Own sense of social service in Hindi Comedy stories by r k lal books and stories PDF | सेवा-भाव की अपनी-अपनी सोच

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सेवा-भाव की अपनी-अपनी सोच

सेवा-भाव की अपनी-अपनी सोच

आर० के० लाल

पार्क में एक शाम बैठे कई बुजुर्ग समाजसेवा करने की बात पर ज़ोर दे रहे थे परंतु उनमे से दो चार लोग कह रहे थे कि उनका अनुभव अच्छा नहीं रहा।

महरोत्रा जी ने अपनी कहानी बताई कि एक बार उन्होंने मलिन बस्तियों में जाकर कुछ सेवा करने को सोची । समाचार पत्रों में रोज कई संस्थानों के लोगों की फोटो कपड़ा , खाना वितरित करते छपती है। कुछ लोग तो मलिन बस्तियों के बच्चों को पढ़ाते लिखाते भी हैं। हमने अपने मित्रों के साथ पुराने कपड़े बांटने की योजना बनाई। महीनों पड़ोस के घर जा - जाकर पुराने कपड़े देने का अनुरोध करते रहे। पत्नी और बच्चों को भी कुछ कपड़े निकालने के लिए कहा । पहले तो सभी हां में हां मिलाते रहे मगर बाद में वे ना-नुकुर करने लगे । कई बार कहा तो बच्चे और पत्नी ने आलमारी से अपने सारे कपड़े निकाल कर फेंक दिए और शिकायत करने लगे कि कई साल से उन्हें कोई अच्छा कपड़ा दिया ही नहीं गया । पत्नी ने तो मुझे कबाड़ी तक का दर्जा दे दिया। उन्हें कपड़ा रिजेक्ट करने में दिमाग लगाना पड़ रहा था , कोई अभी फटा नहीं था तो कोई बहुत मजबूत था । सब काम का लग रहा था । शर्मा जी की माँ तो पुराने कपड़ों की गद्दी और कुशन बनाने की बात कहते हुये हमें भगा ही दिया । इसलिए मैं बाजार गया और ठेले वालों से कुछ कपड़े खरीद लाया । जैसे तैसे पास पड़ोस से दो झोले कपड़े एकत्रित हुए।

बहुत पूछ-ताछ के बाद कपड़ा वितरण के लिए नदी के किनारे वाली मलिन बस्ती निश्चित किया गया । निर्धारित समय पर हम दो-तीन लोग उस बस्ती पहुंचे जो कहीं से मलिन बस्ती लग ही नहीं रही थी। सभी जगह पर्याप्त साफ-सफाई, पीने के पानी और सुलभ शौचालय की व्यवस्था थी । बच्चे अच्छा कपड़े पहने घूम रहे थे । हमने उनसे डरते हुये कहा कि मुझे कपड़ा बांटना है। सब ने कहा इसके लिए आपको हमारे नेता खिलावन दादा के पास कपड़ा जमा करना होगा। यह भी बता दिया कि अगर खाना बांटना हो तो पहले से आप को उनसे मिलकर तारीख और समय निर्धारित करना होगा । खाने में क्या दिया जाएगा- पूरी या चावल यह भी खिलावन दादा ही आपको बता देंगे।

बहुत देर तक हम खिलावन को ढूंढते रहे। बाद में जब वे आए तो बड़ी बेरुखी से बोले , “अपना कपड़ा उस चबूतरे पर रख दीजिए। फटे कपड़े निकाल लीजिएगा क्योंकि उसकी कोई उपयोगिता नहीं है”। सूत्रों से पता चला कि खिलावन उन कपड़े की कटिंग करवा कर अपना कारोबार चलाता है और लोगों को मजदूरी देता है । इस प्रकार एक महीने की मेहनत का कोई बहुत सार्थक नतीजा नहीं निकला ।

राम बाबू ने भी कहा कि गरीबों को कुछ देने का अब जमाना नहीं रह। उन्होंने बताया, “एक बार मेरे घर पर कुछ मजदूर काम कर रहे थे । उनमें से एक मजदूर पर तरस खा कर मैंने उसे अपनी दो महंगी पैंट और कमीज दे दी। बिना किसी धन्यवाद के उसने कपड़े ले लिया। मैंने सोचा कि यह कुछ तो एहसान मानेगा और मेरे किसी काम में मदद कर देगा। दो-तीन दिन बाद हीं मैंने उससे एक काम करने के लिए कहा। काम मात्र आधा घंटे का था । उसने काम तो कर दिया लेकिन उसके लिए पैसे मांगने लगा। मुझे लगा कि उसे कपड़े देना व्यर्थ हो गया।

