँ कोई भी उसे उसके इन महीनों के परिवर्तन को लेकर
कुछ नही पूछता । श्मशान के एक कोने में चुपचाप
बैठा रहता है वो । दिसंबर के बीचोबीच का समय अगले
दिन अमावस्या है । प्रायः एक महीना हो गया है पुष्पा दी
को गए हुए । भवेश काका भी आये थे दिन दस पहले ।
उसके बाद उनका भी कोई खोज नही । इन दस दिनों
में प्रताप का शरीर और भी खराब हुआ है ।
ऑफिस के लोग भी आश्चर्य हो गए हैं शरीर के इस
अवस्था को देख कर । लेकिन नही प्रताप को लगता
है कि वह स्वस्थ है । एक दिन ऑफिस छोड़ बीच में
ही चला आया प्रताप तब से पूरे पांच दिन की छुट्टी
पर है ।
सभी चींजें ठीक है , प्रतिदिन देवी मां भोग खा रहीं हैं ।
अर्द्धभुक्त खाना पूरे स्टडी रूम में फैलाया रहता है ।
लेकिन एक सोच उसके मन को परेशान किये हुए
है पुष्पा दी के जाने के बाद , खाना डुमरी पकाती है ।
निश्चित ही वह खाना बहुत ही अच्छा है वरना मां ने
वह भोग क्यों स्वीकार किया । कहाँ पुष्पा दीदी की
पकाए खाने को तो मां ने कभी भोग में स्वीकार नही किया ।
लेकिन पकाया खाना किसी कारणवश प्रताप को अच्छा
नही लगता , खाने में हरवक्त वो एक बेकार गंध पाता है ।
हो सकता है कोई कारण नही है । सबकुछ ठीक है
लेकिन खाने को मुँह में डालते ही अज्ञात कारण से
शरीर कांप उठता है उसका । आजकल तभी खाना पीना
खूब कम हो गया है उसका , जितना भी उससे होता है
वही ऑमलेट व चावल खाकर चला आता है । डुमरी
बहुत बिगड़ती है उसको कि इतना सब कुछ पकाया
खाना अब वो क्या करेगी ? आजकल तो प्रताप के घर
के आसपास कुत्ते और बिल्ली भी नही आते , इतना ही
नही घर के ऊपर से कौवा तक नही उड़ता , यह भी उसने
ध्यान दिया है ।
शाम के वक्त निमतला श्मशान में आज भी उदासी मुख
बनाकर एक सीमेंट के बेंच पर प्रताप बैठा हुआ था ।
खूब जोरों की भूख लगी है उसको , उठकर पास के एक
दुकान में गया यह पूछने कि कुछ खाने को है या नही ।
दुकानदार ने बताया कि आज कस्टमर कुछ ज्यादा है
तुरंत एक रोटी और जलेबी है । तबतक इसी से अपने
भूख को शांत करो । आधा घंटा बाद वो शाम के नाश्ते
का प्रबंध कर लेगा ।
अभी रोटी को हाथ में लिया ही था कि पास ही से आये
एक आवाज को सुन प्रताप रुक गया ।
" अकेले अकेले ही खाएंगे आप इसे , हाफ हाफ करके
भी तो खा सकतें हैं । हमको भी नगेन्द्र ने बोला है आधा
घंटा बाद रोटी पक्का मिलेगा । तब आपका भाग आपको
दे दूंगा , वैसे मैं किसी को कहता नही हूँ पर आज भूख
अभी बर्दाश्त नही हो रहा । "
पास ही मुड़कर देखा प्रताप , इस शाम के अंधकार में
कब पास आकर यह आदमी बैठा ध्यान ही नही दिया
उसने । देखने से भिखारी व बहेतु तो नही लगता , सफेद
व कम हाइट का एक आदमी । साधारण एक हाफ शर्ट व
ट्राउजर्स पहने हुए । दोनों आंख आश्चर्य रूप से उज्ज्वल ,
