Why do I see the budget? in Hindi Comedy stories by Suvidha Gupta books and stories PDF | मैं बजट क्यूं देखूं?

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मैं बजट क्यूं देखूं?


कुछ दिन पहले मेरे एक परिचित का फोन आया। किसान आंदोलन की वजह से उनके यहां, नेट नहीं चल रहा था। तो उन्होंने मुझसे पूछा,"क्या आपने बजट देखा?" मैंने कहा,"नहीं"। नहीं सुनकर उनके तो आश्चर्य की सीमा ही नहीं रही कि ऐसा भी दुनिया में हो सकता है कि कोई बजट ना देखे। उन्होंने घोर निराशा और उत्सुकता से पूछा,"क्यों?"। मैंने जवाब दिया,"समय नहीं था"। बस मेरा इतना कहना था, फोन पर ही मुझे उनके हाव-भाव से पता चल गया कि शायद मुझसे कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया है। इससे पहले कि मैं अपनी स्थिति स्पष्ट करती, व्यस्तता के चलते, उन्होंने गुस्से में फोन रख दिया।

मुझे बड़ा ख़राब लगा कि वाकई मैंने शायद बहुत बड़ा इवेंट मिस कर दिया और मेरा बजट ना देखना, मुझसे मेरी साक्षरता के सब प्रमाण-पत्र ना छीन ले या इससे पहले कि मैं समाज में, हंसी का पात्र बन जाऊं, झटपट सब काम छोड़कर, टीवी की तरफ लपकी। पहली खबर ही यह आई कि सोना-चांदी, तांबा सस्ता हो गया है। दिल ने कहा, तूने तो वैसे भी कौन सा खरीदना था। जो है वह ही चोरी के डर से नहीं पहना जाता, सब लॉकर में पड़ा रहता है, तो तुझे क्या ही फर्क पड़ता है सस्ता हो या महंगा। और आजकल तांबे के बर्तन किसी मध्यमवर्गीय रसोई में कम ही दिखते हैं क्योंकि दूसरे बर्तनों को ही संभालने में, बहुत समय और एनर्जी लग जाती है, तांबे के बर्तनों को संभालना इतना भी सरल नहीं। उसके बाद आया कि इंश्योरेंस सस्ती हुई। सुनकर दिल को ऐसे राहत मिली, जैसे पता नहीं कितनी चीजें इंश्योरेंस करवानी हो।

फिर आई बिजली की बारी। खैर, बिजली तो रोज़मर्रा की ज़रूरत है, कितनी सस्ती हुई ज़्यादा समझ नहीं आया, पर हां रूहानी सुकून ज़रूर मिला कि कुछ तो सस्ता हुआ है। यह अलग बात है, बिजली विभाग की धांधली के चलते, यह सस्ता होना आम आदमी को कितना नसीब हो या ना हो, खैर, यह तो सब किस्मत की बात है। अब किस्मत पर किसका जोर चलता है। फिर आया, स्टील और स्टील के बर्तन सस्ते हुए। अब आप तो जानते ही हैं, स्टील के बर्तनों का हाल, दादा खरीदे पोता बरते। अब रोज़-रोज़ तो हम स्टील के बर्तन खरीदने जाते नहीं। एक बार खरीद लिए तो उम्मीद है, इस जन्म में तो पूरा साथ निभा ही देंगे। फिर स्टील के बर्तन, सस्ते होने से आम आदमी को क्या ही ज़्यादा फर्क पड़ता है। हां, जिन्होंने नयी गृहस्थी बसानी हो, उन्हें शायद थोड़ा फर्क पड़े।

फिर आया, नाईलोन के वस्त्र सस्ते हो गए हैं। तो आजकल कौन सा कपड़ा स्किन फ्रेंडली यानी शरीर के लिए आरामदायक है और कौन सा नहीं, सबको समझ आ गई है। जब समझ नहीं थी तब कुछ भी पहन लेते थे, लेकिन अब तो ज़्यादातर सूती कपड़े ही खरीदे जाते हैं। और जब से मिनिमलिज्म यानी न्यूनतमवाद समझ आया है, तो बाज़ार जाने से वैसे ही कन्नी काटने लगी हूं। यूं भी इतनी महंगाई और बढ़ती उम्र में, न्यूनतमवाद ही, सुखी जीवन का आधार है।

