Holiday Officers - 31 in Hindi Fiction Stories by Veena Vij books and stories PDF | छुट-पुट अफसाने - 31

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छुट-पुट अफसाने - 31

एपिसोड---31

आज टहनियों के घर मेहमां हुए हैं फूल ! जी हां ! !

‌‌ ‌तभी तो अपने तन के गोशों में छिपी किलकारियां और अपनी अंतरात्मा में बजते संगीत की धुन सुन कर मैं अपने अन्तस से बहते--- गहन अंतर्भाव ! के जगने की लय को, पहचानने मैं लगी रहती। शास्त्रों के कथनानुसार अपने  चित्त को एकाग्र, शांत और प्रसन्न रखने का यत्न करती।

अभिमन्यु ने मां के गर्भ में चक्रव्यूह में प्रवेश का पाठ पढ़ लिया था तभी तो अपना व्यवहार अनुकरणीय जानकर मुझे जीवन और सोच में तालमेल बिठाए रखना होता था। सदैव हंसती खिलखिलाती रहती थी मैं ।

अब एक राज़ की बात बताती हूं:-

अमृता प्रीतम को पढ़ते हुए कहीं यह वाक्य मैंने पढ़ा था, "क्यों वे तेरी मां ने तैनू "चास्कू" खा के जमया ए, जे तेरा एन्ना दिमाग ए !" मेरे दिमाग में भी कीड़ा घुस गया था कि मैं‌ चास्कू अवश्य खाऊंगी इंटेलिजेंट बच्चा पैदा करने के लिए। पता करवाया कि कीड़ा कैसे निकलेगा..? तो पता चला कि वह तो बहुत कड़वी चीज है । उसे कूट, पीस, छनवा कर पंजीरी में मिलाकर बनाते हैं। रोज खाना होता है दूध के साथ। मैंने बनवाया और कैसे करके खाया भी एक महीना।( जब APJ schoolकी टीचर्स स्कूल में कहती थीं इसे आपने क्या खाकर पैदा किया है तो मैं मन ही मन में मुस्कुरा उठती थी!)

‌  हां तो, गोद भराई की रस्म होनी थी, सातवें महीने में। इनकी ताई जी आ गई थीं। मीठे गुलगुले मेरी झोली में डाले गए। मेरे पूछने पर बीजी ने बताया कि इन दिनों मीठा खाने का दिल करता है प्रेग्नेंट लेडीज का। तभी गोद भराई में मीठा सगन करते हैं। सच है यह तो। क्योंकि उन दिनों मै रात की बासी रोटी पर, सुबह घर की गाय का ताजा मक्खन मोटा- मोटा लगाकर, उस पर चीनी बुरक कर ---यही नाश्ता करती थी। फिर सारी जिंदगी हो गई आज तक ऐसा कभी नहीं खाने का मन किया। तभी तो कहते हैं कि फलानी को "रोए" लगे हैं अर्थात वह कुछ भी खाने को मांग सकती है ! और मां बनने की प्रक्रिया में ऐसा, मेरी सब सहेलियों के साथ कुछ ना कुछ अवश्य अजीब घटा होगा न !..... :)

‌‌   हम लोग अपने रिवाजों को इतनी शिद्दत से निभाते थे कि जो बड़े कहते थे हम करते थे । शायद यह हमारी ही आखिरी पीढ़ी थी। जैसे...हमारे यहां न्यूबॉर्न बेबी को नया कपड़ा नहीं पहनाया जाता था। या तो किसी से मांगा जाता था या किसी बुजुर्ग के कपड़े को काटकर बनाया जाता था। मैंने भी बीजी की कमीज काटकर एक फ्रॉक मशीन से सिल लिया था। Knitting करके कुछ woolen सैट, पजामींयां टोपियां तैयार कर लिए थे क्योंकि हमने अब कश्मीर जाकर रहना था।