जैसे उसमें कई बातें खेल रही है ।
प्रताप को कुछ दया आयी , उसने रोटी को फाड़कर दो भाग किया और दाहिने हाथ के भाग को उस आदमी
को दे दिया और जलेबी के पॉलीथिन को बढ़ा दिया ।
वह आदमी रोटी के टुकड़े को लेकर अद्भुत भाव से
प्रताप के चेहरे हो देखता रहा । फिर पूछा – " दाहिने हाथ
के बड़े टुकड़े को ही दिया तुमने, बाएं हाथ के छोटे
टुकड़े को भी तुम मुझे दे सकते थे । "
प्रताप धीमे स्वर में बोला – " वो सब समझकर नही
दिया मैंने , अपने कहा भूख लगी है और वैसे भी नगेन्द्र
कुछ देर बाद तो बना कर दे ही रहा है । "
वह आदमी रोटी के टुकड़े को माथे से लगाया फिर स्पष्ट
संस्कृत में बोला ' श्रद्धा - या देयम , श्रीया देयम ' यह
बोलकर रोटी को मुँह में डालकर परम् तृप्ति के साथ
चबाने लगता है । प्रताप को वह आदमी काफी अच्छा लगा
अपने भाग के रोटी को जलेबी के साथ चबाते
हुए बोला – " आपका घर कहाँ है ? "
वह आदमी गंभीर सांस छोड़ते हुए बोला – " बहुत दूर
बाबू , नवद्दीप , नदिया जिला ।
प्रताप बोला – " अच्छा , आपको संस्कृत अच्छे से आता
है , क्या करतें हैं आप ? "
वह आदमी बोला – " वही छात्रों को पढ़ाता हूँ और पूजा
पाठ भी करता हूँ यह हमारा पारिवारिक काम भी कह
सकते हो । "
प्रताप बोला – " ओ ! आप टीचर हो , पहले बोलना चाहिए
न मेरे पिताजी भी प्रोफेसर थे । "
वह आदमी खुशी होकर बोला – " वाह ! वाह ! बहुत
अच्छा , पता है सभी दानों में सबसे श्रेष्ठतम दान होता
है शिक्षा दान । "
प्रताप बोला – " तब आप नवद्दीप छोड़कर कोलकाता
श्मशान में क्या कर रहें हैं ? "
वह आदमी बोला – “ अरे क्या बताऊँ , एक किताब
लिखा हूँ उसी को लेकर पब्लिशर के साथ बात करने
के लिए कोलकाता आया हूँ , काम हो गया , सोचा एक
बार यहां घूम कर ही जाता हूँ , श्मशान अति शुद्ध स्थान है
पूरा चित्त साफ हो जाता है यहां , बाबू समझे । "
प्रताप बोला –“ वाह! आप भी किताब लिखतें हैं , अच्छा
है तो किस प्रकार की किताब ? "
वह आदमी बोला – “ वही पूजा पाठ की किताब , इधर
उधर के पूजा , प्रथा , तंत्र , मंत्र सब एक साथ रखकर
एक संकलन किया हूँ । ज्यादा विशेष कुछ नही ।"
प्रताप खुशी होकर बोला – " वाह ! पुजारी जी, तंत्र - मंत्र
का भी ज्ञान है , आप तो बड़े इंटरेस्टिंग हैं पुजारी महाराज ।"
वह आदमी खुले स्वर में बोला – “ तंत्र - मंत्र ये सब उतना
इम्पोर्टेन्ट नही है बाबू , आदमी के अंदर प्रेम से बड़ा कोई
भी तंत्र नही होता । अब यही देख लीजिए तुमने केवल
एक रोटी के दो भाग करके प्रेम से बड़े भाग को दाहिने
हाथ से मुझे दे दिया इससे बड़ा और कोई तंत्र - मंत्र हो
सकता है क्या ? समझे , बहुत पूजा पाठ करके एक सार
समझा हूँ प्रेम है सबसे बड़ा तंत्र , सबसे बड़ा जादू । "

प्रताप चुप रहा , वह आदमी एक तीक्ष्ण नजर से प्रताप
