आज काफ़ी अर्से के बाद मैं कोई फ़िल्म देखने टॉकीज़ तक आई हूं। मेरी कॉलोनी के जिस शख़्स ने भी यह फ़िल्म देखी उसने इसकी तारीफ़ की। अपने भतीजे-भतीजी की ज़िद पर उन्हें यह फ़िल्म दिखाने लाना पड़ा। उनके साथ उनके दो दोस्त और भी हैं। सिनेमा हॉल में दाख़िल होते ही दाएं ओर की टिकट विंडो से मेरा भतीजा टिकट लेने लगता है। मैं हॉल की गैलरी में धीमे-धीमे आगे बढ़ती हूं।
मैं कुछ सोच में हूं कि मेरी नज़र गैलरी के बांई ओर खड़े एक जोड़े पर पड़ती है। लड़के की उम्र यही कोई 26-27 साल, क़द 5 फ़ुट 6-7 इंच, काली पैंट, ऑरेंज कलर की शर्ट, उस पर लाल टाई और कोको-कोला रंग की जैकेट पहने हुए। गोल चेहरा, घुंघराले बाल कुल मिलाकर एक अच्छी पर्सनैलिटी। लड़की की उम्र कोई 22 साल, गुलाबी शलवार सूट और उस पर हल्के हरे रंग का स्वेटर पहने काफ़ी खूबसूरत लग रही थी। नाक में छोटी सी नथुनी और लंबी चोटी।
मुझे लगा जैसे मुझे अपनी कहानी के लिए पात्र मिल गए। पति-पत्नी या भाई-बहन तो वह नहीं ही थे, यह मेरा अंदाज़ा था जो कि बिल्कुल ठीक था। फ़िल्म का इसी सिनेमा हॉल में ग्यारहवां सप्ताह चल रहा था। दोपहर 12 से 3 बजे का शो था। टॉकीज़ में भीड़ कम थी और हम 11:30 बजे ही वहां पहुंच गए थे।
थोड़ी देर में ही घंटी बजती है और हॉल के दरवाज़े खुलते ही लोग उस में दाख़िल होने लगते हैं। वह लड़का लड़की भी दाईं ओर की सीढ़ियां चढ़कर बालकनी की ओर बढ़ते हैं। मैं भी उनके पीछे-पीछे चलती हूं।
बालकनी के दरवाज़े से दाख़िल होते ही ऊपर की ओर सबसे पीछे से तीसरी कतार के कोने पर ही वह बैठ जाते हैं। मैं भी उस ओर बढ़ती हूं, लेकिन मेरी भतीजी कहीं दूसरी जगह बैठने की ज़िद करती है।
मैंने उससे कहा- 'तुम अपने दोस्तों के साथ इंजॉय करो। मुझे मेरी पसंद की जगह बैठने दो।'
वह मान जाती है और वह चारों लोग दूसरी साइड में बैठ जाते हैं। मैं इस जोड़े की ठीक पीछे वाली सीट पर बैठ जाती हूं। कुछ ही देर में फ़िल्म शुरू हो जाती है। वह दोनों ख़ामोश बैठे रहते हैं। कोई 10 मिनट के बाद लड़का लड़की से कहता है- 'सहर तुम्हें अकेले यहां आते हुए डर नहीं लगा? मुझे तो नीचे खड़े होने पर काफ़ी घबराहट हो रही थी।'
लड़की कहती है- 'यह तो सिर्फ़ मैं ही समझ सकती हूं साहिर कि मुझ पर क्या गुज़र रही है। घर पर सब से क्या कहूंगी? डर केवल इस बात का है कि हमें कोई देख ना ले। वरना पता नहीं क्या होगा?'
अच्छा, तो यह साहिर और सहर हैं। मुझे अपने किरदारों के नाम तो मिल गए। मैं उनकी बात सुनने के लिए अपना सारा ध्यान उधर ही लगाती हूं। कुछ देर दोनों के बीच ख़ामोशी छाई रहती है।
फिर लड़का कहता है- 'तुमसे एक बात पूछूं?'
