Sangharsh - 2 in Hindi Fiction Stories by श्रुत कीर्ति अग्रवाल books and stories PDF | संघर्ष - 2

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संघर्ष - 2

संघर्ष (पार्ट - 2)

किसी विधवा, गरीब माँ की इकलौती बेटी थीं ज्योति दी, जिनको रोहित जैसा वर मिलने पर अपने भाग्य पर यकीन ही नहीं हुआ था। भरपूर प्यार और दुलार भी मिला था उन्हें अपने ससुराल में और बदले में उन्होंने अपनी सारी निष्ठा और संपूर्ण शक्ति से घर के सभी लोगों की सेवा भी की थी। दो-ढाई साल तो किसी मधुर सपने की तरह ही बीत गए थे।

फिर ज्योति दी की गोद अभी तक न भर पाने की बात घर में बार-बार उठने लगी| रोहित स्वयं ज्योति दी को लेकर अलग-अलग डॉक्टरों के यहाँ चक्कर काटने लगे। ज्योति जी ने भी जब यह देखा कि उनके पति और घरवालों को एक शिशु की ऐसी अदम्य चाहत है तो उन्होंने भी कठिन से कठिन इलाज और ऑपरेशन आदि के लिए कभी ना नुकुर नहीं की, फिर भी साल-डेढ़ साल बीतते-बीतते यह तय हो गया कि माँ बनना उनकी किस्मत में ही नहीं लिखा है... कि उनका अल्पविकसित गर्भाशय गर्भधारण करने में सक्षम ही नहीं था। फिर तो सबकी नजरें एकदम से बदल ही गईं। बीमार और अपूर्ण औरत से किसी भी तरह का संबंध रखने से रोहित भैया ने इंकार कर दिया| फलस्वरूप ज्योति दी मायके लौटा दी गईं कि रोहित की दूसरी शादी एक स्वस्थ लड़की से की जाएगी। पता ही था कि ज्योति दी के पास न किसी का कोई ऐसा सहारा ही था, न स्वभाव ही कि वह पुलिस या अदालत तक जाएँगी| और किसी भी तरह की कोई परेशानी खड़ी कर सकेंगी... और भरोसा भी था कि कानून भी उन्हें एक बाँझ औरत के साथ निभाने को बाध्य नहीं कर सकता।

बेहद पशोपेश में बिताए थे वे कई दिन मैंने! मोहित के साथ भी अपनी परेशानी को बाँट नहीं सकी थी मैं कि उनके प्रति भी ढेर सारा गुस्सा था मन में| अपने घर से संबंधित यह सारी बातें मुझे उनसे पता चलनी चाहिए थीं न, किसी बाहर वाले से तो नहीं? फिर बहुत सोच-समझ कर तय किया कि कुछ भी करके ज्योति दी को इस घर में वापस लाना है। यही इन सभी लोगों की सजा भी होगी और प्रायश्चित भी| पर कैसे लाऊँगी? क्या करूँगी? यह नहीं जानती थी। ऐसा तो नहीं था कि समझाऊँगी, विनती करूँगी तो सब लोग मान जाएँगे| अतः अब सबसे पहले यह तय करना था कि उन्हें ससम्मान वापस लाने के लिए मेरी रणनीति क्या होनी चाहिए? एक चुनौती थी, युद्ध था यह, जिसे मुझे अकेले, अपने बल पर लड़ना था।