को देख रहा था कुछ देर ऐसे ही देखते रहे ।
बाप रे बाप ! क्या दृष्टि है , प्रताप सिकुड़ सा गया ।
तब वह आदमी अपने में ही बोला – " आप तो त्रिगुण ,
राज - राजस्वरी , दूसरों के साधक भूल से अपने बालक
की विनाश कभी करेगीं आप । "
यह बोलकर उस आदमी ने अपने जेब से कुछ निकाला
प्रताप ने देखा कि एक लाल धागे की माला जिसपर केवल
रुद्राक्ष के जैसा एक स्फटिक है और कुछ नही ।
प्रताप के कुछ बोलने से पहले ही उस आदमी ने वह माला
प्रताप के गले में डाल दिया । फिर हंसी मुख से
बोले – “ लीजिए बाबू एक चीज देकर जा रहा हूँ , कभी
भी गले से मत खोलना । जब इसका काम समाप्त हो
जाएगा यह अपने आप मेरे पास चला आएगा । कुछ
घबराने की जरूरत नही है , अत्यंत भूखे को जो
बिना कुछ सोचे समझे खुद का भोजन दे दे , हे महामाया
उसकी रक्षा कीजिए , रक्षा कीजिए ।"
प्रताप पहले अचंभित हुआ फिर बोला – " कोई बात
नही , ये मुझे क्यों पहना दिया , मैं इसे क्यों पहनूं ? "
वह आदमी बोला – " रखिये न बाबू , इससे आपको
कोई परेशानी नही है । विपत्ति में एक मनुष्य ही दूसरे
मनुष्य के काम आता है । "
प्रताप बोला – " विपत्ति , कैसी विपत्ति ? , मैं तो कुछ
समझ नही पा रहा । "
" कुछ समझने की जरूरत नही , सुनो बारिश तूफान ,
बिजली गिरे जो भी हो , पृथ्वी इधर से उधर पलट जाए ।
तुम इस माला को मत खोलना , अगर बचना चाहते हो
तो यही तुम्हारा प्राण है । इसको अपने से अलग मत करना ।
जो मैंने कहा उसे याद रखना । " यह पहली बार था जब
वह आदमी अपने कंठ को भारी करके बोला ।
यह सब सुन आश्चर्य हुआ प्रताप को , वह आदमी तबतक
खड़े हो गए थे । प्रताप भी खड़ा हुआ , कांपते गले से बोला
– " आप कौन हैं जरा मुझे बताएंगे , नाम तो कम से
कम बता दीजिए । "
वह आदमी हँसकर बोला – " नाम जानकर क्या करोगे ? ,
तुम्हारे साथ मेरा कभी और सामना नही होगा । तब भी
जब तुम जानना चाहते हो तो बता ही देता हूँ , मेरा नाम
है केहेन मैत्री , पिताजी महेश मैत्री । नवद्दीप के मैत्री वंश
का लड़का हूँ मैं ।"
आगे के अंधकार में वो आगे बढ़ते हुए साथ में मिल
जातें हैं उसी शाम के अंधकार से आवाज आता है
" मैंने जिस किताब को छापा है , उसमें देखिएगा मेरे
नाम के पास एक उपाधि लिखा है , लोग मुझे उसी
उपाधि में ही ज्यादा जानतें हैं । आगमवागीश , मेरा
पूरा नाम है कृष्णानंद आगमवागीश । "

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एक मन से पूजा कर रहे थे , दिजुक्तम मिश्र , उनके
घर कम से कम पांच सौ वर्ष पहले की काली मूर्ति
प्रतिष्ठित है । मां के संध्या काल की पूजा वही करतें
हैं । पूजा खत्म होने पर साष्टांग प्रणाम किया मां को ।
फिर पीछे मुड़ कर देखा मंदिर के सामने ही दो लोग
भक्तिमय हाथ जोड़कर खड़े हुए हैं । एक लोग कुछ