'पूछिए...आज आपको जो भी कुछ पूछना है... पूछ लीजिए' -वह कहती है
'क्या तुम मुझसे सचमुच प्यार करती हो?' -साहिर पूछता है।
'नहीं' -कहकर लड़की उसकी ओर देखने लगती है।
'तो फिर तुम यहां क्यों आई हो? - साहिर कहता है।
'मैं अपनी जान हथेली पर लेकर यहां आई हूं और आप मुझसे ऐसा सवाल पूछ रहे हैं? क्या अब भी शक की कोई गुंजाइश है' -वह कहती है।
'सहर... मैं तुमसे बेहद मोहब्बत करता हूं। मैं तुमसे पहले कई बार मिला, लेकिन तब मेरे दिल में तुम्हारे लिए इस तरह की कोई फ़ीलिंग नहीं थी। तुम मेरे बारे में इस तरह से सोचती हो मुझे मालूम नहीं था। कब मैं तुमसे प्यार करने लगा? मुझे पता नहीं चला' - साहिर कहता है
'तो आपने मुझसे कभी कहा क्यों नहीं?' - सहर पूछती है
'कभी हिम्मत नहीं पड़ी। अगर तुम नाराज़ हो जातीं तो... मैं तुम जैसा दोस्त खो देता' -साहिर कहता है।
'एक बार कह कर तो देखते... कहते तो...मैंने तो जब से होश संभाला है, घर में आप ही का नाम सुना है। कोई लड़की किसी लड़के के बारे में जब से सोचना शुरु करती है, तब से मैंने आप ही के बारे में सोचा है। कोई और कभी मेरे ख़्याल में ही नहीं आया' - सहर कहती है।
वह कुछ देर रुक कर फिर बोलना शुरू करती है -'हां...मैं यह सोचती थी कि सिर्फ़ उसी से प्यार करूंगी, जिससे मेरी शादी होगी।'
'तुम भी तो कभी कुछ कह सकती थीं' -साहिर कहता है।
'मैं कैसे कहती... मैं लड़की हूं, मर भी जाती तब भी आप से नहीं कह पाती' -सहर कहती है।
'मुझे अपना हाथ दो' -वह अनुरोध करता है।
'नहींss...' -वह मना करती है।
'प्लीज़... प्लीssज़' -लड़का अपना हाथ बढ़ा कर उसका हाथ अपने हाथ में ले लेता है। वह भी अपना हाथ छुड़ाने की कोई कोशिश नहीं करती।
मैं महसूस कर रही थी कि उस वक्त दोनों की ही आंखों में कुछ नमी सी थी। दोनों काफ़ी देर ख़ामोश बैठे रहते हैं। कभी-कभी एक दूसरे को देख लेते।
'काश... यह हाथ हमेशा मेरे हाथ में रहता' -साहिर कहता है।
'हां...अगर आप में थोड़ी भी हिम्मत होती' -सहर कहती है।
'जैसे तुम में बड़ी हिम्मत है' -वह छेड़ता है।
'मेरी हिम्मत तो आप तब देखते जब अपना रिश्ता मेरे घर भेजते' -सहर कहती है।
'अब भेजूं?' -वह पूछता है।
सहर कहती है- 'अब तो बहुत देर हो चुकी है।'
साहिर कहता है- 'फिर'
'अब कुछ नहीं हो सकता' -वह जवाब देती है।
'क्यों?' -साहिर पूछता है।
वह ख़ामोश रहती है। फिर थोड़ी देर ख़ामोशी छाई रहती है। लड़का लड़की की आंखों से बह रहे मोतियों को अपनी हथेलियां उसके गालों से सटाकर उनमें ले लेता है।
'आज तुम बहुत खूबसूरत लग रही हो... बिल्कुल परी' -वह कहता है।
