For loved ones in Hindi Moral Stories by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | अपनों के लिये

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अपनों के लिये

नीलम कुलश्रेष्ठ

आज पल पल न जाने कितनी बार शलभ के साथ जिया है, उसके ऑफ़िस होने पर भी । अब कुछ क्षण ही रह गये हैं, उसक वापिस घर आने में । वह सुन कर बहुत चौंकेगा, उसने कहा भी था, “मैं तुम्हारे व्यक्तित्व के इस पहलू को इसी क्षण संपूर्ण मानूँगा ।” हो सकता है अत्याधिक ख़ुशी में अपनी आदत के मुताबिक बाँहों में उठा कर एक चक्कर भी लगवा दे । तब मैं चारों तरफ गोल घूमती हुई वस्तुओं को देख कर चीखती हुई कहूँगी, “रुको, रुको शलभ, वर्ना मैं मर जाऊँगी ।”

वह मुझे धम् से पटकता हुआ कहेगा, “यार! तुम बड़ी डरपोक हो । इतनी ख़ुशी को भी ‘सेलिब्रेट’ नहीं करने देती ।” उसके इस बेहूदा ‘सेलिब्रेशन’ पर मुस्करा भर दूँगी ।

बाहर स्कूटर की घर्र-घर्र ख़त्म हो गई है । कॉलबेल के बजने से पहले ही दरवाज़ा खोल देती हूँ । वह सामने खड़ा है ।

वह ऑफ़िस की बोझिल आँखों से देखते हुए एक थकी मुस्कराहट फेंकता हुआ बगल से निकल कर सोफ़े पर निढाल गिर जाता है । मैं समझ नहीं पाती शुरुआत कहाँ से करूँ । चुपचाप साप्ताहिक से अपने उपन्यास की स्वीकृति का पत्र उसकी तरफ खिसका देती हूँ ।

“रियली ? वेरी गुड !” वह कहता है । पहली बार मालूम होता है ठंडक भी किस तरह गर्म होती है ..... कहाँ गया शलभ का ऑफ़िस के बाद एक बेचैन, खोजता हुआ स्वर, “शशि ! शशि ! कहाँ हो ? देखो तुम्हारी कितनी कहानियों की स्वीकृति आ गई है ।”

मैं ड्रेसिंग टेबिल के सामने ‘आइ-ब्रो’ आखिरी बार संवारती खड़ी हूँ । वह मेरे आगे डाक का ढ़ेर डाल देता है, ‘तू बहुत केयरलेस है । बाहर लेटर-बक्स में से निकाल कर लाया हूँ ।’ वह बहुत लाड़ में ‘तू’ कहने लगता है ।

मैं हमेशा की तरह अपने लिये विशेषण सुन कर मुस्करा भर देती हूँ । कुछ कह पाने जैसी स्थिति नहीं रह पाती । वह और अधिक लाड़ में बाँहों का घेरा डाल देता है, “ओ ! यू आर ए गिरेट ।” वह ग्रेट को उत्साह में ‘गिरेट’ कहने वाली आदत में बोला ।

वह कार्ड को मेज पर रखकर टाई की ‘नॉट’ ढीली कर रहा है उसकी एक नजर अख़बार की मोटी लाइनों पर भी फिसलती जा रही है । वह हमेशा से इसे ‘रिलेक्सेशन’ मानता आया है ।

सूनापन मन प्राण से निकल कर हाथों में आ गया है, बुझे हुए हाथों से चाय बनाती हूं । शक्कर को प्याले में डाल कर चम्मच से हिलाते हुए अधटूटा वाक्य, ‘चाय बन गई है ।’

अख़बार के पीछे से एक हाथ निकल कर प्याले को थाम लेता है । मैं वहाँ से उठ कर मिक्की को दूध पीने के लिये जगाती हूँ । उसने अभी नया-नया ही स्कूल जाना शुरू किया है । स्कूल से आ कर कुम्हलाया हुआ सो रहा है । जगने में थोड़ी-सी आनाकानी के बाद ख़ुशी से बोला,`‘डैडी !’`

`‘हूँ’ `एक रूखी आवाज़ ! मिक्की चुपचाप दूध का गिलास थाम लेता है ।

मैं प्याले में से एक घूँट ‘सिप’ करती हूँ, दृष्टि सामने की दीवार पर फिसल जाती है । दीवार के बीच में से कुछ प्लास्टर उखड़ जाने पर उसकी जगह पेंटिंग कर के उसे छिपा दिया था। अब तो किसी मिस्त्री से बात करनी ही पड़ेगी । पेंटिंग इस खुरदरी जगह को छिपा नहीं पा रही है ।

“मम्मी ! मैं दीपू के पास जा रहा हूँ ।” मिक्की एक सांस में दूध ख़त्म करता हुआ कहता है ।

मिक्की, पहले पप्पी तब दीपू-अपनी रूखाई का जैसे प्रायश्चित !

