कविता की ओर कुछ कदम के आइने में
रमाशंकर राय जी का व्यक्तित्व
रामगोपाल भावुक
मो0 9425715707
समर्पण में ही साहित्य के उन संवेदनशील पाठकों को, जो आज कविता की जरूरत महसूस करते हैं। राय जी कविता को जीवन के लिये आवश्यक मानते रहे हैं। आपको वे लोग अतिप्रिय लगते हैं जो मन बचन और कर्म से एक रहे हो। वे ऐसें ही लोगों की तलाश जीवन भर करते रहे।
आत्मकथ्य में वे मानते है कि प्रकृति ने मुझे कवि हृदय तो दिया है, पर मेरे पास काव्य कौशल का अभाव है क्योंकि कौशल तो श्रम और अभ्यास से अर्जित करना पड़ता है। मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि मेरे जीवन में श्रम और अम्यास का अभाव रहा है। यह बात उनके काव्य संकलन में स्पष्ट दिखाई देती है। उसमें जितनी स्वाभाविकता रह सकती है उन्होंने उसे बैसा ही रहने दिया है क्योंकि कविता हमारी आहत संवेदना की आवाज है। कवि का काम इसे शब्द बद्ध करना है।
यह संग्रह कविता की ओर कुछ कदम बढ़ने की कोशिश मात्र है। संकलन में इकहत्तर कवितायें समाहित हैं। अधिकांश रचनाओं में वे आदमी की तलाश करते हुए दिखाई देते हैं।
युगदृष्टा हूँ में- हम सुधा बाँटते औरों को, पर खुद तो गरल पिया करते हैं।
वे जैसी वेशभूषा में दिखते थे अन्दर से भी वे बैसे ही थे। वे कथनी और करनी में भेद दृष्टि रखने वाले नहीं थे। जो जैसा सोचता है उसका लेखन बैसा ही वयां करता है। उनका दृष्टि कोण अन्याय को मिटाने की खातिर- हम दधीचि के वंशज हैं।, जो अन्याय को मिटाने की खातिर, अपनी हड्डी का दान दिया करते हैं।
लगता है सब के सब, बाजार में खड़े हैं।, कोई अपना घर्म बेच रहा है कोई ईमान। कोई देश भक्ति बेच रहा है, कोई जनसेवा और सम्मान। कोई कलम और , कोई कलाम। मैं शर्मिन्दा हूँ, अपने समय के इतिहास पर, जो अपराधियों के नाम कर दिया गया है।
आपकी अधिकांश रचनायें इन्हीं भवभूमि से सराबोर दिखाई देतीं हैं। वे संवेदना के स्वरों को अनसुना नहीं करना चाहते। वक्त का पहरा न था में वे मानते हैं कि मैं इतना अधिक बहरा न था।
बात अगर मन्दिर ,मस्जिद और मजहब की होती तो कवि की कलम मौन ही रहती। वे मानते है कि यह बात तो माथे से पुछे सिन्दूर एवं भारत माता के मानचित्र पर टंगी खूनी तस्वीरों की है, उन वीरों की है जो देश की खातिर शहीद हो गये हैं। इसलिये वे कहते हैं कि भारतमाता को टुकड़ों में मत बांटो क्योंकि मानवता की पुस्तक में ये खूनी पन्ने ही जोड़ोगे फिर मन्दिर, मस्जिद कहाँ रहेंगे।
आदमी आज का सिर्फ औरों की बातों का ही उद्धरण बन कर रह गया है। युग के नये बुद्ध में कवि ने दलित चेतना के प्रतीक नये बुद्ध को मनुस्मृति के पन्ने फाड़ दिये तुमने। तुम तो जातिवाद के कठिन रोग से ग्रस्त देश को सही निदान बताने आये थे और हमें स्वभिमान का पाठ पढ़ाकर गये हो।
श्रद्धेय रायजी से एकलव्य पर गहन चर्चायें होतीं रहतीं थी। बात उन दिनों की है जब मैं अपने उपन्यास एकलव्य का लेखन कार्य कर रहा था। मैंने उनसे इस विषय पर खण्डकाव्य लिखने का आग्रह किया था किन्तु उन्होंनें उस समय इस कविता को जन्म दिया था- एकलव्य का कटा अंगूठा।
धनुर्वेद के युगाचार्य का
ऐसा घोर पतन
सामंती स्वार्थें का,
ऐसा घोर जतन
विद्यादान नहीं पा सकता है,
राधेयकर्ण।
वीरता से बढ़कर,
हो गया बर्ण
राजाश्रय में पले गुरु का,
ऐसा घोर पतन।
कवि इस रचना में व्यास जी से भी प्रश्न करने में नहीं चूके हैं।
और एक प्रश्न है,
महाप्राज्ञ,उस महा व्यास से
अपनी सन्तानों के इस विनाश के पीछे
मुनिवर, नहीं दीखता था,कहीं आपको?