'आप मज़ाक़ क्यों कर रहे हैं? आज कोई और नहीं मिला क्या?' -सहर कहती है।
'नहीं... मैं मज़ाक़ नहीं कर रहा। सच कह रहा हूं' -साहिर कहता है।
वह उसकी आंखों के आगे घिर आई ज़ुल्फों को अपने हाथ से कान के पीछे ले जाता है।
कुछ ही देर में फ़िल्म का इंटरवल हो जाता है। बालकनी में लाइट जल जाती है। तीन-चार वेंडर चाय, कॉफ़ी चिप्स वग़ैरह की आवाज़ लगाते हुए अंदर आते हैं।
'चाय पियोगी?' -वह पूछता है।
'नहीं, कॉफ़ी.... पर 'पे' मैं करूंगी' - वह जवाब देती है।
'आज मैं...तुम पर उधार रहा' -साहिर कहता है।
'नुक़सान में रहेंगे' -वह मुस्कुरा कर कहती है।
वह दो कॉफ़ी लेकर पेमेंट कर देता है। वेंडर से एक कॉफ़ी मैं भी ले लेती हूं। जनवरी का महीना है और काफ़ी ठंड भी हो रही है। लड़की कॉफ़ी का घूंट भरती है।
'यह बहुत गर्म है' -वह कहती है और अपने पर्स से रुमाल निकालने की कोशिश करती है।
'यह मुझे दे दो' -साहिर कॉफ़ी का कप उसके हाथ से लेते हुए कहता है।
वह कॉफ़ी का कप उसे थमा देती है। पर्स से रुमाल निकालने के बाद वह अपना कप मांगती है।
साहिर अपना कप उसे थमा देता है और उसके कप को अपने मुंह से लगाते हुए कहता है- 'यह कॉफ़ी मैं पी लूंगा।'
वह कहती है- 'नहीं, यह मेरी झूठी है।'
'इसीलिए तो...' वह मुस्कुराकर जवाब देता है।
'अच्छा, तो तुम भी इसमें से एक घूंट पियो' -वह अपना कप आगे बढ़ाते हुए कहती है।
साहिर उसके कप में से एक घूंट कॉफ़ी पी लेता है। दोनों एक दूसरे की पी हुई कॉफ़ी को पीते हैं। उस वक्त दोनों को कितना आनंद महसूस हुआ होगा, यह मैं अच्छी तरह समझ सकती हूं।
इंटरवल ख़त्म हो जाता है और फ़िल्म फिर से शुरू हो जाती है। सारी लाइट्स बुझ जाती हैं और फिर पूरे हॉल में अंधेरा छा जाता है।
साहिर पूछता है- 'किसी को बता कर आई हो?'
'हां... अपनी ख़ाला को' -वह कहती है।
'क्यों? क्या तुम्हें उन से डर नहीं लगता?' -वह पूछता है
'नहीं...क्योंकि वह ख़ाला कम और दोस्त ज़्यादा हैं। उन्हें हमारे बारे में सब मालूम है' -वह कहती है।
'तुमने यह तो बताया नहीं, तुम्हारी शादी कहां हो रही है?' -वह पूछता है।
'बहुत दूर...यहां से सत्रह सौ किलोमीटर दूर मुम्बई में' -सहर बताती है।
'क्या करते हैं तुम्हारे होने वाले शौहर?' -वह पूछता है
'एक्सपोर्ट का बिज़नेस है' -वह जवाब देती है।
'शादी कब है?' - साहिर पूछता है।
वह कहती है- 'कल मेंहदी का दिन है। उसके तीन दिन बाद मेरी शादी है। आप आइएगा ज़रूर।'
वह 'हां' में सिर हिला देता है।
वह कहता है- 'आज का यह दिन मेरे लिए कभी ना भूलने वाला दिन है।'
सहर कहती है- 'मेरे लिए भी।'
वह पूछता है- ' क्या तुम मुझे याद रखोगी मुझे?'