मिक्की डैडी के गाल पर प्यार करता हुआ भाग जाता है ।

“अरे हाँ ! याद आया, आज वर्मा ने हम लोगों को बुलाया है । उसके लड़के का ‘बर्थ-डे’ है । जल्दी से तैयार हो जाओ ।”

“मैं तो आज न जा सकूँगी ।”

“क्यों?” शलभ बिना उत्तर प्रतीक्षा कर कहता है,“अच्छा, तो आज हम अकेले ही ‘हैपी बर्थ-डे टू यू’ गा आयेंगे ।” फिर ओढ़ी हुई गम्भीरता को ठेलता बचपना । पता नहीं कहाँ से इतनी चुस्ती आ गई है । बाथरूम में उसके ज़ोर से सीटी पर फ़िल्मी धुन निकालने की आवाज आ रही है ।

मैं पत्रिका के फड़फड़ाते पृष्ठों में इस सबको बंद कर देना चाहती हूँ – उसका बाथरूम से गाऊन कसते हुए निकलना, शीशे के आगे तरह-तरह के कोण से बालों को सँवारना । शायद अब भी वह ज़िद कर उठे- ``शशि ! तुम्हें चलना ही होगा । ``

तब मैं खीझती हुई लेकिन मन-ही-मन आहत भाव को दबाती, मुस्कराती हुई उठ जाऊँगी । उसके साथ कभी भी कहीं भी जा सकती हूँ ।

“अच्छा ! तो शशि डीयर ! हम चल रहे हैं ।” वह मुझ पर झुकता हुआ कहता है । एक क्षम बाद अपने में मस्त चला जाता है ।

उसने शादी के पहले दिन ही कहा था, “मैंने बहुत सी लड़कियों को समझा है ....” मेरी आँखों में कैसी-कैसी तो शंका की परछाईयाँ उभर आई थीं । उन्हें देख कर बोला था, “न न, ऐसी-वैसी कोई बात नहीं है। मेरा मतलब है मैंने तुमसे खास तौर से इसलिये शादी की थी कि एक लेखिका को भी अच्छी तरह जानने का अवसर मिल सके ।”

तब मन में कुछ कसक गया था, मैं अपने दोनों व्यक्तित्वों को हमेशा अलग-अलग मान कर चली थी । कभी भी अपने लिखने वाले व्यक्तित्व को स्वयं की ज़िन्दगी पर हावी नहीं होने दिया था लेकिन यहाँ तो शलभ ने दोनों को एक करके ज़िन्दगी की शुरुआत की थी ।

सब्जी की टोकरी मेज पर रख ली है, कुछ हल्का ही खाना बनाना है वह तो शायद ही खाये । घर के स्पंदनयुक्त क्षणों को पूरी तरह जीने के लिये मन और तन को कितना उलटा-पुलटा है । रात को देर से लिखने की आदत, अब न जाने कितने पीछे छूट चुकी है क्योंकि बैड पर करवटें लेता हुआ शलभ, “छोड़ो भी यार ! बहुत लिख लिया ।”

“बस दो मिनट रुको ।”

“तुम्हारी इस टेबिल लैम्प की लाइट में भी मुझे नींद नहीं आ रही है ।”

“तो मैं दूसरे कमरे में जा रही हूँ।”

“तब तो मैं और भी न सो पाऊँगा प्लीज़ ।”

मैं टेबिल लैम्प का स्विच बंद करके मेज़ पर पेन रखते हुए बैड की तरफ बढ़ती जाती हूँ ।