वृद्ध और एक पुरुष ।
दिजुक्तम बाबू के पुत्रवधू ने आकर उन्हें बताया कि
ये दोनों आपसे मिलने आएं हैं कोलकाता से , कह रहें
हैं बहुत जरूरी है ।
दोनों लोगों में से जो थोड़ा वृद्ध है उन्होंने सिर झुकाकर
नमस्कार किया और बोले – " नमस्कार स्वामी , मेरा
नाम भवेश भट्टाचार्य है कोलकाता से आया हूँ । एक
समय कॉलेज में इतिहास पढ़ाता था अब रिटायर्ड हो
गया हूँ । मेरे साथ ये जो लड़का आया है इसका नाम
मुकेश अग्रवाल है , पार्क स्ट्रीट में उसका एक दुकान
है पुराने समानों का । आपने शायद इसे कहीं देखा है । "
मुकेश भी सामने आकर प्रणाम किया और हंस
कर बोला – " यही महीने दो महीने पहले इस जमींदार
घर से पुराने सामान खरीद कर ले गया था । आपने
एक मूर्ति दिया था फ्री ऑफ कॉस्ट , याद नही है आपको ।"
दिजुक्तम मिश्र के चेहरे पर सोच , भय , आतंक सभी
भाव एक साथ ही आ गया । फिर धीरे से हँस कर बोले
– " हाँ , हाँ ठीक से याद है , बताइए आपकी क्या सेवा
करूँ । "
फिर अपने पुत्रवधू से बोले – " उससे पहले , हम सब
के लिए एक कप चाय लेकर आओ बेटी । "
भावेश बाबू बोले – " तब यहीं पर बैठू स्वामी जी ।"
दिजुक्तम मिश्र बोले – " हां ,हां, ……. अहा ! मां का
मुखमंडल कितना सुंदर है । जगतजननी महामाया मां ।"
फिर से प्रणाम किया भवेश बाबू ने , मंदिर के चौखट
पर ही दिजुक्तम मिश्र बैठ गए फिर बोले – " ये जो काली
मां की मूर्ति आप देख रहें हैं यह हमें विशेष तरीके से
प्राप्त हुआ था । हमारे एक पूर्वपुरुष बहुभाषाविद थे ।
मल्लभूम के मल्ल राजाओं के नाम तो आपने सुना
ही होगा । आप तो इतिहास के अध्यापक हैं , तो हमारे
वो पूर्वपुरुष उनका नाम था दनुजदमन मिश्र , राजा
चंद्रमल्ल के पास काम करते थे । उनका काम था
मल्लभूम के संथाल और मुंडा जनजाति के लोगों को
राजा के साथ मिलवाने का । एक बार कुछ गलतफहमी
के कारण राजा बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने इन
आदिवासियों को मार डालने और भगाने का आदेश दिया ।
तो हमारे पूर्वपुरुष राजा को किसी तरह समझा कर उनका
क्रोध शांत किया और सब ठीक किया । कृतज्ञता के कारण
मुंडा सरदार ने अपने पूजित देवी माँ काली की मूर्ति
उन्हें उपहार स्वरूप दिया । तब से यह अधिष्ठात्री मूर्ति
हमलोगों के गृह देवी हैं । "

तब तक चाय आ गयी थी , पीते पीते भवेश बाबू अपने
असली प्रसंग में आ गये – " स्वामी जी , अपने एक देवी
मूर्ति इस मुकेश को ऐसे ही दे दिया था , उसी मूर्ति के बारे
में कुछ पूछना था । "
दिजुक्तम मिश्र एकदम चौंक उठे , मानों एक पल
में जम से गये हो फिर बोले – " वह तो एक दो महीने
पहले की बात है , एक मूर्ति थी जो मैंने दे दी बल्कि मैंने
उसका दाम भी नही लिया , उसको लेकर इतना प्रश्न क्यों ?
