काव्य संकलन
सचमुच तुम ईश्वर हो! 4
रामगोपाल भावुक
पता- कमलेश्वर कालोनी (डबरा)
भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110
मो0 09425715707
व्यंग्य ही क्यों
व्यंग्य ऐसी विधा है जो महाभारत के युद्ध का कारक बनी- द्रोपदी का यह कहना कि अन्धे के अन्धे होते हैं, इस बात ने इतना भीषण नर संहार करा दिया कि आज तक हम उस युद्ध को भूल नहीं पाये हैं।
इससे यह निश्चिय हो जाता है कि व्यंग्य ही एक ऐसी विधा है जो आदमी को सोचने क लिए विवश कर देती है। उसके प्रहार से आदमी ऊपर की हॅँसी मे तो हॅँसने लगता है, किन्तु अंदर ही अंदर उसकी आत्मग्लानी उसे सोचने को मजबूर कर देती है।
व्यंग्य की तेजधर उच्छंखल समाज की शल्य-क्रिया करने में समर्थ होती है। आज के दूषित वातावरण में यहाँ संवेदना मृत प्रायः हो रही है। केवल व्यंग्य पर ही मेरा विश्वास टिक पा रहा है कि कहीं कुछ परिवर्तन आ सकता है तो केवल व्यंग्य ही समाज को संतुलित रख सकता है।
सचमुच तुम ईश्वर हो! काव्य संकलन में कुछ रचनायें चिन्तन परक एवं विरारोत्तेजक भी हैं। उनमें भी व्यग्य की आभा महसूस होगी।
दिनांक-19.02.2021 रामगोपाल भावुक
मजदूर की तान
डेल खेत में,
चिड़ियाँ तलाशती मोती।
स्वाँति के जल का सीपी।
फसल काटते मजदूर की तान।
मिली हो ज्यों सोने की खदान।।
आसमान में चड़ता सूरज।
बाँधकर धीरज,
दोपहरी का अस्तित्व।
पसीने का व्यक्तित्व।
ढलती शाम,
पके हुए आम।
सभी कुछ समाविष्ट है
श्रमिक के श्रम में।
वह अभिभावक है।
चिरसत्य के निर्माण का।
जमीन की उस सतह का
जिसमें आदमी का रक्त
तेजी से प्रभाहित होता है,
वह शक्ति है-
उस मजदूर की तान में।
000
लोग बुरी तरह ऊब गये हैं।
जब जब पश्चाताप की
आग में जलकर निकला हूँ।
आत्मग्लानि की तपन से उबरा हूँ।
ईसा का सिद्धन्त मन को छू जाता है।
नानक से सीखता हूँ श्रम का मूल्य।
इससे थाली में परोसीं गईं रोटियाँ
लहुलुहान नहीं लगतीं।
महावीर और बुद्ध
अहिंसा का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
राम और रहीम सारे चराचर में बसते हैं।
कभी कभी लगता है-
इन सभी का दर्षन
आपस में लड़ाने वाला ही रहा होगा।
तभी तो लोग लड़ते हैं।
झगड़ते हैं।
..........और
इस लडाई- झगड़े के बाद
राम लहुलुहान दिखते हैं।
रहीम कयामत के दिन तक के लिए
गहरी नींद में सो गये हैं।
ईसा निराशा के गर्त में डूब गये हैं।
और लोग नानक की बातें रट रट कर
बुरी तरह ऊब गये हैं।
000
मँ ममता दे।
माँ किसी किसी को तंू
ठूँस ठूँस कर सौ- सौ वार खिलाती है।
और किसी को भूँखा रोज सुलाती है।
नहीं- नहीं तूँ तो सब को प्यार जताती है।
पर भैया का पेट बड़ गया है।
बार- बार खाने पर भी भूखा रह गया है।
सोच रहा हूँ-खाने दूँ उसको,
आखिर भैया है।
मेरी कोई बात नहीं है।
मैं तो भूखा सो सकता हूँ।
बिन खाये जीवन ढो सकता हूँ।
माँ तंू तो उसकों ही पूरी ममता दे।
वह बेचारा तृणा का मारा
उसने अपने हाथों से ही
अपना बाग उजारा है।
मैं तो युग-युुग से
उसकी ओर निहार रहा हूँ।
कब उसका पेट भरेगा।
मेरी खातिर
कब उसका प्यार जगेगा।
कब अपने भइया को
गले लगायेगा।
सौ बार नहीं बस एक बार
इस भैया की भूख मिटायेगा।
माँ तंू तो ममता दे।
सारे पुत्रों को समता दे।
000
पसीने की कमाई।
मैं लगा जी तोड़ श्रम से,
अर्थ आँगन को बुहारने।
पग- पग पर हारने।
इसी उधेडबुन में,
जिन्दगी का अधिकांश भाग निकल गया।
मैं पूरी तरह थक गया।
पर कोई किरण नहीं दिखी।
निराशा छा गई।
अव्यवस्था सारे श्रम को खा गई।
फिर गुना,
दोष किसका था।-
उसके ईमानदारी से
किये गये श्रम का।
नहीं- नहीं व्यवस्था का।
जो बस गरीबों को छल रही है।
पूँजी से पूँजी बढ़ रही है।
श्रम तिजोरियों में कैद
होता जा रहा है।
रोशनी को अंधेरा खा रहा है।
न्याय,, नीति
सभी अर्थ के गुलाम हो गये हैं।
उसी की परवरिश करते हैं।
दण्ड देते हैं-
नीति को, न्याय को।
क्योंकि वह तो विधि का मुखोटा
बदलने में माहिर होता है।
... और वह दण्ड से छुटकारा पाने
फड़फड़ाता है।
आत्म विश्वास बटोर
कड़क बन जाता है।
वह उठ खड़ा होता है।
शोषकों से जूझने।
सहे गये अत्याचारों का
हिसाब पूछने।
उस समय उसकी
धड़कन की आहट
सुन सको तो सुनों।
व्यवस्था से त्रस्त आदमी
तुम्हारे पास आ रहा है।
भीख माँगने नहीं,
अपना हक छीनने।
पसीने की कमाई बीनने।।
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सच्चा प्रजातंत्र
जो रोटी नहीं जुटा पाता।
बदन को कपड़ों से नहीं ढक पाता।
क्या चुनाव लड़ पायेगा?
लाखों रुपये चुनाव के नाम पर
खर्च कर पायेगा।
रोटी और रोजी का हल पायेगा।
क्या प्रतिनिधित्व करेगा?
वह आम जनता का।
जिसने लाखों रुपये खर्च कर
चुनाव जीता है।
यह सम्भव नहीं लग रहा है
तो क्यों चुना जा रहा है।
यह तो पास्टरों की कीमत
बसूलने का इरादा नजर आ रहा है।
समाजवाद के नारों के घेरे में
पूँजीवाद बढ़ता नजर आ रहा है।
यह व्यवस्था आम आदमी की नहीं
चंद पूजीवादी लोगों का तंत्र,
एक ही मंत्र
सत्ता पाने का एक ही यंत्र
बोट, खरीदा जा रहा है।
जब सत्ता का त्याग,
आत्मबलिदान और श्रम
सत्ता पायेगा।
सच्चा प्रजातंत्र आयेगा।
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