लाल खून से लथपथ,
धरती के बेटे, उस एकलव्य का कटा अंगुठा।
उन्होंने इस रचना का अन्त वर्तमान परिवेश से प्रश्न करते हुए किया है-
जन जीवन ,शकुनी के पाँसों को आज भी विजयी बना रहा है तथा चीर हरण करने वाले हाथों की संख्या बढ़ रही है। आज मिलने वाले स्वर्ण पदकों पर शंका उठ रही है।
शब्द का संसार कविता में शब्द के सौदागरों को बाजार तक न ले जाने की चेतावनी दी है क्योंकि बाजार के पास कोई विवेक नहीं होता।
कवि इस पतन के दौर से बहुत दुःखी है। जब भी उन्हें अपनी बात कहने का अवसर मिलता, उनकी वाणी से यह पीडा सास्वत झरने की तरह प्रस्फुटित होने लगती है। वे कहते थे-
खुश रहो तुम,
या नाराज हो।
खुशामद की बातें
हमें रास नहीं आतीं।
मुझें इस नगरी के कार्यक्रमों में उनके साथ सिरकत करने का अवसर मिलता रहा है। उन्हें यहाँ के साहित्यिक एवं सामाजिक कार्यक्रमों में ससम्मान आमंत्रित किया जाता था। उनके बिना नगर का प्रत्येक कार्यक्रम अधूरा सा लगता था। वे इस नगर की मंच की शोभा थे।
उनके साथ हम सबने मिलकर एक साहित्यिक संस्था मुक्त मनीषा साहित्यिक एवं साँस्कृतिक समिति (डबरा) भवभूति नगर को जन्म दिया था। यह संस्था इस नगर में आज भी साहित्यिक आयोजनों के लिये चर्चित है। वर्ष 2020 से हिन्दी दिवस पर इस क्षेत्र के प्रसिद्ध संत कन्हर दास सम्मान श्रद्धेय रमाशंकर रायजी की पुण्य स्मृति में मुक्त मनीषा द्वारा दिया जाने लगा है। मैं जब भी किसी कार्यक्रम में जाता हूँ वहाँ श्रदेय रायजी को याद अवश्य किया जाता है। इस तरह यह नगर आज उनका ऋणी बनकर रह गया है।
अब हम, नारी हूँ कविता पर दृष्टि डालें- वे नारी को काव्य जगत की मूल प्रेरणा मानते हैं। इस कविता में नारी और काव्य का सम्य स्थापित किया है।
मैं ही कवि की मूल भावना,
जो अक्षर में ढलती रहती हूँ।
इतिहास नहीं जो कह पाया,
उन बातों को भी अक्सर कहती रहती हूँ।
श्रदेय राय जी भाषण देने में मुझे राष्ट्रवादी लगे हैं किन्तु वे जनवादी दृष्टिकोण के भी के पोषक रहे हैं। जहाँ जिस बाद में जो बातंे उन्हें अच्छी लगीं हैं उन्होंने खुले मन से उन्हें स्वीकार किया है।
रोटियाँ हो गई में- क्या कयामत हुई हिन्द में,
बेटियाँ उनकी अब रोटियाँ हो गईं।
यों तो आपकी प्रत्येक कविता चर्चा के लायक है किन्तु पगडण्डी कविता पाठक को जीवन के घरातल से जोड़ देती है। इसमें सड़क और पगडण्डी के अन्तर को रेखंकित किया है।
पर सड़क की आँखों में-
न कोई बहू है न बेटी है,
हर औरत, सिर्फ एक लुगाई र्है
जिसकी हैसियत
उसकी साडी और जेबर ने बताई है।
वे मानते हैं पगडण्डी तो, पूरा हिन्दुस्तान है।
राय जी को अपने गाँव से जीवनभर लगाव रहा है। हम जब जब उनकें साथ बैठत,े वे कोई न कोई बात अपने गाँव की प्रशंसा में कह जाते थे। अपने गाँव से उनका लगाव देखिये-‘ गाँव का मरना मुझे, आज भी खलता है , क्योंकि, मैं गाँव का बेटा हूँ। उन्हें जीवनभर लगता रहा कि अब तो हमला गाँव पर है।