सिंक में सब्ज़ी रख कर नल खोल दिया है । उसे हाथों से रगड़-रगड़ कर साफ़ कर रही हूँ लेकिन छिद्रों में बहुत कुछ रह गया होगा...मैंने दोपहर को लिखने की आदत भी डालने की कोशिश की लेकिन शलभ का ऑफ़िस टाइम बदल गया । वह लंच के लिए दोपहप के दो बजे घर पर आने लगा । पड़ोसियों के-“मिक्की की मम्मी जरा यह बुनाई सिखाना, मेहमानों के लिये जरा बर्तन निकालकर देना, इस पायजामें की जरा काट बताना .” के बीच जैसे-तैसे तीन वर्षों में यह उपन्यास समाप्त कर पाई हूँ । कुकर में चमचा चलाते हुए, मिक्की के बाल काढ़ते हुए, कपड़े धोते हुए, घर को डेकोरेट करते समय पता नहीं मस्तिष्क में उगने वाले कितने विचारों का गला घोंटती रही हूँ । कितना तो चाहा था नैनीताल में मिलने वाले चौदह वर्षीय कुली छोकरे भी मर्मस्पर्शी जीवन कथा को अपनी कलम में बाँधूं....लेकिन.... ।

करोड़ों रेंगने वाले जीवों में कुछ विशिष्ट बनना चाहा था । अपना मार्ग, अपनी रुचि के अनुसार चुना था- लेखन । आत्मविस्मृत-सी इसी में डूबती उतराती रही थी पर उस दिन नशा कुछ उतर गया था....कालेज यूनियन का उद्घाटन करवाना था । मैं सेक्रटरी थी । कुछ लड़कियों से मैंने सलाह लेनी चाही थी, “मैं तो उद्घाटन के लिये शिवानी को बुलाना चाहती हूं ।”

“शिवानी कौन?”

सिर पर हथौड़ा-सा पड़ा था । जिनके लिये मुझे ‘क्रेज’ था वे उनसे अनजान थीं । यह बात मैंने अनु दा से भी कही थी । उन्होंने बहुत सहज हो कर कहा था, “साहित्य में उन लोगों को रुचि नहीं होगी और फिर तू भी तो हर किसी ‘प्लेयर’ का नाम नहीं बता सकती है ।”

“यह तो ठीक है । लेकिन कभी उन्होंने पत्रिकायें उलटी-पुलटी भी नहीं होंगी?”

“अगर रुचि नहीं है तो चीज़ सामने होते हुये भी नहीं दिखाई देती है !”

मुझे लगा था सब अस्थिर हो गया है, गलत हो गया है । उस दिन मैं देर तक जागती रही थी, उद्विग्न-सी रात के दो बजे बिस्तर से उठ कर अपनी डायरी में लिखा था- हम किसके लिये और कौन-सी प्रगति के लिये हाथ-पैर पीट रहे हैं ? दुनियाँ में आदिकाल से इतने वैज्ञानिक, लेखक, राजनीतिज्ञ व विचारक हुये हैं । मैं उनमें से कितनों को जान पाई हूँ ? या कितनों को जानने की क्षमता रखती हूं ? शायद इस दुनियाँ में एक नाम ही सबके द्वारा जाना जाता है और वह है ‘ईश्वर’ चाहे विवाद के रूप में ही । क्यों न हो....

दूसरे दिन मन आश्चर्यजनक रूप से शान्त था । सुनहरी दुनियाँ के उन शीतल झोंको के बीच लॉन में बैठ कर मैंने फिर अपनी डायरी में लिखा था -- ‘पहली बार लगा है अपने देश के योगी मूर्ख नहीं है यदि उनकी यह ‘थियरी’ ठीक है कि आत्मा परम ब्रह्म में लीन हो जाती है तो इससे अच्छा क्या है वे भी आदिकाल से स्थिर नाम ईश्वर बन जाते हैं यानि कि ‘ए पार्ट ऑफ द फेम’।’

पहली बार समझ में आया था, आदमी दुनियाँ में भी कोई काम करता है ख़ासकर किसी-किसी कला को अपनाता है तो सिर्फ स्वयं की संतुष्टि के लिये । प्रसिद्धि के लिये अपनाना तो मूर्खता है । मैं अब सोचती हूँ यदि मैं लिखना छोड़ दूँ तो कहीं कुछ नहीं बदलेगा । ढेर-सी पत्रिकायें यों ही छपती रहेंगी, कोई भी उनमें रिक्तता का अहसास नहीं कर पायेगा । किसी पत्रिका के जिस अंक में मेरी रचना छपती है, उससे अगले अंकों को देख कर क कसक-सी दिल में उठती है, कहीं भी तो चिह्न नहीं है कि ‘शशि’ इसमें छप चुकी है ।

