उजाले की ओर
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नमस्कार स्नेही मित्रों
कई बार हम दुविधा में आ जाते हैं ,कई बार क्या अक्सर ! कभी कोई गंगा से आ रहा है ,हमारे लिए गंगाजल की बोतल लेकर तो कभी कोई जमुना किनारे से आ रहा है हमारे ऊपर जमुना-जल के छींटे डालने और कभी तो कोई हाथी पर चढ़कर सीधा स्वराष्ट्र से आ जाता है ,हमें गजराज के दर्शन कराने !
अब भैया ! ये तो सोचो ज़रा कि सामने वाले बंदे के पास समय भी है दर्शन करने का या नहीं ? अब नहीं है तो --- ? गजराज को सामने गेट के बाहर ही लाकर क्यों खड़ा कर दिया ?हो सकता है किसीको काम से जाना हो तो भइया गेट तो खोलने दो |
हल्की सर्दी की शुरुआत हो चुकी थी ,पापा के देहावसान के बाद उनका सामान मुझे उठाकर लाना पड़ा | परिस्थिति ऎसी ही थी | वो भारत से बहुत बाहर जाते रहते थे ,इतने कंबल और गर्म कपडे जमा हो गए थे कि संभालना मुश्किल था | सोचा ,धीरे-धीरे दान कर दूँगी ,यानि किसी ऐसे बंदे को दूंगी जिसको आवश्यकता होगी |
लीजिए ,आ गए हाथी महाराज ! उनके साथ गेरुए वस्त्रधारी कई चिमटे बजाते हुए साधु लोग भी ! ये लंबे-चौड़े कि उन्हें नज़र भर देखने के लिए ऊपर नज़रें उठाकर देखना पड़े |
" सौभाग्यवती हो --गिरिराज स्वयं दर्शन देनेको पधारे --माई ---" चिमटे बजाते हुए उनमें से एक ने कहा और हाथी को बिलकुल गेट से अड़ा ही तो दिया |
अब गाड़ी बाहर निकले तो कैसे ? द्वार पर तो गिरिराज दर्शन देने हेतु उपस्थित हैं ----
"यार ! इनको हटवाओ ---ऑफ़िस के लिए देर हो रही है ----"
गेट के अंदर से पीं --पीं हो रही है और गेट के बाहर से गजराज के सेवकों की गुहार ! सोसाइटी की सड़क कोई इतनी चौड़ी नहीं थी की गजराज महाराज के उपस्थित रहते छोटी चारपहिया निकल सके | वैसे सोसाइटी के चोकीदार को स्ट्रिक्ट ऑर्डर्स थे कि ऐसे लोगों को कम से कम अंदर तो न आने दिया करे , बेशक मेन गेट के बाहर लोग दर्शन कर आएँगे जिन्हें गजराज जी के दर्शन करने होंगे |
किसी तरह से गजराज जी के सेवकों को आगे बढ़वाया गया ,वो तो इतनी धीमी गति से आगे बढ़े कि पीं --पीं --का शोर सुनकर आसपास के लोग भी अपने जंगलों से बाहर झाँकने लगे |
ख़ैर ,किसी प्रकार गाड़ी निकली और बैक करके फर्राटे से मेन -सड़क पर जाकर अपने गंतव्य की ओर मुड़ गई |
मैं अंदर जाकर अपने काम से जाने के लिए तैयार होने की फ़िक्र में जल्दबाज़ी मचाने लगी |
"सौभाग्यवती ! शीत बढ़ता जा रहा है ,कुछ गर्म कपड़े मिलेंगे तो गजराज आपकी मनोकामना पूरी करेंगे --- "दो बंदे फिर गेट पर चिंता बजाते खड़े थे |
"कंकु,ज़रा मुझे ऊपर से पापा वाली अटैची उतर दे ,उसमें से ही कोई कंबल दे देती हूँ ---अभी टाइम नहीं है कुछ दूसरा ढूंढने का ---" मैंने बड़बड़ की और घर की सेविका ने जो अटैची मुझे उतारकर पलंग पर रख दी थी , उसमें से एक कंबल निकाला ----"
"आंटी ! ये तो नाना जी आपके लिए लाए थे ,आप ये क्यों दे रही हो ?"
