raja mirendr singh ju dev in Hindi Book Reviews by ramgopal bhavuk books and stories PDF | राजा मीरेन्द्र सिंह जू देव‘ प्रेमानन्द’

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राजा मीरेन्द्र सिंह जू देव‘ प्रेमानन्द’

राजा मीरेन्द्र सिंह जू देव‘ प्रेमानन्द’ चर्चित कवि के साथ कथाकार

रामगोपाल भावुक

राजा मीरेन्द्रसिंह जू देव ‘प्रेमानन्द’- वे इस क्षेत्र की मगरौरा गढ़ी के प्रसिद्ध राजा रहे है। वे एक सहृदयी कवि भी रहे हैं। उनकी विरहिणी राधा एक प्रसिद्ध खण्ड काव्य रहा है। इसके अतिरिक्त रण बंका हमीर ऐतिहासिक परिवेश पर लिखा उपन्यास है। जो अप्रकाशित है। उनकी अनेक रचनायें भी है। मैथली शरणगुप्त जी उनके यहाँ आते रहे हैं। महाराजा उन्हें अपना गुरु कहते थे। इनके अतिरिक्त उनकी रचनाये निम्न हैं-कीर्ति- कौमुदी, नारद- मोह,आह्लादनी, प्रेम-सुधा, वीर-पद्मिनी, जाटों की दिल्ली विजय, सिंहनाद , पुकार एवं पिछोर दर्शन।

उनकी धर्मपत्नी रानी सत्यवती की ‘श्र्गार- मंजरी’ चर्चित कृति रही है। देश के चर्चित समीक्षक डॉ0 गंगा सहाय प्रेमी के अनुसार- इसमें संग्रहीत रचनायें भक्ति-भाव से ओत-प्रोत हैं। अधिकांश पद कृष्ण-लीला से सम्बन्धित हैं।

इसका अर्थ है राजा साहब एवं रानी सत्यवती जी दोनों ही कृष्ण भक्त थे। रानी सत्यबती राज परिवार में रहते हुए भक्ति भाव में सरावोर रचनाओं का सृजन करती रहीं।

राजा साहब ने अपनें पूजाघर को रमणरेती वृन्दावन से लाई हुई रेत विछाकर उसे रमणरेती वृन्दावन धाम का रूप प्रदान किया था। महाराज उसमें बैठकर घन्टों साधना करते थे। वे अपने पूजाधर को वृन्दावन कहते थे। इस तरह महाराज जी कृष्ण भक्ति में घन्ओं गोते लगाते रहते थे।

अब मैं आपका ध्यान उनके उपन्यास ‘रण बंका हमीर’ पर केन्द्रित करना चाहूँगा। इस नगर के चर्चित कवि नरेन्द्र उत्सुक के अनुसार- पंचमहल की माटी काव्य संकलन से- रण बांकुरा राव हमीर यश, किला पिछोर का कहता है

जनकू काका के साहस की,कीर्ति जनकपुर गाता है।

ये पन्तिंयाँ महाराजा मीरेन्द्र सिंह जू देव कें ‘रण बंका हमीर ’ उपन्यास की याद दिला देती है। राव हमीर पिछोर किले के राजा थे। वे एक न्यायप्रिय राजा थे। पुत्र कें अपराध करने पर उन्होंने उसे प्राण दण्ड दिया था। उनकी न्याय प्रियता कें किस्से जन जीवन में आज भी सुनाई देते है। उपन्यास को इन्हीं जन श्रुतियों कें आधारों पर संजोया गया है। इसमें राजा हमीर की वीरता के किस्से हैं। यह उपन्यास पिछोर किले का ऐतिहासिक दस्तावेज है। मैंने उनकी इस कृति का अनेक वार पढ़ा और गुना है।