सब्जी जलने की गंध से चौंकती हूँ । जल्दी से उसे आग से नीचे उतार लेती हूँ लेकिन अब भी कुछ जलने की गंध रह ही जायेगी । तभी तो शलभ कहता है, ‘`आदमी को ठोस प्रेक्टिकल होना चाहिये । यह क्या उधर भावनाओं के संसार में गुम हैं और इधर आज का आदमी हाथों से फिसला जा रहा है ।”

गैस बंद करके बाहर आ जाती हूँ । कमरे में आ कर चौंक जाती हूं । मिक्की किवाड़ों पर चॉक से ‘माडर्न आर्ट’ बनाने में लगा हुआ है । उसे बहलाने के लिये उसके हाथ में एक तस्वीरों वाली किताब पकड़ा देती हूँ ।

वाद-विवाद में बोलती गोरी-सी लड़की का तमतमाया हुआ चेहरा आँखों के आगे घूम जाता है... मैं तो पति सेवा के बढ़ कर राष्ट्र सेवा को समझती हूँ.... मैं ठहरी-ठहरी आँखों से कमरे की एक-एक वस्तु को देखती हूं... कोने की गोदरेज आलमारी किताबों का रैंक, हेंगर पर टँगे हुए कपड़े, मिक्की की आलमारी में बेतरतीब पड़ी हुई किताबें... अदृश्य । शलभ और मेरे हस्ताक्षर । वह मनमौजी अंदाज में कह रहा है, “तुम क्यों आने वाली ढेर-सी प्रशंसा के लिये इतना घुटती रहती हो ? किसी भी क्षण को सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पाती, अपने जीवन को बूँद-बूँद करके पी नहीं पाती ।”

“मैंने तो प्रशंसा कभी नहीं चाही ।”

“फिर क्यों इतना लिखती हो ?”

“शलभ तुम जानते नहीं हो, कुछ काम आदमी को अपनी मजबूरियों के कारण करने पड़ते हैं । ये मजबूरियाँ भी मन की होती हैं । इन मजबूरियों में ही उनका आन्तरिक सुख निहित होता है ।”

“तो इन मजबूरियों को बदला नहीं जा सकता?”

“.......”

मैं बहुत दिनों से महसूस कर रही हूँ, शलभ कुछ बदलता जा रहा है, अनदेखी दूरियां हमारे बीच उभर रही हैं जिन्हें मैं कोई भी नाम नहीं दे सकती लेकिन उनकी उपस्थिति हम दोनों ही महसूस करते रहते हैं । बिना बात मेरी कमियां निकालना,मुझे कमतर या ग़लत साबित करना जैसे वह अपना अधिकार समझने लगा है। यह बोझिलता,हमारे बीच के ये अनदेखे तनाव मेरे लेखन,मेरी बढ़ती प्रसिद्धि के कारण हमारे अलावा मिक्की को भी ढोनी पड़ती है । वह सहमा-सहमा-सा दोनों के चेहरों को गुपचुप देखता रहता है । उसका दयनीय मार्मिक चेहरा देख कर मेरे अन्दर कुछ अकुलाने लगता है । शलभ तो लिखने सम्बन्धी किसी बात के उठते ही एक औपचारिक गंभीरता ओढ़ लेता है । तब मैं उसे झिंझोड़ कर पूछना चाहती हूं, “अलगाव किसलिये है? तुम कहो तो मैं लिखना छोड़ दूँ ?”

लेकिन चाह कर भी पूछ नहीं पाती । मैं जानती हूँ मेरे अन्दर की लेखिका को सीधे मारने का दायित्व वह कभी भी नहीं लेगा चाहे भले ही तड़पा-तड़पा कर उसे मार डाले ।

अब तो लगता है कि यह दायित्व मुझे स्वयं ही ढोना पड़ेगा । अचनाक मेरी आँखें एक पुस्तक में प्रकाशित डॉ .रेनु सक्सेना की कविता की अंतिम पंक्तियों पर पड़तीं हैं। मेरी आँखें सजल हो बह उठीं है ---

``मेरा अपना घर है

[मेरी अलग पहचान बिना ]

डरती है कलम काग़ज़ पर अंगारे भरने से

कहीं विद्रोह की परछाइयाँ

उन्हें ग़मगीन न बना दे

जिन्हें मै हमेशा

ख़ुश देखना चाहती हूँ.”

- श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