हाँ,ये तो बहुत मंहगा वाला कंबल था ,पापा मेरे लिए पिछली बार यू .के से लाए थे ----मैंने कंकु को उसकी तह बनाकर फिर से अटैची में रखने को कहा और एक लाल इमली का चैक वाला कंबल निकाला और बाहर भेज दिया |
"अरे ! सौभाग्यवती ये क्या दे रही हो ? जो अभी तुम्हारे हाथ में था वो दो --?"
हमें ध्यान ही नहीं था कि वे गजराज के सेवक सरकते हुए बाउंड्री-वॉल के उस स्थान पर आ गए थे जहाँ से बैड-रूम दिखाई देता था |
बड़ी खीज आई और स्वयं पर क्रोध भी कि यह हमारी ड्यूटी थी कि हम ध्यान देते ,कोई हमारे घर में झांक तो नहीं रहा है ?
कंकु बैरंग लिफ़ाफ़े की तरह वह कंबल मेरे सामने लेकर आ गई और उसने उनके मुख मंडल से निकसित वाणी दोहराई | मुझे वैसे ही देर हो रही थी ,क्रोध भी आया |
"कंकु ,बेटा ! तू सब ठीक करके फिर से ऊपर चढ़ा दे ---"
"और ---उन्हें क्या दूँ ?" उस बेचारी ने सहमते हुए पूछा | उसे पता था कुछ न देने की स्थिति में वे ही हमसे कुछ लेकर नहीं वरन हमें गाली देकर जाएंगे |
"नहीं ,अब कुछ नहीं देना है ---" मैंने कठोरता से कहा और तैयार होने चल दी | वैसे ही मुझे देरी हो रही थी |
कंकु बेचारी लेकिन,पर,परन्तु करती रह गई लेकिन मैंने बिलकुल अनसुना कर दिया ,बाहर चिमटे बज रहे थे ---
"गजराज आए ,दर्शन कर लो --"भी सुनाई दे रहा था |
मैंने उनकी आवाज़ अनसुनी की ,मैं पहले ही खीजी हुई थी | जल्दी से तैयार होकर कंकु से कहकर मैं गेट से बाहर निकली | मेरा ऑटोरिक्शा आ चुका था और हॉर्न दे रहा था |
हाथी सोसाइटी में आगे बढ़ गया था,जिसके घर के बाहर वह खड़ा था ,अब वहाँ चकचक हो रही थी | मैं हैंडबैग संभालती हुई ऑटो में बिराजमान हो गई थी| रिक्षा मुड़ते ही न जाने कहाँ से पहलवान से गजराज सेवक मेरे सामने नमूदार हुए |
"ऐसा गजराज का श्राप लगेगा --जो कुछ भी है सब मिट्टी में मिल जाएगा --एक कंबल के पीछे गजराज का अपमान !"
मुझे और भी खीज आ गई ,मैंने रिक्शावाले से कहा कि वो जल्दी चलें | हद तो तब हो गई जब वो दोनों गजराज सेवक सड़क तक मेरे पीछे भागते हुए आए और मुझे सुन्दर-सुन्दर शब्दों से नवाज़ते रहे| मूड बिलकुल ख़राब हो चुका था | मन यही सोच रहा था कि क्या गजराज जी ऐसे ही वरदान व श्राप बाँटते फिरते हैं ?
मन से निकालो इस प्रकार की सोच ,
मन से जो कुछ करना है करो ,
मत करो किसीका संकोच !!
आप सबकी मित्र
डॉ. प्रणव भारती