Pachhyataap - 12 in Hindi Fiction Stories by Ruchi Dixit books and stories PDF | पश्चाताप. - 12

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पश्चाताप. - 12

ग्यारहवें भाग मे आपने पढ़ा शशीकान्त का पूर्णिमा के बच्चों के प्रति बदलाव उनके भविष्य को लेकर उसे पूर्वाग्रह से पीड़ित कर रहा था | एक माँ होते हुए भी वह शशिकान्त के बच्चे पर पूर्ण मातृत्व प्रेम नही लुटा पा रही थी | जैसे ही वह उसे गोद मे लेकर दुलार करती कि तभी उसके दोनो बच्चों का चेहरा सामने आ जाता और उसका हृदय द्रवित हो जाता,उस पर बाबू के आने के बाद शशिकान्त के बदले व्यवहार जहाँ वह पूर्णिमा के बच्चों को एक पूर्ण पिता का प्रेम और सुरक्षा मे कोई कसर न छोड़ता वहीं, गाँव आने के बात एक भी बार उन बच्चों की परवाह न करना यह सब पूर्णिमा को अन्दर से खाये जा रहा था | परिणामत: उसके अन्तरमन मे पत्नी और माँ के कर्तव्य को लेकर एक द्वन्द सा छिड़ गया जिसमे पत्नी को धराशायी कर एक माँ विजयी हुई और वह सुबह के मुँह अँधियारे ही घर छोड़कर अपने बच्चों के पास पिता के घर पहुँचती है | आगे....