यह गीता के दर्शन से ओतप्रोत कृति है। इसमें गढ़ पिछोर के महाराजा हमीर की वीरता के अनेक किस्से समाहित हैं। किताब घर दिल्ली सें प्रकाशन की स्वीकृति के बाद यह आज तक अप्रकाशित रह गई है। इसका कारण कृति की वृहदता ही मेरी समझ में आती है। कृति पठनीय एवं संग्रहणीय है।

अब मैं यहीं उनकी सन् 1985 ई0 में प्रमोद प्रकाशन पहाड़ गंज दिल्ली से प्रकाशित कृति ‘सारस्वत सुषमा’ की चर्चा करने जा रहा हूँ। कृति मेरें सामने है। इस कृति को राजा साहब ने मुझे 26.01.1986 को सस्नेह अपने हस्ताक्षर कें साथ प्रदान की थी। यह उनके समय के अध्यापकों का संस्मरण समुच्चय है। इसमें सन् 1924 के पूर्व से इस क्षेत्र के अधापकों की मधुर स्मृतियाँ संग्रहीत की गईं हैं।

मैं और रमाशंकर रायजी राजा साहब की बैठक मैं मैजूद थे। किसी प्रसंग बस राज साहब ने कह दिया-‘यहाँ तों धूल ,धान, धोखे की भरमार है।’

मेरे मुँह से निकल गया-‘यह विश्व में कहाँ नहीं है?’

राजा साहब ने तत्काल उत्तर दिया-‘ आप ठीक कहतें हैं। अब मेरी इस तरह की सोच नहीं रहेगी।’

आज मैं सोचता हूँ- कितना बड़ा व्यक्त्वि? , बात को इतनी सहजता से स्वीकार कर ली, और इस बात की चर्चा अपनी कृति ‘सारस्वत सुषमा’ में कर डाली।

राजा साहब भी एक आदर्श शिक्षक रहे हैं। वे डबरा नगर के लोगों को हिन्दी बिषय निःशुल्क पढ़ाया करते थे। आज भी इस नगर में उनके अनेक छा.त्र मिल जाते हैं। जो उनकी पढ़ाने कीष्शैली की प्रशंसा करते रहते हैं। मुझे अपने उपन्यास ‘रत्नावली’ के लेखन से पूर्व सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ जी के ‘तुलसीदास’ खण्ड काव्य को वे लगातार तीन दिन तक उसकी व्याख्या कर समझाते रहे। उनके वे शब्द आज भी मेरे कानों में गूँजते रहते हैं। इस तरह वे हम रचनाकारों केा लेखन में सहयोग कर आगे बढ़़ने कें लिये प्रेरित करते रहते थे।

‘सारस्वत सुषमा’ का प्रारम्भ अपनी जागीर के विद्यालय मगरोंरा से किया है। उस समय शिक्षक रामाधार बाजपेई के कार्य से वे बहुत पभावित थे। वे कहते हैं- मैं राज पुत्र था पर स्कूल में किसी प्रकार की सुविधा या रियायत नहीं थी। सबके साथ समान व्यवहार शिक्षक की विशेषता थी।

सन् 1924 ई0 अजमेर वोर्ड की हाई स्कूल की परीक्षायें विकटोरिया कॉलेज यानी महारानी लक्ष्मीवाई कालेज ग्वालियर केन्द्र से दी थी। राज परिवार से परिचित शिक्षक डयूटी पर होने पर भी उनसे परीक्षा में सहायता लेने का भाव ही इनके मन में जाग्रत नहीं हुआ। इस तरह शिक्षकों के लिये सम्मान का भाव इनके मन में विद्यार्थी जीवन से ही समा गया था। इस कृति में उस समय से लेकर वर्तमान तक के श्रेष्ठ शिक्षकों की चर्चा की गई है। जिनमें रमाशंकर राय के साथ रामगोपाल तिवारी ‘भावुक’ के उपन्यास लेखन की चर्चा भी की गई है। इसके अलावा भगवान स्वरूप शर्मा, वेदराम प्रजापति‘मनमस्त’ विजय शंकर वाजपेई एवं चिन्तामणि गुप्ता आदि अनेक शिक्षकों की चर्चा कें साथ चिम्मान चपरासी की चार्च भी है।

