Ananddham - anguish of Kunti in Hindi Short Stories by Arin Kumar Shukla books and stories PDF | आनंदधाम : कुंती की वेदना

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आनंदधाम : कुंती की वेदना

आनंदधाम

कुंती की वेदना

अरिन कुमार शुक्ला

दो शब्द

मैंने 15 वर्ष की आयु मे मानवीय करुणा की एक झलक को कलम की स्याही से उकेरने का प्रयास किया है। स्वाभाविक रूप से यह एक आदर्श या उत्तम कृति नहीं होगी लेकिन आपके मन को भाएगी इसकी आशा है।

- अरिन कुमार शुक्ल

भाग 1

एक जर्जर हो चुकी पुरानी हवेली। इसकी दीवारों की नक्काशी इसके बीते हुए स्वर्णकाल की याद दिलाती है। अभी कल ही को बात थी। ठाकुर अनुपचंद गाँव के सबसे धनी व्यक्ति थे। केवल लखिरपुर मे ही नहीं, आस पास के पाँच गाँव मे उनकी सैकड़ों एकड़ खेतिहर जमीन थी। घर मे दूध की नदियां बहती थी। ये सब हमेशा से ऐसा नहीं था। ठाकुर अनुपचन्द अनाथ थे। बगल के गाँव की ईटों की भट्टी मे मजदूरी करते थे। अपने मेहनत और लग्न के बल पर ये जमींदारी खड़ी की थी। खूब जतन और लगाव से बनाई थी ये कोठी। नाम रक्खा था ‘आनंदधाम’। अनुपचन्द की लुगाई थी कुंती। पतिव्रता, संस्कार और उत्साह का श्रेष्ठतम प्रतिमान। बड़े उत्साह से आनंदधाम के एक एक कोने को सजाया था उसने। उस ही के कहने पर अनुपचन्द ने काले पत्थर पर आनंदधाम गढ़वाया था। अनुपचन्द के दो बच्चे थे। एक का नाम जगदीशचंद और दूसरा विवेकचन्द। दोनों अनुशाशीत और सदस्वभावी थे। वक्त आने पर दोनों का विवाह हुआ।

आज अनुपचन्द को मरे छः साल हो गए। दोनों बेटों ने अपनी नई कोठियाँ बना ली है। लेकिन दोनों की जान अभी भी आनंदधाम मे ही अटकी थी। दोनों उसे अपना बना लेना चाहते थे। पाँच साल तो दोनों भाइयों को एक दूसरे से बात किए ही हो गए थे। कहिन दूसरा बुरा न माने इसलिए कुंती एक बेटे के साथ न रहती। वो अकेले की आनंदधाम की बेरंग हो चुकी दीवारों की ओट मे रहती। सप्ताह मे एक बार उसकी सखी अहिल्या जरूर उससे मिलने आ जाती। अहिल्या शहर मे वकालत करती थी। उसका ससुराल गाँव मे था सो यहीं रहती। शहर हफ्ते मे एक दो बार जाना हो जाता।

अब आनंदधाम मे वो रौनक नहीं बची थी। दीवारे बेरंग हो चुकी थी। मेजपोश धूल खाते जमीन पर पड़े थे। फूलदान अब खाली थे। बागीचे मे जंगली बेलों के सिवाय कुछ शेष न था। पिछले छः सालों मे कुंती ने खुद सजाई अपनी हर चीज़ अपनी आँखों के सामने बिखरते देखी थी। फूलदान, मेजपोश, मेज़े, बागीचे, परिवार। ऐसी ही एक बेरंग शाम कुंती आनंदधाम के अहाते मे बैठी थी। याद करती उन प्रेम भरे पलों को। तभी एक पुकार से उसकी तन्मय निडर टूटी। अहिल्या आई थी। “क्यूँ ठकुराइन आज अहाते मे सो रही हो ?” “ मै कहा सोई तो आनंदधाम की किस्मत है” “ दुखी न हो ठकुराइन, सब दिन फिरते है”

