Baingan - 5 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | बैंगन - 5

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बैंगन - 5

तो प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र के डॉक्टर की सीख के अनुसार मैंने सीट पर इत्मीनान से बैठे- बैठे भी काफ़ी समय निकाल दिया। कुछ देर तक मैं इसी तरह भीतर बैठा रहा। लेकिन कुछ देर बाद ही मुझे बेचैनी शुरू हो गई। मुझे यह भी लगने लगा कि डॉक्टर साहब ने तो शांति से अपने मन के सभी भावों पर नियंत्रण रखते हुए वहां समय गुजारने की सलाह दी थी लेकिन मैं तो भारी उद्विग्नता के साथ यहां बैठा हूं। बल्कि एक तरह से इन सब लोगों को छकाने की प्रतिशोध भरी भावना लेकर बैठा हूं। रंजिश की भावना के साथ बैठने में शांति भला कैसे मिल सकती है?
यही हुआ।
मैं इतनी देर से अंदर बैठा हूं पर किसी को मेरी परवाह है ही नहीं। न किसी ने मेरी सुधि ली और न ही किसी ने मुझे आवाज़ ही लगाई।
लो, कहां तो मैं इन्हें छकाने वाला था और कहां ये सब अब मुझे ही छका रहे हैं।
क्या बात है? मुझे भूल गए क्या? किस काम में व्यस्त हो गए सारे के सारे। और अभी थोड़ी देर पहले तो खाना लग रहा था मेज़ पर।
क्या खाना खा भी लिया सबने मेरे बिना ही।
मुझे गुस्सा आने लगा। अजीब लोग हैं। मैं सोचने लगा कि मैं यहां आया ही क्यों? ये सब पहले तो ऐसे नहीं थे। न जाने इन कुछ सालों में ही ऐसा क्या बदलाव हो गया कि अब इनकी लीला ही समझ में नहीं आ रही है।
और देखो, बिल्कुल भी आवाज़ नहीं आ रही, शायद यहां से उठ कर भीतर किसी अन्य कमरे में चले गए हैं। चलो, भाई भुलक्कड़ है वो भूल गया हो कि घर में मैं भी आया हुआ हूं, पर भाभी और बच्चे तो सोचते। अभी ढंग से मुझसे बात भी कहां हुई है, इतने उत्साह से आकर चाचू- चाचू कह कर मेरे पास आए थे पर अब सब न जाने कहां चले गए। क्या बस नमस्ते करने तक का ही चाव था?
क्या करूं? क्या मैं ही आवाज़ लगाऊं?
लेकिन मैं आवाज़ क्यों लगाऊं, दरवाज़ा भीतर से ही तो बंद है। मैं खोल कर बाहर निकल ही सकता हूं।
लेकिन हद है, पूरे पैंतीस मिनट होने को हैं। कोई इतनी देर शौचालय में भी कैसे निकाल सकता है। इन लोगों को कुछ तो सोचना चाहिए। अभी तो मेरी मेहमाननवाजी में डायनिंग टेबल पर खाने के बर्तन सजाए जा रहे थे, और अब पलक झपकते ही मुझे भूल ही गए। किसी को चिंता नहीं है कि मैं ज़िंदा भी हूं कि मर गया।
चलो, इन अजीब लोगों से किसी और तरीके से निपटना पड़ेगा। फ़िलहाल तो मैं खुद ही बाहर निकलता हूं। जाकर देखूं तो सही कि सबके सब कहां चले गए।
अरे, कहीं मुसीबत में तो नहीं फंस गए। विदेश से नए नए आए हैं। मुझे इस तरह केवल अपने ही बारे में नहीं सोचना चाहिए था। ज़रूर उनकी भी तो कोई समस्या हो सकती है।
पर क्या होगी? अच्छे भले सबके सब घर में तो हैं, ऐसा क्या हो सकता है इन्हें?
नहीं नहीं, मुझे इतना ख़ुदग़र्ज़ नहीं होना चाहिए। निकल कर देखता हूं।
लैट्रीन की सीट पर बैठे बैठे मुझे चालीस मिनट से अधिक होने को आए।
मैंने उठ कर जल्दी से हाथ धोए, मुंह धोया और दरवाज़ा खोलने के लिए हाथ बढ़ाया।
लेकिन ये क्या? दरवाज़े की चिटकनी पर हाथ रखते ही मुझे बहुत ज़ोर से एक सायरन की बुलंद कानफोड़ू आवाज़ आने लगी। मैं घबरा गया।