मुकुल "क्या हुआ दीदी अचानक ऐसे? अकेले? बाबू कहाँ है? " पूर्णिमा बिना कुछ जवाब दिये मुकुल के गले लग फफ़क कर रोने लगी | मुकुल बहन की पीठ पर हाथ फेरता उसे शान्त करने का प्रयास करता है | कुछ देर पश्चात पूर्णिमा के सम्भलने पर मुकुल " बता दीदी क्या हुआ? " पूर्णिमा ने सारी बात मुकुल को बता दी | मुकुल "दीदी आपको इसप्रकार घर छोड़कर नही आना चाहिए था | आपके वहाँ से जाने के बाद शशिकान्तजी का फोन आया था मेरे पास, वह आपकी परवाह करते है |" पूर्णिमा "मै जानती हूँ |" मुकुल " जानते हुए भी ऐसा क्यों किया आपने? " पूर्णिमा मै उनकी पत्नी से पहले माँ थी और आज भी माँ हूँ |" मुकुल " फिर भी दी आपने सही नही किया | हो सकता है कि शशिकान्त जी की कोई मजबूरी हो? " पूर्णिमा "इसीलिए अब उन्हें स्वतंत्रत छोड़ आई हूँ |" मुकुल " आपने सही नही किया दी |" मुकुल कमरे से बाहर निकल शशिकान्त को फोन लगाता है " नमस्ते जीजू ! दीदी घर आ गई हैं ! उनसे बात करवाऊँ आपकी ? " शशिकान्त " नही! रहने दो मुकुल ! बस इतना ही जानना था |" यह कहते हुए शशिकान्त ने फोन काट दिया | मुकुल के माथे पर पूर्वाग्रह से प्रेरित एक साथ कई लकीरे साफ झलक रही थीं | वह पूर्णिमा से बिना कुछ कहे बाहर निकल जाता है | कई दिन बीत गये पूर्णिमा के इस प्रकार आने पर जैसे किसी को खुशी न थी | मुकुल का बर्ताव भी पूर्णिमा के साथ पूर्व की भाँति नही था , वह हँसी ठिठोली करना पूर्णिमा को अनेक प्रकार से हँसाने का प्रयास करना | पूर्णिमा के पिता भी चिन्तित से रहने लगे थे जिसे मुकुल की शादी की तैयारी मे व्यस्तता बाँट रही थी | पूर्णिमा पर घर के काम काज और दोनो बच्चो के अतिरिक्त मुकुल की शादी की जिम्मेदारी भी उस पर आन पड़ी थी , जिसे वह बखूबी निभा रही थी | इन व्यस्तताओ ने उसकी शशिकान्त और बेटे की दूरी को कुछ हद तक भुला रखा था ,किन्तु एकान्त मे जैसे ही प्रवेश पाती कि, शशिकान्त और बाबू के लिए मन बेचैन हो उठता | एक तरफ पूर्णिमा को अपना निर्णय कचोट रहा था तो दूसरी तरफ अपने दोनों बच्चों का तिरस्कार उसके अन्दर अन्तर्द्वन्द पैदा कर रहा था | कभी वह खुद को धिक्कारती तो कभी अपने भाग्य को कोसती | आखिर वह दिन भी आ गया जब मुकुल घोड़ी पर चढ़ने जा रहा था, किन्तु उसके चेहरे के उत्साह को जैसे चिन्ता ने ढक लिया हो | पूर्णिमा की आँखें भी गेट पर ठहर गई हों जैसे , उसका चेहरा जो बिना किसी बाहरी सौन्दर्यप्रसाधन के नाम के अनुरूप ही हमेशा कान्तियुक्त , किसी को भी सम्मोहित कर सकने मे सक्षम था | आज मेकप मे भी वह बात न थी | मुकुल के बहुत आग्रह के बाद भी शशिकान्त शादी मे नही आया | वहीं उसने पूर्णिमा को भी समझाना चाहा किन्तु , उसने पहल करने से मना कर दिया | मुकुल भी कहीं न कहीं बच्चों के भविष्य को ध्यान मे रखकर बहन की बात से सहमत तो था किन्तु साथ ही चिन्तित भी | मुकुल की शादी को छ: माह बीत चुके थे कि एक रात्रि मुकुल के बालों मे प्यार से उँगलियाँ फेरती मुकुल की पत्नी निशा "मुकुल! तुमसे एक बात पूँछूँ |" मुकुल आराम की मुद्रा मे "हुम्म! " निशा बड़ी सावधानी से मुकुल को परखती हुई "दीदी कब तक ऐसे रहेंगी? " मुकुल जैसे निशा के इरादे को समझते हुए उसका हाथ अपने सिर से हटाते हुए भौहों पर थोड़ा बल देकर "ऐसे से तुम्हारा क्या मतलब है? " निशा " मेरा मतलब आप समझते हैं कब तक इतने लोगो का खर्च आप अकेले उठाते रहेंगे? हमारी अपनी क्या कोई ज़िन्दगी नही है ? शादी के छ: महीने हो गये है जैसे लगता है बरसो , हम न ठीक से खा पाते है और न ही इच्छा पहन , घूमने की तो बात ही क्या है | तुमसे शादी करके तो मैने जैसे अपनी खुशी का ही गला घोट दिया | दीदी और उनके बच्चों की जिम्मेदारी आपकी नही है |" निशा की बात सुनकर मुकुल का चेहरा गुस्से से लाल किन्तु एक अच्छे पति की तरह संयम का परिचय देते हुए "निशा दी और उनके बच्चों की जिम्मेदारी हमारी है | तुम्हारी सोच कितनी छोटी है मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद न थी | यह कहते हुए मुकुल पलंग के उठकर सोफे पर लेट गया | निशा भी रात भर तिरस्कृत सी खुद को महसूस करती करवटें बदलती रही |हाँलाकि सुबह होते - होते नींद ने आँखो को इस प्रकार पकड़ा कि दोपहर बाद ही आँख खुली | करना भी क्या था उसे घर का सारा काम पूर्णिमा के ही जिम्मे था कभी - कभार रसोई मे थोड़ा हाथ जरूर बटा लिया करती किन्तु यह भी उसकी इच्छा पर ही निर्भर था | हाँलाकि पूर्णिमा को कभी इस बात की शिकायत न रही | रात वाली घटना के बाद निशा का बर्ताव पूर्णिमा के प्रति बदलने लगा, वैसे बदलाव के बीज तो पहले से ही पड़े थे किन्तु , अब वह धीरे -धीरे प्रकट भी होने लगे थे | पूर्णिमा भी अब निशा की भावना और व्यवहार को समझने लगी थी लेकिन मुकुल के स्नेह और अपनी प्राथमिकताओं से वह उसे अनदेखा कर देती थी | पूर्णिमा का सहनशील स्वभाव निशा को और भी निष्ठुर बना रहा था | सबकुछ समझते हुए भी पूर्णिमा मुकुल से कुछ न बताती निशा भी मुकुल के सामने अच्छे व्यवहार का दिखावा करती | एक रात पूर्णिमा बच्चों को सुला रही थी कि तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी दरवाजा खेलते ही चौंकती हुई "शशि ! तुम " शशिकान्त अन्दर आकर पूर्णिमा का हाथ थामते हुए "ये क्या किया पूर्णिमा तुमने क्या कमी थी मेरे प्रेम में ? ऐसे कोई घर छोड़कर आता है क्या? तुम्हें तो बाबू का भी ख्याल न रहा , वह तुम्हारा बेटा नही है? पूर्णिमा अश्रुपूरित नेत्र से शशि के गले लग जाती है | दोनो ही एक आसीम आनन्द आलिंगन मे प्राप्त हो ही रहे थे कि , तभी उसे हिलाते हुए पास मे लिपटकर सोता पूर्णिमा का बेटा "माँ ! मुझे बाहर जाना है |" पूर्णिमा की आँख खुल जाती है और सपने का वह सुख उसके नेत्रों को फिर से सींच जाता है |