उन्हें सिक्के का भगवान बनना भी खलता रहा है।
आदमी की बात छोड़ो,
अब देवता-
बिकने लगे हैं।
उन्हें जीवन भर ऐसे पावन चरण चाहिये की तलाश रही है। इसीलिय हर कुन्ती को उसका करण चाहिए। उन्हें इतना अधिक सजग रहना भी ठीक नहीं लगता है क्योंकि पारस और पत्थर को, एक समझना ठीक नहीं है।
वे इतिहास के अगले चरण पर भी दृष्टि डालते हैं- आदमी वह कि, जो वक्त का अनुचर नहीं है और समय के स्वार्थ का सहचर नहीं है।
न्याय, पूँजी की मंड़ी में,
नीलाम होता रहा।
सच की आवाज भी
रोज दबती गई।
व्यवस्था की गोद में-क्रान्ति और विद्रोह की बातें करते रहे हैं।
डुग डुगी बजाकर मजमा लगाने वाले लोग।
वे तो- बाँटकर
मुस्कान जग को,
आँसू सदा-
पीता रहा है।
ऐसे स्वभाव वाले रहे है श्री राय जी। उन्हें तो जीवन भर सच कहना महगा पड़ा है। वे रचनाकारों से कहते हैं- शब्दों को धडकन-
और धडकन को शब्द
अगर तुम दे साकते हो-
तो तुम लिख सकते हो।
और इसी कविता में-
यदि दलितों-
और वंचितों की पीड़ा को,
वाणी दे सकते हो-
तो तुम लिख सकते हो।
चाहे उनकी रचना- सावन खिड़की की राह बुलाता है, हो अथवा आदमी वही बडा होता है जो पसीने सें नहाई रोटी खाता है और चैन से टूटी खाट पर भी सो जाता है।
वे जीवन भर आदमी की तलाश में लगे रहे हैं। वे मौन में भी बोलना तलाशते रहे हैं। आहतनाद से- अनहदनाद तक पहुँचती है कविता और आदमी से आदमी का परिचय कराती है। कविता को संवेदना की घार से गीला होना चाहिए। वे लोगों को तौलकर बोलने का सन्देश भी कविता के माध्यम से दे जाते हैं।
श्री राय जी इस नगर में एक आदर्श शिक्षक के रूप में भी याद किये जाते रहेंगे। राव मीरेन्द्रसिंह जू देव द्वारा लिखित पुस्तक‘ सारस्वत सुषमा’ में आपके आदर्श शिक्षक के रूप का विस्तार से वर्णन किया है। आपके द्वारा पढ़ाये विद्यार्थी इस क्षेत्र के प्रत्येक गाँव में मिल जायेंगे। मुझे जब भी आपके पूर्व छात्र मिल जाते हैं वे आपकी पढ़ाने के तरीके की प्रशंसा करने लगते हैं।
आप इस वर्तमान परिवेश में भी धोती कुरता पहनते थे। सर्दी से बचने जोधपुरी कोट का उपयोग करते थे,ऊपर से सोल ओढ़े रहते थे। इस तरह भरतीय परिवेश के पहनावे के कारण सम्पूर्ण नगर में अलग से पहचाने जाते थे।
उनके इस व्यक्तित्व के कारण उनकी अपनी पहिचान अलग थी। उनकी कविता ‘सँस्कृति ही मिट रही है’ पर दृष्टि डालें- सँस्कृति ही मिट रही है-
सभ्यता के गाँव में
अपराध देखो पल रहा है-
न्याय के ही छाँव में।
जिनकी जड़े धरती में होतीं हैं, वे स्वयम् ही बढ़ते हैं। सुकरातों को मिलता जहर यहाँ ,शायद इसी कारण जो गीत लिखा जाना चाहिए था वह लिखा ही नहीं गया क्योंकि भावनाओं को जो सही आकार दे जो, शब्द वह मिला नहीं है।