वह जवाब देती है- 'साहिर तुम नहीं जानते कि मैं कितना गहरा ज़ख्म लेकर जा रही हूं। शायद कभी ना भरने वाला।'
वह कहता है- 'नहीं, प्लीज ऐसा मत कहो। ज़ख़्म पुराना होने पर नासूर बन जाता है।'
'यह शादी मेरी मजबूरी है। वह मेरी अम्मी की पसंद हैं। अब्बू के गुज़र जाने के बाद से अम्मी की तबीयत ठीक नहीं रहती है। अगर मैं कोई ग़लत क़दम उठाऊंगी, तो उन्हें बहुत तकलीफ़ होगी' - सहर कहती है।
साहिर कहता है- 'कुछ दिन के लिए टाल तो सकती थीं या तुमने अपनी इंगेजमेंट के बारे में मुझे कम से कम बताया तो होता।'
वह कहती है- 'आपके दोस्त को बताया तो था। वह जब मुझसे मार्केट में मिले थे।'
साहिर कहता है- 'उसने मुझे नहीं बताया। उसने सीरियसली नहीं लिया होगा। एक बार तुम मुझे तो बता देतीं।'
वह कहती है- 'यह सब इतनी जल्दी में हुआ और फिर आपका मोबाइल भी तो आपके पास नहीं था।'
साहिर कहता है- 'हां, वह ख़राब हो गया था और मैंने तुम्हें अपना दूसरा नंबर दिया तो था।'
वह कहती है- 'तब तक मेरी सगाई हो चुकी थी।'
'क्या हमारा प्यार अधूरा रह जाएगा?' -साहिर पूछता है।
'शायद सच्चा प्यार अधूरा ही रहता है' -वह जवाब देती है।
साहिर उसका हाथ पकड़ते हुए कहता है- 'तो क्या हमारी यह आज आख़िरी मुलाक़ात है?'
'हां....शायद।' - वह गहरी सांस लेते हुए कहती है।
दोनों की आंखों से आंसुओं की क़तार जारी रहती है।
साहिर फिर कहता है- 'क्या आज के बाद हम फिर कभी नहीं मिलेंगे?'
वह जवाब देती है- 'शायद कभी नहीं।'
साहिर उसके हाथ की उंगलियों को पकड़कर उन्हें चूमता है। लड़की अपना सिर उसके दाएं कंधे से टिका लेती है। उसके हाथ की उंगलियां सहर के बालों को सहलाती रहती हैं।
अचानक बिजली गुल हो जाती है। फिल्म रुक जाती है। हॉल में खूब शोर मचता है। फ़िल्म ख़त्म होने में भी 10-12 मिनट ही रह जाते हैं।
सहर खड़ी हो जाती है- 'मुझे घर जाना है। स्टूडेंट्स घर पर मेरा इंतजार कर रहे होंगे।'
'तो आज उनकी छुट्टी कर देना' -साहिर कहता है।
'नहीं...उनके एग्जाम्स शुरू होने वाले हैं और अगले हफ़्ते से तो बिल्कुल ही छुट्टी होने वाली है' -वह कहती है।
'बैठो तो प्लीज़... फ़िल्म भी ख़त्म होने ही वाली है' -साहिर उसका हाथ धीरे से पकड़ कर खींच लेता है।
वह बैठ जाती है। दोनों ख़ामोश बैठे रहते हैं। वह उसके हाथ को अपने हाथ में पकड़े रहता है। लाइट आने पर फ़िल्म शुरू होती है और कुछ ही देर में ख़त्म हो जाती है। दोनों एक साथ उठकर बालकनी के बाहर आते हैं।
सहर कहती है- 'आप मेरे साथ ना चलें प्लीssज़। बुरा मत मानिएगा। कोई देख लेगा इसलिए कह रही हूं।'
दोनों एक दूसरे की आंखों में आंखें डाल कर देखते हैं। हाथ मिलाते हैं और फिर अलग-अलग हो जाते हैं। शायद इस जन्म में फिर कभी ना मिलने के लिए।
मैं सोच रही हूं 'जाने किस सदी के हैं यह लोग...क्या आज भी ऐसी मोहब्बत मुमकिन है?'