mai bharat bol raha hun - 18 in Hindi Poems by बेदराम प्रजापति "मनमस्त" books and stories PDF | मैं भारत बोल रहा हूं-काव्य संकलन - 18

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मैं भारत बोल रहा हूं-काव्य संकलन - 18

नींब के पत्‍थर--

सो रहे तुम, आज सुख से,

दर्द उनको हो रहा है।

शान्‍त क्रन्‍दन पर उन्‍हीं के,

आसमां- भी रो रहा है।।

यामिनी के मृदु प्रहर में,

दर्द-सी, पीड़ा कहानी।

सुन रहा है आज निर्जन,

चीखतीं-सी, हो रवानी।।

देख लेना एक दिन ही,

किलों के, खण्‍डहर बनेंगे।

शान-शौकत के ठिकाने,

धूल में, आकर मिलेंगे।।

हो रहे हैं सं‍गठित ये,

जिगर में, बिल्‍कुल जमीं हैं।

क्रान्ति का उद्घोष होगा,

नींब के पत्‍थर, हमीं हैं।।

है खड़ी बुनियाद हम पर,

शीश पर, अपने धरैं हैं।

संभलजा औ, आज मानव,

आज भी, अपने घरैं है।।

--त्‍याग का फल--

वृक्ष के पकते फलों को,

यार। पत्थर से न मारो।

जी रहा क्‍या जिंदगी वह।

सोचलो कुछ तो विचारो।।

संजोता-कितना परिश्रम,

खूँन का वह रस बनाकर।

सह रहा है दर्द सारे,

प्रेम से, कुर्बान होकर।।

त्‍याग उसका, देख कर भी,

आंसुओं के आंसू आ रहे।

बड़े निष्‍ठुर जीव हो तुम,

गीत फिर भी, ऐसे गा रहे।।

चाहता नहीं, दान-प्रतिफल

त्‍याग उसने सब किया है।

दे रहा फल, आज तुमको,

जिंदगी, हंस कर जिया है।।

खा रहे हो, तुम निष्‍ठुर हो,

दर्द अनशन ले रहा है।

धन्‍य वही, पत्थर के बदले,

फल तुम्‍हीं को दे रहा है।।

--निष्‍ठुर जगत--

आज, दुनियां की हवा में,

ले रहे, मिलकर मजा सब।

भूल जाते, स्‍वप्‍न सारे,

जिंदगी-विश्रान्ति है कब।।

ईख के मासूम दिल को,

देखता नहिं आज कोई।

पी रहे रस, निष्‍ठुर होकर,

पेर कर, कोल्‍हू में सोई।।

प्राण तज कर, दे रहा मधु,

रूप अगणित, जो बना कर।

है खड़ा, फिर भी जहां में,

आपने को रज बना कर।।

प्राण देकर, त्‍याज्‍य भी जो,

दण्‍ड-दे, फिर भी जलाए।

वाह रे, निष्‍ठुर जगत,

तेरी कहानी, कौन गाए।।

त्‍याग का, ऐसा नजारा,

देखने को, नहीं मिलेगा।।

व्‍यंजनों को, रस पिलाता,

ढूँढने पर, नहीं मिलेगा।।

--उल्‍टी चाकी--

कह रहे सिद्धान्‍त सारे,

काम की पूजा रहेगी।

पर यहां विपरीत देखो,

नाम की पूजा रहेगी।।

पालता है जो जहां को,

वेदना में गीत गाकर।

जी रहा है, आज भूँखा,

चार में से, एक खाकर।।

नाम की पूजा जहां में,

काम ने अधिकार खोया।

आज के संग, नहीं चला जो,

पूर्वजों को, बैठ रोया।।

मखमलों के गद्दारों पर,

रोज बर्फी चाबते हैं।

क्‍या समय मनमस्‍त आया,

भूँख की उत दावतें हैं।।

खाक में मिलती है हस्‍ती,

निर्धनों, की सब सहेगी।

दीन दुखियों की निशानी,

लग रहा, यहां चिर रहेगी।।

--जौंक--

पी सको जितना पियो तुम,

बन पड़ी है आज तेरी।

दाब, यहां पर लग गया है,

आज तुम रानी, न चेरी।।

बह रहा जल एकसा जब,

चल रहीं क्‍यों चाल टेढ़ी।

आदतों से बाज हो ना,

तान ऐसी आज छेड़ी।।

चूसने की ताक में नित,

दूसरों का खून, प्‍यारा।

यौं-कहो, कब‍ तक जियोगी,

पर पथिक नहीं, आज हारा।।

कब तजोगी चाल टेढ़ी,

खून पीना अब तो छोड़ो।

वे ठिकाने, मरोगी ही,

राह अपनी आज मोड़ों।।

जौंक बनकर जी रहे क्‍यों,

त्‍याग का बाना संभालो।

छोड़ कर अठखेलियां ये,

जिंदगी के गीत गालो।।

--आज तुम--

मानलो अनमोल जीवन,

मिल गया, अनमोल प्‍यारा।

आसमां में तुम चलो तब,

इस जमीं को, क्‍या सहारा।।

सोचते थे गोद में पल,

गोद की सेवा करैगी।

और इसकी जीर्णता के,

कष्‍ट सारे, तुम हरोगे।।

कर्ज का बोझा धरे सिर,

व्‍यर्थ क्‍यों, दानी बने हो।

बूढ़ते की मौत के भी,

आज तुम, यानी बने हो।।

देखकर मां की दर्दशा,

आसमां से गीत गाता।

आ रही मिटने की बारी,

भूल क्‍या, इसको है जाता।।

आसमां से क्‍या मिलेगा,

इस धरा को मिल सजाओ।

ओ मनीषी, प्रज संभालो,

आसमां से लौट आओ।।

--छमोई--

काटता जो पेड़ को,

उस पेड़ पर ही बैठकर।

स्‍वर्ग भू पर ला सकेगा,

जिंदगी निज भैंटकर।।

वंश का निर्मूल निश्चित,

काटता है जो जड़ों को।

शान की अन्‍धी गुफा में,

भूल जाता जो, बड़ों को।।

ध्‍यान दे, उसको हटा दो,

बह जड़ों में, रह न पाये।

तब कहीं, उत्‍थान होगा,

मोद मय दुनिया सुहाए।।

वह छमोई वंश का है,

जो जड़ों में प्रकट होता।

वंश को निर्मूल करने,

वंश जड़ में बैठ, सोता।।

ध्‍यान से देखो, संभालो,

बह धरा को भेंट देगा।

मूल से निर्मूल कर दो,

नहीं तो, आगत भी रोगा।।