मैं चिड़चिड़ी और उदास रहने लगी थी, जिसका असर हमारी निजी जिंदगी पर भी दिखने लगा। मोहित इस बात को लेकर परेशान रहते पर उनको समझ में ही नहीं आता कि हुआ क्या है। फिर मेरी यह चिड़चिड़ाहट घर के सभी लोगों पर ज़ाहिर होने लगी और सभी आश्चर्यचकित थे कि उनकी आज्ञाकारी बहू को यह हो क्या गया है? क्या पहले का मेरा वह रूप कृत्रिम था और अब मैं अपने असली रूप में आई हूँ? फिर मैंने सबको साफ-साफ बता दिया कि घर में बैठे-बैठे मेरा दम घुटता है और मैं बाहर निकल कर नौकरी करना चाहती हूँ। मुझे किसी चीज़ की कमी नहीं थी यहाँ पर, और न कोई बहुत ज्यादा माँगे ही थीं मेरी... जो कुछ मेरे पास था उसी में संतुष्ट रहने के मेरे स्वभाव से परिचित हैं सभी, अतः अचानक यूँ नौकरी के लिए मेरी इस जिद से परेशान थे वे लोग। फिर भी मेरा रुख इतना दृढ़ था कि नापसंद होने के बावजूद, कोई समझ ही नहीं सका कि मुझे रोका कैसे जाए। फिर इसे मेरा बचपना मानकर इजाज़त दे दी गई कि कुछ ही दिनों में मुझे आटे-दाल का भाव पता चल जाएगा| और मैं स्वयं ही अपनी पुरानी दिनचर्या पर लौट आऊँगी, कि गर्भावस्था के दिन पर दिन बदलते शरीर और स्वास्थ्य के साथ भला कितने दिन कोई नौकरी की जा सकती है?

फिर तो पूरी गृहस्थी का बोझ सास पर छोड़कर, मैं सुबह-सवेरे ही नौकरी खोजने के नाम पर निकल जाने लगी। दो दिनों में ही मैं ज्योति दी का घर ढूँढ निकालने में सफल हो गई थी। अब पूरा दिन उन्हीं के साथ बिताने लगी, घर लौट कर बता देती कि नौकरी की खोज में गई थी। वे पूछते, ऐसे सड़क पर घूम-घूम कर भला कौन सी नौकरी खोजी जाती है? कहाँ रहती हूँ? मैं सारा दिन, कि यह सब-कुछ भला किसी अच्छे घर की बहू के लक्षण है? मेरे और मोहित के बीच में अब लंबे-लंबे झगड़े होने लगे थे। कभी-कभी डर लगता कि मैं अपने दांपत्य को ही खतरे में डाल रही हूँ। क्या सबूत है कि सब कुछ मेरी योजनानुसार ही होगा? मैं मोहित को खोना नहीं चाहती थी पर यदि मेरे व्यवहार से कुपित हो कहीं इन लोगों ने मुझे भी ज्योति दी की तरह घर से निकाल दिया तो? लेकिन नहीं, अब मैं इस तरह की किसी भी बात को अपने मिशन के रास्ते में नहीं आने दूँगी। मैं स्वयं को विश्वास दिलाती कि मैं न ज्योति दी सी निरीह हूँ, न अकेली... पढ़ी-लिखी, नियम-कानून को जानने वाली, आधुनिक लड़की हूँ... मेरी पीठ पर मेरे समर्थ पिता और भाइयों का हाथ है... और सबसे बढ़कर अपने अजन्मे बच्चे के प्रति घर के सभी लोगों की कमज़ोरी से भी तो परिचित थी मैं!

कभी-कभी मुझे उन लोगों पर दया भी आती। इतने बुरे नहीं थे वह लोग, पर ज्योति दी जैसी सरल मन लड़की से ऐसा व्यवहार कैसे कर सके? शायद उनकी शारीरिक कमज़ोरी को स्वीकार नहीं कर सके पर यह कमज़ोरी तो रोहित भैया के शरीर में भी हो सकती थी न? तब ज्योति दी उनके इस अपराध के लिए उन्हें छोड़ जातीं या उनके हर दोष को सिर-माथे लगा, जिंदगी भर निबाह लेतीं? तो क्या रोहित भैया ने कभी ज्योति दी से प्यार किया ही नहीं था? इतनी बड़ी सजा वह उनको कैसे दे सके कि उनकी माँ की मृत्यु के समय भी उन्हें अकेला छोड़ दिया? कैसे झेला होगा बेचारी ने वह समय? ऐसा नितांत अकेलापन तो उन्हें मार ही डालेगा न? इन लोगों ने औरत की मजबूरी को उसकी असमर्थता समझ लिया है? जरूरी है उन्हें तस्वीर का दूसरा पहलू दिखाना, यह महसूस कराना कि ज्योति दी के रूप में उन्होंने कैसा हीरा खो दिया है|