गगन जी ने सभी को बताया, “एक बार मैंने अपना कमरा बनवाने के लिए एक परिचित मिस्त्री को लगाया था । मैं उसे रोज चाय नाश्ता और दिन में लंच भी कराता था । वह भी बहुत मीठी मीठी बात करता था लेकिन काम बहुत ही धीरे करता था । काम के बीच में वह बार-बार पेशाब करने चला जाता । इस प्रकार मेरा काम बाधित हो रहा था। मुझसे यह नहीं देखा गया तो मैंने पूछा क्या, “ बात है क्या तुम्हें कोई बीमारी है”? उसने कहा, “ हाँ बाबूजी, कुछ यूरिन इन्फेक्शन है । समाज सेवा करने के उद्देश्य से मैंने उससे डॉक्टर के यहाँ चलने के लिए कहा पर वह डॉक्टर के पास जाने में आनाकानी करता रहा। एक दिन जबर्दस्ती मैं उसे डॉक्टर के पास ले गया । उन्होंने कुछ दवाइयां दे दी और खून की जांच कराने की सलाह दी । मिस्त्री अपने घर चला गया और अगले तीन दिन तक नहीं आया। वापस आने पर जब मैंने उससे पूछा कि दवा खा लिया तो उसने कहा हां बाबू जी खा लिया जबकि वह दवा तो मेरे घर पर ही छोड़ गया था। इसका मतलब वह झूठ बोल रहा था । फिर भी मैं उसे ब्लड टेस्ट कराने के लिए कई दिनों तक उसके पीछे पड़ा रहा तो उसने हाथ जोड़कर कहा, “बाबू जी मुझे माफ करिएगा मुझे कोई बीमारी नहीं है। मैं तो सिर्फ समय बिताने के उद्देश्य से थोड़ी थोड़ी देर बाद पेशाब करने के बहाने बना लेता हूं” । यह सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया । फिर मैंने किसी की इस तरह की सहायता न करने का मन बना लिया।

इस बार भार्गव जी की बारी थी। वे बोले, “एक बार जीवन में कुछ सामाजिक कार्य करने का ख्याल मेरे मन में भी आया था । इसलिए मैंने रिटायर्ड लोगों का एक ग्रुप बना दिया। हर महीने एक दिन सभी लोग कहीं एकत्रित होकर आपस में बैठकर कुछ क्रिएटिव कार्य करने लगे । वहां चाय पानी और नाश्ते की भी व्यवस्था मैंने अपनी तरफ से कुछ दिनों तक कर दी थी। बाद में प्रति पति- पत्नी के लिए मात्र ₹50 चंदा रखा गया। मीटिंग में सभी के काम की बातें बताने के लिए अक्सर एक एक्सपोर्ट जैसे डॉक्टर , सीए, आदि को भी बुलाया जाने लगे। लोग कुछ नया जैसे संगीत, कंप्यूटर इंटरनेट और मोबाइल , पेंटिंग, साइबर क्राइम, कुकिंग आदि सीखने के इच्छुक थे इसलिए उनकी व्यवस्था भी मैंने करा दी। इसका खर्च भी लोगों को ही उठाना था इसलिए चन्दा ₹500 प्रतिमाह कर दिया गया। हालांकि यह कोई बड़ी रकम नहीं थी मगर लोग इतना चंदा देने से भागने लगे। कुछ महीनों में मात्र चार पांच लोग ही बचे रह गए। मैंने भी ग्रुप को छोड़ दिया।

उमा शंकर ने एक और दुखद कहानी बताई। उनके मित्र पाठक जी की उम्र 52 वर्ष की हुई थी कि अचानक उनकी पत्नी का देहावसान हो गया। उनके एक लड़की तथा दो लड़के थे । वे सभी की शादी कर चुके थे । दोनों लड़के भी शहर से बाहर नौकरी करते थे । कुछ ही दिनों में पाठक जी परेशान हो गए। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि उनकी बची जिंदगी अकेले कैसे कटेगी । उन्होंने सोचा कि फिर से शादी क्यों न कर लिया जाए। पहले तो वे इस बात को बहुत आसान समझते थे लेकिन इस उमर में कौन शादी करता और कौन करने देता । यह बात नागवार गुजर रही थी परंतु पाठक जी अपनी बात पर ही अड़े रहे। पाठक जी किसी धर्म, जाति की महिला अथवा लिव इन पार्टनर की तरह रहने वाली महिला के लिए भी वे तैयार थे। न्यूज़ पेपर में विज्ञापन से कई प्रस्ताव आए भी, मगर बात नहीं बनी क्योंकि पाठक जी को किसी पर विश्वास नहीं हो रहा था , इसलिए वे किसी के पहचान वाली से ही संबंध करना चाहते थे। पाठक जी के एक दोस्त श्रीवास्तव जी ने उनकी मदद की और अपनी उनकी एक परिचित बयालीस वर्षीय महिला से शादी करा दी।

