काव्य संकलन
सचमुच तुम ईश्वर हो! 3
रामगोपाल भावुक
पता- कमलेश्वर कालोनी (डबरा)
भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110
मो0 09425715707
व्यंग्य ही क्यों
व्यंग्य ऐसी विधा है जो महाभारत के युद्ध का कारक बनी- द्रोपदी का यह कहना कि अन्धे के अन्धे होते हैं, इस बात ने इतना भीषण नर संहार करा दिया कि आज तक हम उस युद्ध को भूल नहीं पाये हैं।
इससे यह निश्चिय हो जाता है कि व्यंग्य ही एक ऐसी विधा है जो आदमी को सोचने क लिए विवश कर देती है। उसके प्रहार से आदमी ऊपर की हॅँसी मे तो हॅँसने लगता है, किन्तु अंदर ही अंदर उसकी आत्मग्लानी उसे सोचने को मजबूर कर देती है।
व्यंग्य की तेजधर उच्छंखल समाज की शल्य-क्रिया करने में समर्थ होती है। आज के दूषित वातावरण में यहाँ संवेदना मृत प्रायः हो रही है। केवल व्यंग्य पर ही मेरा विश्वास टिक पा रहा है कि कहीं कुछ परिवर्तन आ सकता है तो केवल व्यंग्य ही समाज को संतुलित रख सकता है।
सचमुच तुम ईश्वर हो! काव्य संकलन में कुछ रचनायें चिन्तन परक एवं विरारोत्तेजक भी हैं। उनमें भी व्यग्य की आभा महसूस होगी।
दिनांक-19.02.2021 रामगोपाल भावुक
लक्ष्य से भटका आदमी
मुझे कभी नहीं लगा-
यह गणतंत्र दिवस
या स्वतंत्रता दिवस सा
कोई महान त्योहार गुजर गया।
अरे! जो मन को न छू पाये,
वह बात भी कोई बात है।
ये स्वतंत्रता के पूर्व की सी,
उदासी क्यों बढ़ी है।
कहीं ऐसा तो नहीं-
स्वतंत्रता के नाम से परतंत्रता गढ़ी है।
गांधी की चेतना
हजारों गणतंत्र मनाकर लाई जाये।
ये सम्भव नहीं लगता।
उस समय रेडियो, टेलाविजन,
ये ढ़ेर सारी पत्र- पत्रिकायें न थीं।
तो भी आदमी का मन बदलने में,
देर न लगी थी।
ये गाँन्धी का काल नहीं है।
ये उनसे चिपकी
जौंको का काल है।
अब तो इस परम्परा में
बहुतों ने जन्म ले लिया है।
अब तो बहुमत से गाँंधी का
निर्णय होता है।
अन्तरिक्ष की बातें
इलेक्ट्रोनिक्स के ख्वाब
जन मानस को भ्रमित करने के लिये
तो पर्याप्त हैं।
पर ये साम्प्रदायक एकता,
देश की अखण्डता का हल नहीं है।
इनके पास आदमी का कोई
व्याकरण नहीं है।
फिर भी ये एक नया
व्याकरण बना रहे है।
और इक्कीसवीं सदी
आराम से बिता रहे हैं।
000
विद्रोह का शोर
भूख से तड़पते रहना।
पड़प- तड़प कर
दम तोड़ देना।
गरीबों को इसके शिवा
कोई चारा नहीं है।
उनमें अमीरों का कोई
बेचारा नहीं है।
उनकी दृष्टि में
भूख से मरने वाला
कामचोर था।ं
जमाखोरों के प्रति
उसके हृदय में विद्रोह का शोर था।
मरने के वाद अमीरों में चन्दा हुआ।
कफन मँगाने के लिये,
गरीबों की हमदर्दी
पाने के लिये।
000
विद्रोही कहलाने
नई नई बातों से
परम्पराओं पै घातों से
बच्चों के मुख से
तोतली भाषा में
दर्शन से गहरी
बातें कराकर
विद्रोही बन गया हूँ।
कविता लिख रहा हूँ।।
दूल्हे को दुल्हन की
चूनरी ओढ़ाकर
कहानी गढ़ रहा हूँ।
बूढ़ों से बचपन की
बातें कराकर
रोटी से अट्टा
पानी से पप्पा कहला रहा हूँ।
कविता लिख रहा हूँ।
अंधेरे पथों में
रोशनी लाने
सितारों की चमक से
भरमा रहा हूँ।
तप्त सूरज की जगह पर
चाँद ला रहा हूँ।
कवि बन गया हूँ।
कविता लिख रहा हूँ।।
दीन हीनों की झोपड़ी में
दीपक जलाकर
धन कुवेरों की आँखों में
किरकिरा रहा हूँ।
अंधेरे कमरे में
अपने प्रकाशन का
सेहरा बाँधाकर
व्याहकर रहा हूँ।
कविता लिख रहा हूँ।
अंधेरे कमरे में
अकेला अकेला
नंगे बदन हो।
मर्यादा की परिभाषा
विद्रोही कहलाने
मैं गढ़ रहा हूँ।
खुद को छल रहा हूँ।
कविता लिख रहा हूँ।
कम्प्यूटर के सहारे
काले नीले अक्षरों से
वामन का पीक्षा
मैं कर रहा हूँ।
भागा जा रहा है,
मैं हूँ शिकारी
मन्दिर के अन्दर तक पछिया रहा हूँ।
पुजारी बन रहा हूँ।
कविता लिख रहा हूँ।
000
महासमर
सोचता हूँ-
कल भोर होते ही
श्री राम की अयोध्या में,
महासमर छिड़ जायेंगा।
जिसमें होगी महाभारत सी तबाही।
आदमी आदमी के अस्तित्व का
प्रश्न चिन्ह बनकर
लूटेगा ये कैसी वाह- वाही!
