हमारे प्यारे पप्पू जी जाने अनजाने में अक्सर कुछ ना कुछ ऐसा कहते रहते हैं जो उनके दिमागी खोखलेपन पर एक मोहर सी लगा देता है | अभी कल ही उन्होंने एक बार फिर इस बात का सत्यापन किया और अबकी बार कहा है कि उत्तर भारतीय जहां से वे एवं उनके पूर्वज चुनाव लड़ते आ रहे हैं सुपरफिशियल राजनीति करते हैं, वह चीज़ों को अच्छे से समझते नहीं है और दिमागी रूप से भी उतने क़ाबिल नहीं है जितने की दक्षिण भारतीय होते हैं | अब ऐसे में क्या कहा जाए ?? तो इस हास्य व्यंग कविता के रूप में उन्हें प्रतिउत्तर के रूप में मेरा यह जवाब है :-
लीजिए आधे भारतीय अब सतही हो गए
अच्छे बुरे की उन्हें परख नहीं
बारीकियों की उन्हें समझ नहीं
वे घोषित बुद्धुु और बाकी बुद्धिजीवी हो गए
देखिए उसने फिर से गोबर ही उगला है
अजीब item है ये या फिर सिरे से पगला है
जब अरहर वाली दाल गली नहीं
तो अब चावल के चक्कर में पप्पू बगुला है
पहले कुर्ते पायजामे में ही दिखता था
तब तो खादी में ही फिरता था
जब जनता ने उत्तर से फेंक दिया तो
देखो जींस टी-शर्ट में घूमता दिखता है
ये तो पैदायशी ही बिन पैंदे के लोटे हैं
समय मुताबिक लुढ़का करते हैं
जब उत्तर से उत्तर मिल गया तो
लो अब दक्खन का रुख करते हैं
कुर्सी के चक्कर में ये कुछ भी कर लेते हैं
लगे ज़रूरी तो सबकुछ चेंज कर लेते हैं
खाना-पहनना तो छोटी बात है
कुर्सी के चक्कर में ये सरनेम भी चेंज कर लेतेे हैं
लेकिन अब हम ये जान गए हैं
हम होंगे सुपरफिशियल ये मान गए हैं
लेकिन ये चम्पू हैं कितने आर्टिफिशियल
यह हम भलीभांति पहचान गए हैं
ये भलीभांति पहचान गए हैं
यहां पर मैं एक और अपनी पुरानी कविता भी आप लोगों के साथ सांझा करना चाहूंगा जो कि हमने तब लिखी थी जब इनके परिवार की एक और सदस्या ने भी राजनीति में अपना अवतरण किया था , हमने कुछ इस तरह से लिखा था:-
लो लिया है एक और देवी ने भी अवतार
महिमा इस परिवार की है कितनी अपरंपार
अब तो निश्चित ही उत्तर प्रदेश, उत्तम प्रदेश बनेगा
भाग्योदय को इसके, कोई मोदी योगी अब ना टाल सकेगा
पुश्तों की ये दैविक सेवा अत्यंत कम जान पड़ी थी
दादी,अम्मा तो कर ना सकी तो पोती की ज़रूरत आन पड़ी थी
और फिर ये भी कैसे यहाँ आए बगैर रह जाती
शिमला के बंगलों में इनको अवधी लू की याद ना सताती ?
देखिए अब कैसे...सूती साड़ियां लहरेंगी, सर पर पल्लू उढ़ेंगे
स्किनी जींस और गुची के चश्मे, अब इनके तन ना चढ़ेगे
मेथी, बथुआ के फर्क को, इनकी तो पीढ़ीयाँ भी ना समझ सकी थी
फिर भी देसी वस्त्रों में लिपटी ये देवियाँ अवध के कण-कण से जुड़ी थी
वक्त आने पर दलितों के घर, ये खाना भी खा लेती हैं
गले लगा कर उनको उनके सारे दुख दर्द भी हर लेती हैं
ये तो हरदम यूँ ही उनके पास ही रहना चाहती हैं
पर कमबख़्त चुनावी तारीख़े 5 साल में क्यूँ आती हैं ?
खैर...
अब पीढ़ीयों के कर्मों का प्रतिफल पूरे प्रदेश को मिलेगा...
अब ना रुक सकेगा अमेठी
ये तो अमरीका बनकर रहेगा .
रितेश श्रीवास्तव "श्री "
ritushriva@gmail.com