जिस अभाव को इतना विराट बना दिया गया था, उसे दूर करने के लिए ज्योति दी को साथ लिए, कितने ही अनाथालयों के चक्कर काटती फिरी थी मैं! वहाँ जाकर एक नया ही संसार खुला था हमारे समक्ष... कैसी विडंबना? कैसा विरोधाभास? कि कहीं एक बच्चे के लिए तरसते रोहित भैया और ज्योति दी जैसे लोग अपनी पूरी जिंदगी बर्बाद कर डालते हैं| तो कहीं बड़े-बड़े कमरे, बिना प्यार और अपनापन का संघर्ष पूर्ण भविष्य लिए, पालनों में लेटे सैकड़ों दुधमुँहे नन्हें नौनिहालों से भरे हुए हैं। संख्या में कुछ कम लड़के पर बहुत ज्यादा लड़कियाँ, बेहद सुंदर और प्यारी... कैसी होगी वह मजबूरी जब किसी माँ ने इन्हें अपने से अलग किया होगा? कौन होता है? इतना अमानवीय!... वह माँ? उसका समाज? या नियति? क्या होती है ये जिंदगी? किसे कहते हैं खुशी? मैं दार्शनिक हो उठी थी... कि अगर थोड़ा सा भी निस्वार्थ प्यार और अपनापन कमा लिया, तो बस इसे ही एक सफल जिंदगी कहा जा सकता है।

गोद लेने की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं होती। ढेर सारी औपचारिकताएँ हैं, कानूनी कार्यवाहियाँ हैं... पर हमने अपनी सारी स्थिति एक समाजसेवी संस्था की प्रमुख मिसेज़ फर्नांडिस के समक्ष खोल कर रख दी थी। दोस्ताना जैसा माहौल बन गया था हम तीनों के बीच, और नन्हीं नंदिनी पूरी कार्यवाही के बिना ही घर आ गई। कानूनन यह सही तो नहीं था, पर मिसेज़ फर्नांडिस जानती थीं कि औपचारिकताएँ तो समय के साथ-साथ पूरी कर ही ली जाएँगी| पर हम लोग अब नंदिनी के बगैर नहीं रहना चाहते थे| और नंदिनी को भी जब माँ मिल गई है तो वह एक दिन भी अनाथालय के माहौल में क्यों रहे? उसके घर आ जाने के बाद मुझे लगा कि जैसे मेरा पहला बड़ा काम पूरा हो गया हो, कि अगर मैं ज्योति दी को उनका घर वापस नहीं भी दिला सकी, तो भी जीवन जीने का एक सहारा तो उनके पास हो ही गया|

अब मैं अपना दूसरा कदम उठाने जा रही थी। जानती थी कि इस बार अपना पूरा भविष्य दाँव पर लगाने जा रही हूँ और परिस्थितियों ने अगर कोई गलत करवट ले ली तो फिर मेरे वश में कुछ नहीं रह जाएगा। पर अब ये रिस्क तो मुझे लेना ही था ... इस राह पर इतना आगे बढ़ जाने के बाद अब मेरे सामने दूसरा कोई विकल्प भी तो नहीं था।
 
योजनानुसार अगले दो दिनों तक मैं घर नहीं लौटी और तीसरे दिन वहाँ जाकर मैंने अपने एबॉर्शन का सर्टिफिकेट सबके सामने रख दिया। क्योंकि अभी मैं मानसिक रूप से बच्चे के लिए तैयार नहीं थी इसलिए एबॉर्शन करा लिया था।

क्रमशः

मौलिक एवं स्वरचित

श्रुत कीर्ति अग्रवाल
shrutipatna6@gmail.com