क्या मैंने कोई गलती की है ।"
भवेश बाबू बोल उठे – " हमने तो ऐसा नही कहा ,
पर क्या आपको लगता है आपने गलती की । "
इतना सुनते ही दिजुक्तम मिश्र गुस्से से आगबबूला
होते हुए बोले – " तुम सब यहाँ क्या मुझे डराने आये हो ,
आपको पता है मैं कौन हूँ , हम लोग उर्धटन सिद्ध पुरूष
के तांत्रिक परिवार हैं । आपको पता है मैं क्या कर सकता
हूँ क्या नही ? , आपलोगों ने सोचा क्या है कि मैं आपका
नौकर हूँ जो आपके सभी बातों का जवाब दूँ । "
तुरंत ही दिजुक्तम मिश्र के दोनों पैर पकड़लिया भवेश
बाबू ने और कांपते स्वर में बोले – " स्वामी ! मैंने शादी
नही किया है , मेरा इस संसार में कोई नही है । बचपन
के दोस्त का लड़का उसी को अपना बेटा मानता हूं ।
आज वह बहुत विपत्ति में है स्वामी , उस मूर्ति को घर
ले जाकर वह अपने मन से खेल रहा है , इसीलिए उसके
जीवन में घोर कालरात्रि आ गयी है । मैं ब्राह्मण हूँ , जीवन
में कभी भी झूठ नही बोला न ही किसी को धोखा दिया
लेकिन वह लड़का मेरा है , उसको बचाइए स्वामी बचाइए
महामाया आपको आशीर्वाद देंगी ।"
इतना कहते हुए भवेश बाबू रो ही दिए थे । दिजुक्तम
मिश्र कुछ देर सर झुकाकर बैठे रहे फिर जब मुख
उठाया तो अब मुख की रेखाएं कोमल हो गयी थी
फिर बोले – " आप लोगों को जो सब बताऊंगा वो
केवल मौखिक रूप से ही हमारे वंश में चली आ रही
है , इसका कोई लिखित प्रमाण नही है ।
…………… हमारे पूर्वपुरुष दनुजदमन मिश्र , मुंडा सरदार
के दिये काली मूर्ति को पाकर राजा चंद्रमल्ल के काम
को छोड़कर चले आये इस इलाके में । तब यहां के
जमींदार थे विश्वेश्वर चक्रवर्ती । उनका एक छोटा भाई
था शहशराख चक्रवर्ती , ये ब्राम्हण होने के बावजूद
लोगों के रोग विष वैद्य की अभूतपूर्व जानकारी थी ।
शहशराख जब तीस साल की उम्र के थे तब एक
दिन कहीं चले गए । विश्वेश्वर अपने छोटे गुणी भाई
को अपने संतान की तरह स्नेह करते थे । उन्होंने पागलों
की तरह शहशराख को खोजा पर उनका कोई अता पता
नही । फिर बीस साल बाद शहशराख फिर आ गए
इस जमींदारी में । विश्वेश्वर तब पैंसठ वर्ष के प्रौढ़ और
उनका खुद का लड़का तब लगभग चालीस साल का
था । फिर भी उन्होंने शहशराख को जमींदारी की
भार खुद के ऊपर लेने को कहा ।
किन्तु जो शहशराख गए थे वो थे युवा विष वैद्य और
जो लौट के आये वो थे घोर वामाचारी तांत्रिक , वह
रक्ताम्बर के सिवा कुछ पहनतें नही थे , सात्विक भोजन
छोड़ कुछ ग्रहण नही करते । पूरे मुख पर बड़े बड़े दाढ़ी
मूँछ और ऊपर जटा ।
वो केवल वामाचारी तांत्रिक सन्यासी नही थे , तिब्बतीय
वज्रयान तंत्र तब वो सिद्ध कर चुके थे । जमींदारी
लेने की बात तो बहुत दूर की है आते ही उन्होंने एक यज्ञ
कर घोषणा किया कि इसके बाद से चक्रवर्ती परिवार
में जब भी कोई भ्रातृ विरोध शुरू करेगा उसका सर्वनाश
होगा । बड़े भाई के पुत्र को यज्ञ से एक ताबीज बना कर