अमूमन रवि जी अप्रैल में कश्मीर चले जाते हैं बिजनेस खोलने के लिए। इस बार वे मई में वापस आए और बीजी और मुझे साथ ले गए। उन्होंने श्रीनगर में एक बंगला दो महीने के लिए लेकर, उसमें इंतजाम कर दिए थे सारे। क्योंकि पहलगाम में मेडिकल फैसेलिटीज नहीं होती थीं। हमारे बंगले के पिछली तरफ मेरी डॉक्टर रजिया का बंगला था। और मैं उनसे खिड़की में खड़े होकर कभी-कभी हेलो कर लिया करती थी।मेरी डिलीवरी डेट 10 जून थी और मेरी डॉक्टर की भी 10 जुलाई की डेट थी। उनके पैरों में बहुत स्वेलिंग आ गई थी तो वह कहने लगीं मैं गुलमर्ग जा रही हूं रेस्ट करने । आपका केस डॉक्टर बिल्किस करेंगी।

लो जी, वे 24 जून को वापस आईं, तो मुझे घर में देखकर परेशान हो गईं। इधर, रवि जी की बड़ी दीदी राज परिवार सहित आ गई थीं, बीजी की मदद के लिए। मुझसे साफ हुए घर में दोबारा से पोछे लगवाए जाते थे। नीचे बैठकर आटा गुंथवाया जाता था और लाल चौक तक दो किलोमीटर की सैर करवाई जाती थी। तभी हमने "रेशमा और शेरा" फिल्म देखी थी लाल चौक के रीगल हॉल में। लेकिन यह सब कुछ काम नहीं आ रहा था क्योंकि मुझे घी सुंड( सोंठ) रोज रात को दूध में मिलाकर पिलाया जाता था। (बहुत ही गंदा स्वाद) delivery pains में यह अवरोधक सिद्ध होगा, किसी को ज्ञात नहीं था।

कभी-कभी हमारे देसी नुस्खे भी गलत काम कर देते हैं। जी हां नीम हकीम खतरे जान वाला किस्सा हो गया था। इनकी छोटी बहन कांता दीदी ने आकर कहा कि यह तो बहुत गलत हो गया। डा. रजिया मुझे सुबह अपने साथ ही हॉस्पिटल ले गई और दाखिल कर लिया। क्योंकि fetal heart beat धीमी हो गई थी। बेबी के बचने का खतरा था। 3 दिन मुझे ड्रिप लगा रहा और उन्होंने कहा कि अब cesarean करना पड़ेगा तो मैंने जिद कर ली थी मैं सर्जीरियन नहीं करवाऊंगी। डा बिल्किस बहुत ही मीठे स्वभाव की थीं। उन्होंने 3 डॉक्टर और बुला लिए और 28 th को मेरी डिलीवरी हो गई ।

मेरा बेबी रोया नहीं। मैं देख रही थी कि सब लोग वहां परेशान थे । कभी उसे ठंडे पानी में डालते थे तो कभी गर्म पानी में। पीठ पर जोर जोर से मारते थे लेकिन वो रोता नहीं था। अभी तो उसे देखा भी नहीं था और मेरी आंखों से सोते बह रहे थे। मैंने हाथ जोड़े और गायत्री मां को प्रार्थना करी।

"मां! मेरे बच्चे को जिंदगी दे दो मैं इसके कान में सवा लाख गायत्री जाप करूंगी!"

इतना बोलते ही उसके रोने की आवाज़ आई। एक मां का प्रेम और वात्सल्य ईश्वर के दरबार में मुराद मांग रहा था। मैंने आदिशक्ति को धन्यवाद किया। ‌गर्वित रवि जी छोटे रवि को लेने भीतर आए क्योंकि बाहर--बीजी, बहनें और दोस्त सब इंतजार कर रहे थे। नीचू- नीचू, बाह पोंड, बाह पोंड ! कश्मीरी नर्सेज शोर मचा रही थीं।(बारह पौंड का लड़का हुआ है। ) इसीलिए इसे डब्लू कहने लग गए थे क्योंकि यह डबल था।(मुझे रोज घी जो पिलाया जा रहा था)

प्राइवेट रूम में शिफ्ट होते ही बीजी ने झूले के ऊपर कपड़ा डलवा दिया। चंडीगढ़ से भी डॉक्टर देखने आए थे, उसके वजन के कारण। कोई पूछने आता तो वह बोलतीं, " 3 महीने का है।"रवि जी के फ्रेंड्स--- बिहार की सेंटर मिनिस्टर तारकेश्वरी सिन्हा, सुप्रीम कोर्ट के वकील मि.गर्ग और हाई कोर्ट के जज मुजफ्फर जान जी जब आए हमें मुबारक बाद देने तो घर तोहफों से भर गया था । हर घड़ी खुशनुमा बयार बह रही थी घर में।