इन्सानियत को
बलि का बकरा बनाकर,
सारा का सारा शैलाव
महाप्रलय का रूप धारण कर लेगा।
मौत को वरण करने
आमने-सामने खड़ा होगा।
फिर कहाँ रहेंगे?
इस धरा पर राम और रहीम,
नानक और ईसा
सोचता हूँ-
गरीब और अमीर की खाई,
और अधिक बढ़ जायेगी।
आरक्षण का प्रश्न
कर रहा है सबाल।
आरक्षण को जातियों के
दल दल से निकाल,
भूख और प्यास से जोड़।
मन को मोड
राम और रहीम को रहने दे साथ।़
मत चला हाथ।
वापस लौट आ।
मान ले मन्दिर बन गया
और मस्जिद भी नहीं टूटी।
अच्छा रहा
रहीम का दिल टूटने से बच गया।
तुझे आ गई दया
महावीर और बुद्ध पर।।
सोचता हूँ-
सत्ता के गलियारे में
जिनने सांविधान की
सपथ खाई है।
अब उसकी कीमत
चुकाने की बारी आई है।
इस संकट की घड़ी में-
अपने आप को बचाने के लिये
अपनी नाव
विपरीत दिशा में खे रहे हैं।
अपने आप को बचाने के लिये
दर्शन का सहरा ले रहे हैं।
सोचता हूँ-
माक्र्स और गांधी की तरह
तुम भी चुन रहे हो कोई नई राह
अरे! तुमने तो
कहीं कुछ नया मोड़ने का
संकल्प जो लिया है।
किन्तु यह तो घृणा और द्वेष का ठिया है।
इस सब के बाद भी-
हमें आशा की डोर से
बंधे रहना चाहिए।
सारे प्याउ
दिन- रात चलते रहना चाहिए।
सोचता हूँ-
इस बटवारे की लड़ाई का
तत्क्षण समन होना चाहिए।
नही ंतो यह नासूर
पता नहीं कितने
हिन्दुस्तानों का निर्माण करेगा।
नया महाभारत रचेगा।
सोचता हूँ-
प्रश्न और उत्तरों का
यह शिलशिला
कभी थमने वाला नहीं है।
बस एकता की राह ही सही है।
000
है कोई उत्तर तुम्हारे पास
मैं शकील खान
अरे! आप मुझे नहीं पहिचान पाये।
मैं वही आपका शकील,
जो तुम्हारे लगाये
आरोपों के कारण
प्रायमरी शिक्षक के
डण्डों की मार सहता रहा।
बाद में-
पता नहीं कौन-सा स्वार्थ था,
जिसके कारण तुमने मुझे
अपना मित्र बना लिया।
मैं आपकी मित्रता पाकर कृतार्थ था।
आपकी दोस्ती के लिये कुर्वान था।
छात्र आन्दोलन के समय
तुम्हारी अस्मिता के लिये
अपनी जान की बाजी लगा देनी चाही।
पुलिस ने धर दबोचा
ऐसा पिटा कि जब-जब
बिजली चमकती है।
बादल गरजते हैं।
मेरे नग- नग में चमक हो उठती है।
पुलिस ने ही मुझे पहचान कराई थी
ओसामा बिन लादेन के नाम से,
मेरा नाम जोड़कर।
भारतीय संसद पर हमला करने वाले
अफजल गुरू से
मेरी खास रिस्तेदारी निकालकर।
मुझे लगा- यों मुझे
मेरे अपने गाँव का नहीं रहने दिया।
मुझे अंतर्राष्टीªय बना दिया।
इसके पहले
मैंने इन सबके
नाम भी नहीं सुने थे।
मुझे ऐसे कामों से घृणा थी।
सच्चा भारतीय कहलाने का
मुझे जुनून सबार था।
पर यह क्या बना?
मुूझे पोटा में धर दबोचा
जेल पहुँच गया।
वहाँ विना प्रयास के
जेल के अन्दर
उन लोगों से मुलाकात हुई,
जिनके नाम पर
मुझे धर दबोचा गया था।
वे दम दिलासा देकर
जिहाद के नाम पर
मर मिटने के उसूल भर कर
पीठ थपथपा गये।
गरीबों का सच्चा
हमदर्द इन्सान बतला गये।
राजनीति बदली।
मंत्री, प्रधानमंत्री बदले।
पोटा रद्द हुआ।
मुझे जेल से बाइज्जत शब्द लगाकर
रिहा कर दिया गया।
जब जेल से बाहर निकला
मेरा स्वागत करने वालों में
वे ही चेहरे सामने थे।
जो जेल में मुझ से मिलने आये थे।
उन्होंने जिहाद के
अनगिनत शब्द मुझे रटाये।
मुझे यहाँ किसनें पहुँचाया।
है कोई उत्तर तुम्हारे पास।।
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