काव्य संकलन
सचमुच तुम ईश्वर हो ! 7
रामगोपाल भावुक
पता- कमलेश्वर कालोनी (डबरा)
भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110
मो0 09425715707
व्यंग्य ही क्यों
व्यंग्य ऐसी विधा है जो महाभारत के युद्ध का कारक बनी- द्रोपदी का यह कहना कि अन्धे के अन्धे होते हैं, इस बात ने इतना भीषण नर संहार करा दिया कि आज तक हम उस युद्ध को भूल नहीं पाये हैं।
इससे यह निश्चिय हो जाता है कि व्यंग्य ही एक ऐसी विधा है जो आदमी को सोचने क लिए विवश कर देती है। उसके प्रहार से आदमी ऊपर की हॅँसी मे तो हॅँसने लगता है, किन्तु अंदर ही अंदर उसकी आत्मग्लानी उसे सोचने को मजबूर कर देती है।
व्यंग्य की तेजधर उच्छंखल समाज की शल्य-क्रिया करने में समर्थ होती है। आज के दूषित वातावरण में यहाँ संवेदना मृत प्रायः हो रही है। केवल व्यंग्य पर ही मेरा विश्वास टिक पा रहा है कि कहीं कुछ परिवर्तन आ सकता है तो केवल व्यंग्य ही समाज को संतुलित रख सकता है।
सचमुच तुम ईश्वर हो! काव्य संकलन में कुछ रचनायें चिन्तन परक एवं विरारोत्तेजक भी हैं। उनमें भी व्यग्य की आभा महसूस होगी।
दिनांक-19.02.2021 रामगोपाल भावुक
नहीं मिटेंगे कभी विकार
चेहरे पर दिखती कंगाली।
भीख माँगने झोली डाली।
आज पूर्ति कल फिर खाली।
रहेगी उनकी वही पुकार।
नहीं मिटेंगे कभी विकार।।
दिन दूने और रात चैगुने।
चाहें बढ़ावे कई सौगुने।
मुँह में राम बगल में छुरियाँ।
नैतिकता अधरों की दुनियाँ।
रहेगी उनकी वही डकार।
नहीं मिटेंगे कभी विकार।।
सारा जग सम्मानकरै।
मन में एकही ध्यान धरै
विख्यात जगत में नाम पड़े।
कर्मों से वह नहीं अड़े।
कर्म बने अब बड़े उदार।
नहीं मिटेंगे कभी विकार।।
धन की कमी न आने पावे।
चाहे नैतिकता झुलसावे।
घृणा द्वेष से भाव भरे हों
मृग तृष्णा से होड करे हों।
समझें सब इनको बड़े बिचार।
नहीं मिटेंगे कभी विकार।।
000
बे- मौत ना मरेंगे।
अब तो हम सड़क के मध्य में चलेंगे।
अपनी प्रगति के लिये जी जान से लड़ेंगे।
फुटपाथ पर चलने का चलन पुराना है।
बाये हाथ चलकर बे मौत ना मरेंगे।।
सत्ता के त्याग की बातें पुरानी हैं।
अब तो हम गुड़ में माखी से सनेंगे।
अस्थिदान की होंगीं किसी दधीच ने।
ऐसे आलेखों पर विश्वास ना करेंगे।
जन तंत्र में चयन की मौलिक रचनायें।
राजनीति के अस्त्रों से ध्वस्त करेंगे।
भावुक जन जीवन की हम दर्दी पाने।
झूठ के आँसू पलकों पर लेपन करेंगे।।
000
गूँगे लोग
तिल- तिल कर जलते रहे गूँगे लोग।
पग- पग पर सहते रहे गूँगे लोग।।
कभी अंगार बन दहकने लगे तो।
रात भर खटकते रहे गूँगे लोग।।
चेतना के नाम से देते हो दुहाई।
भूखे दम तोड़ते रहे गूँगे लोग।।
धर्म की ओट में ठगे जाते रहे।
घुट-घुट कर जीते रहे गूँगे लोग।।
शीशा पिलाते रहे वे कानों में।
भोर तक तड़पते रहे गूँगे लोग।।
वे इशारों पर नाचते रहे यों,
बहरे बन सुनते रहे गूँगे लोग।।
000
होरी की उचंग
होरी में लेत मन ऐसें उचंग।
दिखावे के चलन से हो गओ है तंग।।
बेड़ियों को तोड़ने बढ़ रहे हैं लोग।
फागुनी बयार में छिड़ गई है जंग।।
स्त रंगे गुलाल की हमको तलाश है।
सातों स्वर गूँज उठें चढ़ रही है भंग।।
ऊपर से नीचे तक बदलने की बात है।
जन जीवन में ना रहे कोई भदरंग।।
बूढ़े और बुढ़ियों ने मिल मनाई होरी।
स्ंाकोच के आँगन में दब गई तरंग।।
भावुक की लेती बेदना विराम।
जब होरी में होता बौराया संग।।
000
माँ बाप की बेदना
वे लक्ष्मण रेखाये लाँघते रहे।
हिमालय से ऊँचा मानते रहे।
नमन कों किसी ने निहारा नहीं,
अह्म की गठरियाँ बाँधते रहे।
कौन करै राखी के धागे की पहल?