अब मजेदार बात सुनाऊं--हमारे बीजी बोलते थे कि मैं तो पंजाब को मिस कर रही हूं । वहां तो अभी तक खुसरे भी नाचने आ जाते ।भांड, मिरासी सब आते, इतनी रौनक लगती !! हा हा हा....सब खूब हंसे उनकी बातें सुनकर।

पहलगाम में अपने "वॉलगा होटल " में रवि जी ने ऐसी रौनक लगाई कि सालों तक लोग उस रौनक को याद करते रहे। चंडीगढ़ से archestra आया था और पहलगाम में सब को निमंत्रित किया था रवि जी ने। कश्मीर घाटी से उनके सारे पहचान वाले और दोस्त आए थे। कटनी से मेरे पापा और छोटी बहन शोभा भी आ गए थे इसके आने पर।

लेकिन अब नया काम शुरू हो गया था। जो भी डब्लू को गोद में उठाता था वह उसके कान में गायत्री मंत्र बोलता था और बाकी लोग मौन हो जाते थे। ओउम् भूर्भुव: स्वहा: से वातावरण प्रभुमय हो गया था। कश्मीर की आबोहवा में सफेद रूई जैसे डब्लू के गाल, लाल सेब जैसे लाल हो गए थे। मां बनने का एहसास सबसे मीठा एहसास है। मैं हाथ जोड़कर विनती करती थी कि हे प्रभु ! हर औरत को यह एहसास जरूर दिलाना।

दिवाली जालंधर में ही करते थे हम हमेशा। वहां पहुंचने पर सुदेश (फ़ाकिर)बूजी ने पूरे लाड़ लड़ाए। रवि जी के छोटे भाई जगदीश (कुक्कू) जो जर्मनी गए हुए थे, वे भतीजे को देखने को उतावले हो रहे थे । वहां से बहुत बड़ा टीवी लेकर आए। पाकिस्तान के प्रोग्राम आते थे तब टीवी पर। उन के ड्रामे और फिल्में क्योंकि जालंधर, अमृतसर में अभी टीवी नहीं था। Antenna की direction लाहौर की तरफ करनी पड़ती थी । शाम गहराते ही ड्राइंग रूम में कारपेट के ऊपर चद्दरें बिछा देते थे, तो लेन से बच्चे- बड़े आ जाते थे टीवी देखने। चारों ओर सोफे भी भर जाते थे। डब्ल्यू हाथों हाथ सबके साथ खेलता था। यह भी बच्चे की अपनी किस्मत थी कि उसके लिए नए तरह के बैटरी से चलने वाले तरह-तरह के खिलौने चाचा लेकर आया था जर्मनी से। जिससे सारा दिन बच्चों की रौनक लगी रहती थी हमारे घर में।

बीजी कहा करते थे कि इसे तो मैं संभाल लूंगी, तुम अपना घर संभालो। बीजी बेहद खुश थे क्योंकि खुसरे, मिरासी, भांड सब नाच कर तमाशा दिखा गए थे। और उनकी सारी बेटियां सपरिवार आईं थीं दादी बनी अपनी मां को देखने। जो पोते को गोद में लेकर सारे जहां की खुशियां अपने आंचल में भर लेती थी।

जब हम कटनी जाने लगे जनवरी में तो बीजी बोलने लगीं, " इसका वजन कर लो मेरा पोता कहीं कमजोर ना हो जाए नानके जाकर!" उनसे पोते का बिछोह सहन नहीं हो रहा, जानती थी मैं, इसलिए मुस्कुरा रही थी प्रत्युत्तर में।

ऐसे संस्मरण ही जीने के लिए टॉनिक का काम करते हैं। लेकिन यह सिक्के का एक पहलू होता है दूसरा पहलू भी हो सकता है, वह भी यादें होती हैं। देखें आगे...

 

 

वीणा विज'उदित'

29/5/2020