“ दिन ही तो फिर गए है, मेरे ही बेटे मेरी मौत की राह ताक रहें हैं।“ अहिल्या ने ढांढस बँधाया “ वो अपना किया भोगेंगे, तुम मजबूत रहो शायद अभी आनंदधाम को और बुरे दिन देखने है।“

भाग 2

“ ये बुढिया कब पीछा छोड़ेगी। लगता है कोई खजाना गाड़ रक्खा है उस खंडहर मे” जगदीशचंद अपनी पत्नी का ताना सुन भी चुप रह गया। आनंदधाम की कीमत लाखों मे थी। कोई भी उसे जाने नहीं देना चाहता था।“ जो देख आओ मरी की नहीं” जगदीश आनंदधाम पहुंचा। एक नजर मोहित हो आनंदधाम को निहारा। तभी कुंती की आवाज आई “ कौन है” “ मै हूँ अम्मा जगदीश” “ आज यहाँ ?”

“ बस तेरी याद सता रही थी तो सोचा मिल आऊँ।“

तभी एक और आदमी आनंदधाम मे घुस। “ विवेक?”

“ मै जा रहा हूँ माँ “ जगदीश चल दिया।

वो क्या समा था। कुंती रह रह कंप जाती थी। जो दो बच्चे उसकी गोद मे खेला करते थे आज एक दूसरे का मुँह भी नहीं देखना चाहते। बचपन मे जो उसके आँचल के लिए लड़ते थे वो आज एक मकान के लिए एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए थे। धिक्कार ऐसे महलों पर जो रिश्तों की बली लें। कुंती ने मन ही मन कुछ निर्णय कर लिया।

जगदीश घर पहुंचा। अभी हुक्का मुह मे दबाया ही था की सामने क्या देखता है। विवेक आया था। इत्ते सालों बाद। जगदीश हैरत मे पद गया। विवेक आकार जगदीश के बगल मे बैठ गया। बोला- भाई अब हमे ये मामला सुलझा देना चाहिए। कब तक इस बोझ को ढोएनगे। कहिन बुधिया आनंदधाम उस अहिल्या के नाम न लिख दे। चलिए दोनों लोग अपने नाम पर सांझे मे करवा ले आनंदधाम। फिर किसी को बेच के आधा आधा पैसा बाँट लेंगे।

बात तो तू ठीक कह रहा है विवेक। अब लड़ने की कोई गरज नहीं। कल सुबह ही लिखवा लेंगे अम्मा से आनंदधाम। बात जाम गई। पैसे के आगे पहले रिश्ते हारे थे अब दुश्मनी हार गई। कागज बन गए, मिठाई खरीद ली गई, अब बस एक हस्ताक्षर की देर थी।

अगले दिन दोनो भाई अलसुबह आनंदधाम जा पहुंचे। पर क्या देखते है? कुंती की लाश जमीन पर कफन मे बंधी पड़ी है। और आस पास की औरतें बैठी शोक मन रहीं है। कुंती चली गई थी। अपने उस आनंदधाम के बोझ के नीचे मरकर। जगदीश के मुह से अनायास ही निकल पड़ा- अम्मा! तभी विवेक बोल उठा – अरे शांत हो जाइए अब तो सीधे आनंदधाम हमारा हुआ। जगदीश थोड़ा सम्हला।

कुंती की चिता को आग लगी। अहिल्या आँसू लिए चित को निहार रही थी। तभी विवेकचन्द उसके पास आया और पूछा- आप तो वकील है और अम्मा की घनिष्ट सहेली भी। आनंदधाम का मामला आप ही क्यूँ नहीं देख लेती? कैसा मामला? अहिल्या बोल उठी। आनंदधाम को हम दोनों के नाम करने का मामला। लेकिन कुंती ने तो आनंदधाम को अनाथाश्रम को दान कर दिया है।

सन्नाटा खींच गया। आहें फुट पड़ी। अब कपूतों की आँखों मे भी आँसू थे।