लाल रंग में, डाउन हैंड आने लगा, तो नजर पड़ी, क्या-क्या चीजें महंगी हुई हैं। सबसे पहले नज़र आया- छोले, काला चना, चना दाल, मटर आदि महंगा हुआ है। एक बार तो दिल को इतना ज़ोर का धक्का लगा कि क्या बताऊं? तभी पति की बात जैसे आकाशवाणी की तरह कानों में पड़ी। जब भी बाज़ार सब्ज़ी या किराने का सामान लेने जाती हूं और कुछ भी महंगा दिखता है, तो मैं अनायास ही कह देती हूं कि यह तो बहुत महंगा है। तुरंत पति का जवाब आता है, "तुमने कौन सा क्विंटल दो क्विंटल खरीदना है। ढाई सौ ग्राम या आधा किलो लेना नहीं और शोर इतना।" और फिर मैं चुप करके जितना चाहिए होता है, उतना खरीद लेती हूं। अब ऐसा तो है नहीं कि छोले, काला चना, चना दाल या मटर खाने छोड़ देंगे। जितने के भी मिलेंगे, लेने तो हैं ही। वैसे लगता है, निर्मला जी को भी रसोई का सारा ही पता है, एक जैसी फैमिली के मिलते-जुलते वालों का ही रेट बढ़ाया है।

इसके अलावा इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद, मोबाइल, पेट्रोल डीजल, सिल्क कपड़ा, ऑटो पार्ट्स आदि महंगे हुए। यह तो ज़्यादातर हर बार ही महंगे होते हैैं और साल में कईं बार महंगे होते हैं। इसमें नया क्या है? जब जिसको जो खरीदना है लोग खरीदते ही हैं। ज़्यादा से ज़्यादा, थोड़ा रुक कर खरीद लेते हैं या एक-दो ई एम आई फालतू दे देंगे। चाहे कोई चीज़ कितनी महंगी हो, अमीर लोगों को तो कोई फर्क नहीं पड़ता और रही बात गरीब की,उसको दो वक्त की रोटी ही नसीब हो जाए, तो गनीमत है। उसके लिए तो यह सब चीजें, टीवी पर आने वाले विज्ञापन मात्र हैं।

बस सबसे ज़्यादा प्रभावित होता है, मध्यम वर्ग और उसमें भी सर्विस सेक्टर पर ही दोहरी मार पड़ती है। बिजनेसमैन को तो दो नंबर का जहां से बनाना है, वह बना ही लेता है। सर्विस सेक्टर वालों की तो सैलरी स्लिप भी खुली किताब है जिसमें से सरकार ने तीस परसेंट, अपना गिन कर काट ही लेना है। हम चाहे कितने ही पैर पटक लें। फिर भी.. इतना रोना तो हमें टैक्स देते हुए नहीं आता, जितना हमने नोटबंदी में, दो नंबर वाले लोगों को रोते हुए देखा। शायद हमारे लिए यह आदत बन गया है पर उनके लिए, उस समय टैक्स भरना नया-नया था। कभी-कभी लगता है, नौकरी पेशा मध्यम वर्ग की चमड़ी भी चिकनी हो गई है। बजट के बाद महंगी हुई चीजों का, हफ्ता दो हफ्ता तो धक्का लगता है, फिर धीरे-धीरे नए परिवेश में, घर की अर्थव्यवस्था पटरी पर आने लगती है। अब आप ही बताइए, एक मध्यमवर्गीय नौकरी पेशा आदमी का बजट देखना क्या ज़रूरी है? जब हमारे देखने और सोचने से कुछ बदलने वाला तो है नहीं, फिर अपना समय भी क्यों बर्बाद करना? आपके क्या विचार हैं कमेंट सेक्शन में कमेंट करके जरुर बताइएगा।