दिया जिससे उसके और उसके आने वाले वंश में किसी
को धन की कमी कभी न हो जिससे भ्रातृ विरोध की
छाया इस घर को छू भी न पाए ।
क्रम से जाना जाता है शहशराख भाग कर पहले नेपाल
और उनके बाद तिब्बत गए थे । नेपाल के तराई क्षेत्र में
एक तांत्रिक के पास से वामाचारी तांत्रिक की दीक्षा ली ।
लगभग दस साल वहां रहकर वो चले गए तिब्बत ।
वहां पर तब वज्रयान बौद्ध घर्म के गौरवमय का अध्याय
था । शहशराख एक प्रसिद्ध तांत्रिक गुरु को पाकर वज्रयान
तंत्र साधना में मग्न हुए । बहुत ही मेधावी होने के कारण
जल्द ही उन्होंने वज्रयान के सभी मार्ग को पार कर लिया ।
साथ में अपने रोग विष वैद्य की जानकारी तो उन्हें थी ही ।
तिब्बत में तब भयानक अराजकता का समय था ,
गैर उपजातीय शासक 'रिन स्पांग्स पा' ( रिनपुंगपा )
के राजवंश का अंतिम समय की शुरुआत था ।
राजधानी शिगात्से के गवर्नर 'कर्मा सेतेन' ने विद्रोह किया
उन्होंने चुपके से शहशराख के गुरु को बुलावा भेजा
तंत्र शक्ति की सहायता से विजय होने के लिए । वह
तिब्बतीय धर्म गुरु स्वयं नही गए वरन शहशराख को
वहां भेजा । शहशराख ने जाकर देखा अवस्था बहुत
ही संगीन है । इसी बीच 'कर्मा सेतेन' की एकमात्र पुत्री
शत्रु पक्ष के कूट चाल से मरने के समय पर आगयी ।
शहशराख ने देखते ही जान लिया कि वह बहुत ही
विष रोग से ग्रसित है । उनके विद्या के बल पर उस
को एक नया जीवन मिला ।
पर यहीं सब गड़बड़ी ठीक नहीं हुई जिन्होंने
चाहा था कि लड़की को मारकर कर्मा सेतेन को
दुर्बल कर देंगे । अब वो पीछे पड़ गए शहशराख के ।
तब शहशराख ने उस मूर्ति को बनाया । आप लोग अगर
ठीक से मूर्ति को देखते तो समझ जाते कि ये पूरी तरह
से एक हिन्दू मूर्ति है । शहशराख के मुख से मौखिक
वर्णना सुनकर एक तिब्बतीय मूर्तिकार ने इसे बनाया
था इसीलिए देखने से तिब्बतीय मूर्ति लगती है ।
यह मूर्ति बनने के बाद एक अमावस्या की रात को
शहशराख ने खुद उस मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा की । उस दिन
सुबह पूर्णग्रास सूर्यग्रहण भी था ।
तंत्र के धारणा के बारे में आपको कुछ पता है
मास्टर साहब ? "
भवेश बाबू बोले – " ज्यादा कुछ नही पता वही उच्चाटन ,
स्तम्भन , माराटन यही कुछ ।"
कुछ देर चुप रहने के बाद दिजुक्तम मिश्र फिर बोले
– " हिन्दू व बौद्ध तंत्र को मिलाकर जितने भी क्रिया
सीखे थे शहशराख ने उसी से धीरे धीरे करके मूर्ति
की बीज क्रिया को तैयार किया था उन्होंने ।
इस मूर्ति के क्रिया करने में ज्यादा समय नही लगा
शासक 'रिन स्पांग्स पा' का राजवंश पूरेवंश के साथ
मिट गया । और ' कर्मा सेतेन ' समस्त तिब्बत के राजा
हुए । इसके बाद ' कर्मा सेतेन' ने जोर दिया कि वह मूर्ति
के साथ वहीं पर रह जाये , राजगुरु के पद लेने का
भी अनुरोध किया । किन्तु विधी की लीला कुछ और
थी । हरदम उड़ने वाले पंक्षी को क्या कभी सोने के