कुछ दिन तक सब ठीक चला , परंतु 55 साल के बुजुर्ग और 42 साल की लड़की में तालमेल नहीं बन सका । आपस में कहा-सुनी शुरू हो गई । बीच-बचाव करने श्रीवास्तव जी को अक्सर उनके घर जाना पड़ता। इस कारण अब सबकी नजर श्रीवास्तव जी पर लग गई। लोगों ने बहुत सी अनाप-शनाप बातें बनाई और उनके चाल चलन पर भी संदेह किया। श्रीवास्तव जी की पत्नी को जब सब पता चला तो उनके परिवार में भी कलाह शुरू हो गयी । बिना किसी बात के श्रीवास्तव जी की जिंदगी नरक बन गई। इसलिए उन्होंने कान पकड़े कि आप किसी की ऐसी समाज सेवा नहीं करेंगे।

सबसे बड़े साथी सिंह साहब ने भी याद करते हुये कहा, “एक बार उनके मन में भी आया कि अपनी कमाई का कुछ अंश गरीब लोगों के लिए भी खर्च करें । फिर एक दिन एक मंदिर के सामने किसी को खाना बांटते देख कर मेरी भी इच्छा खाना बांटने को हुयी। मेरी पत्नी ने झट से पूरी सब्जी बना दी और हम लोग एक मंदिर के सामने पहुंच गए। जब लोगों ने देखा कि कोई खाना बांट रहा है तो वहां बड़ी भीड़ इकट्ठा हो गई। अचानक छीना झपटी होने लगी। सब एक दूसरे को पर टूट पड़े और देखते देखते हमारा सारा खाना छिन गया । हम लोग दुखी मन से घर वापस आ गए।

इसके एक हफ्ते बाद उस मंदिर के महंत जी मिल गए। उन्होंने उस दिन की घटना पर दुख व्यक्त किया और बोले, ‘सिंह साहब आप कहां चक्कर में घिर गए थे । आपको कुछ बांटना था तो मेरे पास आ जाते , मैं सारी व्यवस्था कर देता, बस आप को मंदिर में ₹501 का दक्षिणा देना होता ।

तभी उस मोहल्ले की एक नेताजी भी टकरा गए । वे बोले कि सिंह साहब आप इन सब कामों के लिए मुझे कष्ट दीजिए। सिर्फ आप खाना बनवा कर दे दीजिए। मैं सारा कार्य करा दूंगा और इसकी पब्लिसिटी भी करा दूंगा। मैंने अपनी पत्नी को एक बार फिर तैयार किया। तय हुआ कि एकादशी के दिन नेताजी की मदद से भोजन वितरण कराया जाएगा। खाना तैयार करने के बाद मैंने नेताजी को फोन मिलाया। वे प्रेस वालों को ले कर आ गए। दूसरे दिन अखबार में समाचार छपा कि नेता जी ने अपने इलाके में भोजन वितरण करवाया है। साथ में उनकी एक फोटो भी छपी थी जिसमें हम लोगों का कहीं भी नामोनिशान नहीं था। मैं देख कर व्यथित हो गया फिर भी संतोष हुआ कि भोजन तो सही से वितरित हो गया।

शुक्ला जी ने चिंता करते हुये कहा कि वे भी इन बातों से आहत हुये हैं मगर सवाल है कि वास्तव में गरीब अथवा अपाहिजों की तलाश कैसे की जाए । मुझे कई अपाहिज मिले जो भीख मांग रहे थे। बाद में पता चला कि उनमें से कई लोग वास्तव में अपाहिज हैं ही नहीं बल्कि अपाहिज के मेकअप किए हैं । उन्हें यह भी पता चला कि कई जगह तो बच्चों को भीख मांगने के तौर-तरीके, खुद को विकलांग बताने, नकली घाव बनाने आदि के बारे में प्रशिक्षण भी दिया जाता है इसलिए वास्तव में जरूरतमन्द का पता लगाना बहुत कठिन है।

फिर शुक्ला जी ने कहा कि मेरी काम वाली कि बेटी बड़ी होनहार है । मैं उसे पढ़ना चाहता हूँ। सबने उनके इस पुनीत सोच की सराहना की। इसमे कोई धोखा नहीं होगा।

अंत में सबने तय किया कि वे अपने अपने घर में काम करने वाली के बच्चों को यथासंभव आर्थिक सहायता देंगे ताकि उनकी सही परिवरिश और पढ़ाई हो सके।

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