Baingan - 9 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | बैंगन - 9

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बैंगन - 9

मैंने बड़ी आत्मीयता से दोनों की ओर हाथ जोड़े। मगर ये क्या? वो दोनों आश्चर्य से मेरी ओर देखने लगे।
भाई ने कुछ अजीब सी नज़र से देखा, फ़िर बोला - तुमने किसी और को देखा होगा। ये तो तुम्हें पहचान नहीं रहे। इनसे कहां मिले होगे तुम? ये तो दोनों मेरे दोस्त हैं।
मैं एक क्षण को सकपकाया पर फ़िर मैंने थोड़ा जोर देकर उन दोनों से कहा - अरे, आपको याद नहीं, कल जब आप दोपहर में हमारे घर आए थे तब अकेला मैं ही तो वहां था। हम तीनों ने मिल कर ही तो भैया को ढूंढा था!
वो हंसे। बोले - क्या बात कर रहे हैं आप? आपके भैया तो न जाने कब से हमें घर बुला रहे हैं, पर हमारी ड्यूटी ही ऐसी है कि समय मिल ही नहीं पाता। हम इनके विदेश से लौटने के बाद एक बार भी इनके घर नहीं अा सके। हमेशा बाहर ही कहीं मिलना होता रहा।
अब भतीजा खीज कर बीच में बोल उठा - ओहो चाचू, आपको क्या हो गया है? फ़िर वही बोर टॉपिक लेकर बैठ गए। आपको क्या हो जाता है।
मैं मन ही मन गुस्से और आश्चर्य से तिलमिला उठा। हद हो गई, ये सब मिलकर मुझे झूठा सिद्ध किए दे रहे हैं, जबकि यही दोनों लोग तो मेरे साथ घर में लगभग बीस मिनट तक रहे, इतनी बातें की।
मैं कुछ और कहने के लिए मुंह खोलने ही वाला था कि भाभी की आवाज़ आई - रिलैक्स भैया, क्या हो गया है आपको।
भाई की बिटिया भी बोल पड़ी - क्या हम लोग अब बैठेंगे और खाना ऑर्डर करेंगे या यहां भी हम किसी खुफिया मिशन पर हैं?
सब हंस पड़े।
मैंने अपने पर बच्चों तक को कटाक्ष करते देखा तो बेहद अपमानित महसूस किया पर मैं किसी सही वक्त के इंतजार में अपने को जप्त करके चुप रह गया।
हम लोग एक बड़ी सी टेबल देख कर बैठ गए। भाई के मित्र वो दोनों पुलिस अफ़सर भी सबको हाथ हिला कर अभिवादन करते हुए चले गए।
अब भाभी और बच्चे दूर लॉन में घूमते खरगोश और बतख को देख कर चहकते हुए उस तरफ़ बढ़ गए।
उनके जाते ही भाई मुझसे बोला - विस्की पियेगा?
मैंने कहा - आपकी इच्छा है तो लेे लेते हैं। मैं ही ब्रांड देख कर ऑर्डर करता हूं, कह कर मैं बार की ओर बढ़ गया।
भाई दूर से भाभी और बच्चों की अठखेलियों में गुम हो गया।
बार के काउंटर पर पहुंचते ही मुझे एक बार फ़िर वो दोनों पुलिस वाले मिले।
- अरे, आप यहीं अा रहे थे? तो हम सब साथ ही आ जाते! उनमें से एक ने कहा।
अब दूसरे सज्जन मुझसे बोले - हां, आपके कहने के बाद याद आया कि हम लोग कहीं मिले तो हैं।
मैं उत्साह से बोला - हां, देखिए यही तो मैं कह रहा था कि आप लोग घर आए थे। आपने भाई की तलाशी ली थी।
वे फ़िर हंसे। बोले , नहीं - नहीं सर, हम आपके घर नहीं आए, आपके भाई तो हमारे दोस्त हैं। पर हां ऐसा ज़रूर लग रहा है कि आपसे हम पहले कहीं मिले हैं। आप किसी और घर में मिले थे।
- कमाल करते हैं आप। मुझे इस शहर में आए कुल दो दिन हुए हैं और मैं यहां पहली बार आया हूं। घर के अलावा मैं कहीं और गया भी नहीं।
मेरे झल्लाहट भरे तेवर देख कर वे दोनों जल्दी से निकल लिए। जाते- जाते बोले - सॉरी, फ़िर कोई गलतफहमी ही हुई होगी, हम नहीं मिले पहले।
मैं व्हिस्की लेकर भाई की मेज़ की ओर बढ़ गया। लेकिन मन ही मन मेरी उलझन बढ़ती ही जा रही थी। मैं सोच रहा था कि ये सब जो भी है, कोई षड्यंत्र, कोई शरारत, कोई मज़ाक... मैं इसका पर्दाफाश करके ही रहूंगा!
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