पिंजरे में बंद रखा जा सकता है , और शहशराख ये
भी जानते थे कि मूर्ति के पैशाचिक शक्ति के आकर्षक
के कारण और किसी निम्न तांत्रिक के पास अगर वो
गया तो भारी प्रलय आ सकता है । इसीलिए एक
बारिश की रात अंधकार में मूर्ति को लेकर शहशराख
भाग गए । वह सीधे आ गए खुद के घर इस बमनगछिया
में । यहां पर आकर एक समारोह में उस मूर्ति को अपने
घर में प्रतिष्ठित किया । और उस मूर्ति के नित्य तांत्रिक
पूजा का भार पड़ा हमारे पूर्वपुरुष दनुजदमन के हाथ में।
दनुजदमन काली भक्त थे तांत्रिक नही थे । शहशराख
ने उन्हें स्वयं वामाचारी तंत्र विद्या सिखाया । गुरु ने
बहुत ही उपयुक्त शिष्य ही पाया था किसी एक तांत्रिक
प्रक्रिया के दौरान उन्होंने दनुजदमन से रक्तप्रतिज्ञा करवा
लिया कि जितने दिन यह जमींदारी घर चक्रवर्ती परिवार
के नाम रहेगा उतने दिन तक दनुजदमन के वंशज , उस
शहशराख के लाये मूर्ति की नित्य सेवा करेंगे ।
उसी मूर्ति के दम पर ब्रिटिश शासन , बाढ़ , दो विश्वयुद्ध ,
दंगा , देश विभाजन कुछ भी इस जमींदार घर को नही
छू पाया । और तब से हम मिश्र परिवार के हरएक संतान
तांत्रिक व वंशानुगत इस चक्रवर्ती परिवार के पुरोहित हैं ।
शहशराख इसके बाद भी गृहस्थ में नही रहे , बड़े भाई
विश्वेश्वर मर गए एक दो साल बाद , जिस दिन श्राध्द क्रिया
समाप्त हुई , उसी दिन उन्होंने विश्वेश्वर के लड़के विश्वनाथ
के नाम पर विशेष गृहयज्ञ किया । और उसी दिन रात को
शहशराख ने द्वितीय और अंतिम बार के लिए गृहत्याग
किया ।उसके बाद उनका खोज और किसी ने नही पाया ।"

मुकेश बोला – " क्या यही वो मूर्ति है जिसे आपने
मुझे दिया । "
म्लानि हंसी में दिजुक्तम मिश्र बोले – " हाँ बेटा , वैसा
ही निर्देश था दनुजदमन का अपने वंशजों के लिए कि
जिसदिन चक्रवर्ती परिवार के उत्तराधिकारी इस मूर्ति
को खुद के घर नही रखेंगे । उसी दिन हमलोग खुद इस
मूर्ति के माया से मुक्त हों । "
भवेश बाबू चिंतित मन से बोले – " पर क्यों स्वामी ,
ये कौन सी देवी हैं ? , ये तंत्र विद्या क्यों जरूरी है ?,
ये इतनी भयानक क्यों हैं ? ये कौन हैं ? "
फिर कुछ देर शांत रहे दिजुक्तम मिश्र , फिर बोले
– " ये असल में अत्यंय शक्तिशाली मंत्र सिद्ध दसों
महाविद्यायों में से एक मूर्ति है । पहले ही मैंने कहा है
अगर आपने उस मूर्ति को ध्यान से देखा होगा तो आपको
पता चलेगा ये एक हिन्दू मूर्ति है एवम ये दसों महाविद्या
में से कोई एक देवीं हैं । "
" कौन सी देवी की मूर्ति है स्वामी ।" धीरे से भवेश बाबू
ने पूछा ।
एक आतंकित भाव खेल उठा , चक्रवर्ती घर के उस
अंतिम पुरोहित दिजुक्तम मिश्र के चेहरे पर वह भी मुख
नीचे करके फिसफिसाकर बोले – " ये ऐसी वैसी देवी
नहीं हैं ये हैं दसों महाविद्या में से नवम महाविद्या की
भयंकर देवी मातंगी ।" ……………..

।। क्रमशः ।।


@rahul