तू तू मैं मैं मनों में पालते रहे।
बूढ़े माँ- बाप की वेेदना बस यही।
बैर भाव के मलिन द्वार साजते रहे।
दफन हो रहीं भ्रातृ भावनायें,
संवेदना के स्वरों को नापते रहे।
चिन्तन है जिनका दोष दर्शन में
उनके घृणा द्वेष के बाजे बाजते रहे।
जिनके पग बढ़ेंगे मिलन कें लिये,
भावुक भावना भावों पै बारते रहे।।
000
घृणा द्वेष की चैसर
घृणा द्वेष की चैसर बिछाकर रहेंगे।
दुर्भावना का अम्बर ओढ़ाकर रहेंगे।
श्रद्धा- विश्वास सभी मन गढ़ंत हैं,
मन्दिरों-मस्जिदों को लड़ाकर रहेंगे।।
नहीं रह गया विश्वसनीय चिन्तन मनन।
चेतना की बाती बुझाकर रहेंगे।
फूँस सी जल रही है भ्रातृ भावनायें,
संवेदना के स्वर दफना कर रहेंगे।।
अजायबघरों से होगी शहीदी शहादत।
शिवा राणा की गठरी बँधाकर रहेंगे।
सतत् सींचते रहे विकारों की फसल।
पता नहीं कौन सा चलन चलाकर रहोगे।
जन जन की परिभाषायें हैं बलिदानों की
भावुक को कुभावों का भाव शिखा कर रहेंगे।।
000
विषधरों का डेरा
हम घर छोड़कर कहाँ जायें।
चैन की नींद कहाँ सो पायें।
घर के हर काने में
विषधरों ने अपना
डेरा डाल लिया है।
उनके घर में रहते-
हर पल प्राणों का भय बना रहता हैं।
आदमी दिन-रात सकते में रहता है।
व्यवस्था की नस- नस में
आतंक बसा है।
पता नहीं उन्हें ये कौन सा नशा है।
अब तो विषधर
हर शहर के कगूंरे
ढहाने लगे हैं।
धुंधली सी रोशनी जो
स्वतंत्रता के बाद आई थी।
उसे कैद करने में लगे हैं।
उन आतंकियों को सभी तरह से
समझा बुझा कर देख लिया।
वे मानने वाले नहीं हैं।
उनका अपना धर्म ही सही है।
समझ नहींे आता
उनका ये घर्म कैसा है?
जो मानवता का गला काटता है।
अपने उस कर्म को सत् मानता है।
हम सोचते हैं।
इन्हें कभी न कभी
सामझ जरूर आयेगी।
घर के हर कोने को राहत दिलायेगी।
000
आतंकवादी शिकारी
मानवतावादी संगठनों के,
विचार सुन सामझकर,
जंगल के सभी वन्यप्राणियों ने
आतंकवादी शिकारियों को
आगाह किया-
जब तक हमारे शिकार करने के
इरादे का तुम
त्याग नहीं करोगे।
कथनी और करनी में
अन्तर रखोगे।
तब तक हमारा ये आन्दोलन
चलता ही रहेगा।
अब हम निरीह प्राणी
अपने अबोध शिशुओं की हत्या
बर्दास्त नहीं करेंगे।
विश्व समुदाय के समक्ष
इस आन्दोलन को
और अधिक सार्थक बनायेंगे।
मानवीय आंतकवाद से
पूरी तरह मुक्ति पायेंगे।
अब उन्हें भी स्वीकार करना होगा,
वे भी बैसे ही अतंकवादी है।
जो जिहाद के नाम पर
जन मानस को भ्रमित कर रहे हैं।
उनमें और इनमें कोई अन्तर नहीं है।
अब आप
यदि विश्व से आतंकवाद
मिटाना चाहती है।
तो सबसे पहले
आपको अपने इन शिकारियों के
अन्तस् में बसे
आतंक वाद को
समाप्त करना होगा।
विश्व को दया, अहिंसा
सौहार्द के वातावरण से
भरना होगा।
0000
एक नई इमारत
बडा विकाश हुआ।
बड़े- बड़े कारखाने लगे।
यूनियन कार्बोहाड्रड की
कीट नाशाक दवायें,
मच्छरों की तरह
ढाई हजार लोगों को मार कर
रिकार्ड कायम किया है।
सेवा का अनूठा वृत लिया है।
प्रदेश की जनता ने
इसके बदले
अपना अमूल्य मत देकर
गंगा स्नान कराया है।
अपने मत खूब मूल्य बढ़ाया है।
अब तो खटमल
रजत जयन्ती माना रहे है।
उन्होंने अनेक परकोंटों में
सुरक्षित रहनेवाली का,
उन परकोटों ने ही खून पिया हैं।
वे भी क्या करतीं
उनके आसपास खटमल पनपते रहे।
उनका खून पीने की योजना बनाते रहे।
वे इतनी संवेदनहीन हो गईं थीं कि
अपनी ही सीमाओं में
पनप रहीं घटनाओं को
महसूस करने में सक्षम नहीं थीं।
इसीलिये वे पूनियन कार्वाइड की तरह
अपने आसपास
कोई कारखाना नहीं लगाा पाईं।
और ऐसे विकाश के क्रम में
उन्होंने अपनी जान गमाई।
उनकी कब्र पर नींव रखकर
आगे बढ़ने के लिये
एक नई इमारत बनाई थी-
विपक्ष विहीन संसद।
जो अपनों के सारे सपने
साकार करने में
पूर्ण सक्षम होगी।
000