वे जब भी भाषण देते थे नपे तुले शब्दों का उपयोग करते थे। इसी कारण शब्द के माध्यम से अपनी रचनाओं में अनेक वार अपनी पीड़ा व्यक्त की है।
शब्द मंजिल भी है-
और मार्ग भी,
शब्द की सीमा
शब्दातीत है।
क्योंकि शब्द सिर्फ वर्तमान ही नहीं भविष्य और अतीत भी है। जब जब अनुभव से भाषा का मेल हुआ है तो कविता वही कबीर हो गई है। उन्हें जीवन भर एक ही चिन्ता सालती रही है कि यह देश कैसे बचेगा? इसी कारण देश की व्यवस्था पर उन्होंने चिन्ता व्यक्त की है। लोगों ने गाँधी,माक्र्स एवं फ्राइड को अपने चश्मे से देखा होगा। इस स्थिति में आदमी बास्तविकता से दूर हो जाता है। अवतरण होता हैै रचना में-
राजा जब अन्धा होता है
और रानी आँख पर पट्टी बाँध लेती है।
तो सुयोधन, दुर्योधन-बन जाता है,
और शासन दुःशासन।
इस तरह महाभारत के पात्रों को प्रतीक के रूप में रखकर वर्तमान का निरूपण किया है। रचना पाठक को सोचने के लिये विवश कर देती है।
कायल है ईमान कविता हो, चाहे वे बड़े हो गये हो में-
शब्दों का व्यापार करो मत।
कविता की बात करो मत।
बात उनकी करो जो जिये उसूलों के लिये। वे यहाँ फकीर हो गये और सबसे बड़ा नगीना में-
मंदिर- मस्जिद नहीं लड़ेंगे,
मुफ्तखोर बे-मौत मरेंगे।
मेहनत का सम्मान,
शीर्ष पर होगा।
श्री रायजी ने कल का भाग्य विधाता में, गणतंत्र दिवस में- गण का पता नहीं है और कल का भाग्य विधाता चैराहे पर दोंने चाट रहा है। इस तरह कवि कल के भाग्य विधाता के वारे में चिन्तित दिखाई देता है और शब्द साधकों से एक सही दुनियाँ रचने के लिये उनका आवाहन करता है।
क्रौंच का बध नहीं करता में-
दुनियाँ में कहीं भी है किसी को,
रोटी से वंचित करना-
सबसे बड़ा पाप है।
इस दुनियाँ में सिर्फ हम हैं,
न कोई तुम हैं, न कोई आप हैं।
उनकी रचना पोस्टर हो में वे कहते हैं- तुमने दीवालों को तो
पोस्टरों में बदल दिया है।
अब दिमागों को-
पोस्टरों में मत बदलो।
क्योंकि जीवन का फूल पोस्टरों से नहीं, सिर्फ- धरती के आँगन में खिलता है,जैसे संवेदन शील विषय पर लोगों को समझाने की कोशिश की है।
कवि ने अपना मन्तव्य व्यक्त करने के लिये संकलन का समापन इन पन्तियों से किया है-
जीवन जितना अधिक कठिन होता है।
कविता उतनी अधिक सरल होती है।
अमृत बाँटता है जो जग को जितना,
दुनियाँ उसको उतना अधिक गरल देती है।
इस तरह हम देखते हैं वे जीवन के संग्राम में अथवा सृजन के पथ पर जब जब अग्रसर होते हैं , दोनों ही भावभूमियों में वे एक से दिखाई देते हैं। वे जो कहते, वही करते भी थे। वे कथरनी करनी से एक थे। ऐसे साहित्यिकार अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। धन्यवाद
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संपर्कः -
कमलेश्वर कालोनी, (डबरा)
भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)
पिन- 475110