वर्ष 1981 एवं 1983 में मगरोरा राज्य की पंचमहल बोली पर, उपन्यास मंथन और बागीआत्मा के पहाड़गंज दिल्ली से प्रकाशन पर उन्होंने अपने गोबिन्द शिक्षा संस्थान डबरा से उपन्यास कार रामगोपाल भावुक का नागरिक अभिनन्दन कराया था।

राजा साहब ‘सारस्वत सुषमा’ कृति के पृष्ठ उन्नीस पर लिखते हैं-‘मेरे बड़े भाई राजा राम सिंह स्वर्ग सिधार चुके थे। इसके वाद मैं मगरौरा का जागीरदार बन गया। सन् 1938 ई में मैं पहले मजलिस आम का मैंम्बर था। चुनाव होने पर नई राज सभा में मुझे निर्विरोध चुन लिया गया।’ इस तरह राजा साहब सिन्धिया परिवार जी कें नजदीक आते चले गये।

कृति के अन्त में गीता एवं महाभारत के उपदेश देंकर पाठकों के जीवन को सवाँरने की कोशिश की है। इससे कृति की उपदेयता बढ़ गई है।

इस तरह यह कृति इस क्षेत्र कें आदर्श शिक्षकों की स्मृति दिलाती रहेंगी। साथ ही इस क्षेत्र की साँस्कृतिक विरारसत को भी धरोहर की तरह सवााँर कर रखा जा सकेगा। इसके पठन पाठन में पाठक का मन जुड़ा रहता है। कृति संग्रहणीय बन गई है। इसके लिये भी राजा सहब कों याद किया जाता रहेगा।

राजा साहब के समय के कवि नरेन्द्र उत्सुक जी ने पंचमहल की माटी काव्य संकलन में राजा साहब के काव्य संकलन‘कीर्ति किंजल्क’ से कुछ दोहे प्रकाशित किये हैं। इस कृति को बाल्मीकि से प्रारम्भ किया है-

बाह्य करुण अन्तर भयो,हृदय लगो लहरान।

बाल्मीकि करुणा बन्यो, कविता जन्म जहान।।

इसें वाद विद्यापति, कबीरदास, आदि क्र्रम से प्रत्येक कवि की प्रमुख रचना के साथ उनकी बिशेषातायें भी कलात्मक ढ़ग अंकित करते चले गये हैं। आखिर में कविवर मिलिन्द तक सभी को समाहित किया है-

लोह लोहिया खान को, कवि मिलिन्द गतिमान।

शान्ति निकेतन में रहो, उन्नत भाव प्रधान।।

इस समय मुझे इस कृति में राजा साहब के साहिित्यक गुरू मैथलीशरण गुप्त जी की समीक्षा में लिखा यह दोहा याद आ रहा है-

कंठ कंठ वाणी विमल,कर कर गुप्त किताब।

धन्य मैंथलीशरण कवि, अति श्रम बिना हिसाब।।

हमारी बैठकों में वे कहा करते थे, मेरे साहित्यिक गुरुदेव मैथलीशरण गुप्त जी अनेक वार मगरौरा में आते रहे हैं। उन्हें यहाँ की बन संम्पदा और नोन नदी अति मनोहर लगती थी। राजा साहब की गढ़ी की गुर्ज से गुप्त जी सारे दृश्य दिखते रहते थे।

राजा साहब पर अनेक पृष्ठ भी लिखे जाये फिर भी उनकी यश गाथा कम ही रहेंगी। आपकी सभी कृतियाँ पठनीय एवं संग्रहणीय है। मैं आज भी उनका हृदय से बारम्वार बन्दन अभिनन्दन करता रहता हूँ।

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सम्पर्क सूत्र- कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707