संघर्ष - पार्ट 3
सचमुच, सबके सामने मानों बम ही फूट गया था... मेरी ऐसी हिमाकत के बारे में तो कोई सोंच भी नहीं सकता था! कुछ देर तक तो किसी की कुछ समझ में ही नहीं आया फिर मोहित के उस तमाचे का निशान मेरे गाल पर छप कर रह गया कि मैं अपने आँसुओं को रोक न सकी। दुःख हो रहा था कि इतना प्यार करने वाले पति को आज मैंने ऐसी जगह लाकर खड़ा कर दिया है कि उनको मुझपर हाथ तक उठाने पर मजबूर होना पड़ा है। फिर भी बिफरते हुए मैंने अपना तैयार किया हुआ डायलाग बोल ही दिया...
"ये शरीर मेरा अपना है, अतः जब मैं चाहूँगी, तभी बच्चे को जन्म दूँगी। मैं आज की औरत हूँ, आप मुझपर अपनी जोर जबर्दस्ती नहीं चला सकते!"
"तो फिर जाकर अपने घर में रहो, यहाँ तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है। क्या तुम जानती हो, वह बच्चा इस घर के लिए कितना जरूरी था?"
जानती थी कि इन क्षणों में मुझसे ऐसी ही बातें कही जाएँगी... अतः मेरा जवाब भी पहले से ही तैयार था।
'मैं अपने घर में ही हूँ। इतनी मूर्ख नहीं हूँ कि मुझे निकाल कर दूसरी शादी की योजना बनाना शुरू कर सको। कोई कानून तुम्हारा साथ नहीं देगा। मैं चाहूँ तो बर्बाद कर सकती हूँ तुम सबको! तुम्हें पता है, मेरी एक शिकायत पर शहर के सारे महिला संगठन तुम्हारे दरवाजे पर धरना देकर बैठ जाएँगे। अदालत भी पहले मेरी ही बात सुनेगी। कैसे सोचते हो कि मैं इतनी निरीह हूँ कि तुम मार-पीट कर घर से निकाल दोगे और मैं रो-धोकर निकल जाऊंगी?
इतने हतप्रभ थे वे लोग कि उन क्षणों में मुझे बेहद नापसंद करने के बावजूद, तुरंत तय ही नहीं कर सके कि अब उन्हें करना क्या चाहिए। फिर सबसे पहले मेरी सहेली कली को अस्वीकृत किया गया कि वह भी कहीं मेरी जैसी ही निरंकुश न हो! अब तो अलग-अलग माध्यमों से आए हुए अन्य रिश्ते भी रोहित भैया को डराने लगे कि पता नहीं कैसे स्वभाव की लड़की आ जाए।
उधर मैं सारी ताकत से मना रही थी... ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि किसी तरह रोहित भैया को मेरे कटु व्यवहार से उलट, ज्योति दी के व्यक्तित्व की वे सारी खासियतें याद आ जाएँ... उनका मुस्कुराते हुए सब की सेवा करना, वह मधुर व्यवहार, वह हर गलती को मुस्कुरा कर माफ कर देने वाला सोने जैसा मन... आखिर कब वे उनकी कमी को महसूस करने लगेंगें? मैं कब इतने बड़े नाटक से मुक्त हो सकूँगी? पर यहाँ तो सोंचने-समझने में ही दिन बीते जा रहे थे और मुझे डर लगने लगा था कि अगर समय ज्यादा लग गया और जो गर्भ के लक्षण मेरे शरीर में उभरने लगे तब तो मेरा सारा खेल ही बिगड़ जाएगा।
रोज की तरह उस दिन भी मैं ज्योति दी के घर में बैठी नन्ही नंदिनी के साथ खेल रही थी और क्योंकि उस दिन मुझे पकौड़े खाने की इच्छा थी, ज्योति दी किचन में खड़ी, पकौड़िया बना रही थी। पता नहीं क्यों, मन बेहद भारी था, तबीयत भी बिल्कुल ठीक नहीं लग रही थी और मैं अपनी सारी परेशानियों को किसी के साथ बाँटकर हल्की होने के लिए बेसब्री से मिसेज़ फर्नांडिस का इंतजार कर रही थी। उसी समय किसी ने दरवाजा खटखटाया तो मैंने जल्दी से उठ कर अपनी उस सखी के लिए दरवाजा खोल दिया। पर यह क्या? मैं तो रंगे हाथों पकड़ ली गई थी। मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई... घबराहट से पसीने छूट गए कि मुझे लगा जैसे मेरे इतने दिनों की सारी मेहनत व्यर्थ हो गई... मिसेज़ फर्नांडिस नहीं, यह तो मेरे सामने मेरे पति मोहित खड़े हुए थे! शायद चक्कर ही आ गया था मुझे पर उन्होंने संभाल लिया।
मेरा रोज घर के बाहर रहना, एकाएक इतना बदला हुआ व्यवहार... इन सबके अंदर किसी रहस्य की गंध तो मिली ही होगी जिसका पीछा करते-करते मोहित आज यहाँ तक आ गए थे। मुझे सँभाल कर बिस्तर पर बिठाते लिटाते, वह काफी कुछ समझ भी गए थे और जो नहीं समझे वह उनकी भाभी ने समझा दिया!
"बाकी सब तो ठीक है पर यूँ इबाॅर्शन करा लेना क्या ठीक था? जब सब कुछ पता चल ही गया था तब यह क्यों नहीं सोचा कि एक बच्चा उस पूरे घर के लिए कितना जरूरी है?"
उनके अंदर का दर्द और असली दुश्चिंता दोनों ही उनकी आवाज से छलक रही थी।
"वह सब भी झूठ था। वह नकली सर्टिफिकेट तो इसने मिसेज़ फर्नांडिस की मदद से प्राप्त किया था। जिसकी एक आहट के लिए मैं इतना तरसी हूँ, उस वरदान को क्या मैं इसे यूँ ही फेंक देने दे सकती थी?"
ज्योति दी मेरा सर अपनी गोदी में रखकर, सहलाते हुए बोल रही थीं। मैंने धीरे से आँखें खोलकर देखा... मोहित के दोनों हाथ ऊपर की ओर जुड़े हुए थे और उन पर सिर टिका कर, वह फूट-फूटकर रो पड़े थे। अब मैं खुश थी... अपनी जंग में अकेली जो नहीं थी।
समाप्त
मौलिक एवं स्वरचित
श्रुत कीर्ति अग्रवाल
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