Andhere Se Ujaale Ki Or in Hindi Motivational Stories by Mukesh Saxena books and stories PDF | अँधेरे से उजाले की ओर

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अँधेरे से उजाले की ओर

अँधेरे से उजाले की ओर

आज जब मैंने अमित को राह में देखा तो मैंने घृणा स्वरुप अपनी निगाहें फेर ली। वह मुझे अकस्मात् ही राह में मिल गया था जब कि मैं एक आवश्यक काम से जा रहा था। जब कभी भी वह मेरे सामने आ जाता तो मैं उसकी ओर देख कर घृणा स्वरुप थूक देता था। इसके साथ ही मेरे मन में क्रोध की ज्वाला भड़कने लगती थी परन्तु मैं बड़ी कठिनाई से अपने आप को बस में कर पाता था।

इस घृणा के साथ ही साथ मुझे उन बीते हुए दिनों की याद आ जाती थी जब मेरी और अमित की गहरी मित्रता थी। हम लोगों में भाईयों से भी अधिक प्यार था। कोई भी कार्य हम बिना एक दूसरे की मर्ज़ी के नहीं करते थे। अमित एक बहुत ही गरीब लड़का था। वह बहुत ही तीव्र बुद्धि का तथा एक होनहार व्यक्ति था। गाँव में अपनी छः वर्षीया बहन को छोड़ कर शहर में नौकरी ढूंढने आया था। उसके होनहार होने के कारण उसे यहाँ नौकरी भी जल्दी ही मिल गई थी। यहीं उसकी मित्रता एक दिन मुझसे हो गई क्योंकि मैं भी उसके साथ काम करता था। हम लोगों की दोस्ती को बारह वर्ष बीत चुके थे परन्तु इन बारह वर्षों के अंतराल में अमित कभी भी मेरे घर नहीं आया था। जब भी मैं उससे घर चलने के लिए कहता वह कोई न कोई बहाना बना कर टाल जाता था। परन्तु मैंने भी उसे घर ले जाने की प्रतिज्ञा कर ली थी और आज मैं अमित को अपने घर ले गया इस प्रकार मेरी प्रतिज्ञा पूरी हुई।

जिस समय हम दोनों घर पहुँचे उस समय मेरी मुँह बोली अठारह वर्षीया बहन चाँदनी घर के बाहर दरवाज़े पर ही बैठी थी। मैंने अमित से कहा कि यह मेरी मुँह बोली बहन चाँदनी है और 'चाँदनी' यह मेरा दोस्त 'अमित', इस प्रकार दोनों का एक दूसरे से परिचय करवाया। दोनों ने एक दूसरे को नमस्ते किया, परन्तु न जाने क्यों वह दोनों एक दूसरे को काफी देर तक देखते रहे। मुझे जब इस बात का एहसास हुआ मैंने चाँदनी को अंदर जाने को कहा और अमित को ड्रॉइंग रूम में ले गया। अमित अभी तक खामोश था। अतः मैंने ही खामोशी को तोडा और पूछा कि 'अमित' (नाम लेने के साथ ही वह चौंका) 'कहाँ खो गया था, यार?'

अमित ने जबाव दिया, "शायद मुझे किसी से प्यार हो गया है और प्यार के इस रूप को एक दिन तुम भी देखोगे और उसके बाद वह अपने घर चला गया।"

एक दिन जब मैं दफ्तर से लौटा तो मुझे मेरी बहन चाँदनी नहीं दिखाई दी। मैंने उसे हर संभव स्थान पर देखा, परन्तु वह नहीं मिली। मैं बहुत चिंतित हो गया तभी मुझे अमित के वह शब्द याद आ गए 'प्यार के इस रूप को एक दिन तुम भी देखोगे', इन शब्दों के याद आते ही मेरा मन अमित के प्रति घृणा से भरता चला गया क्योंकि उसने दोस्ती की पीठ पर खंजर भोंक दिया था। उसने एक दोस्त के साथ विश्वासघात किया था।

एक दफ़ा तो मेरे मन में यह विचार आया कि पुलिस को इत्तला दूँ परन्तु तभी मेरे विवेक की तीव्र झटका लगा कि यह कदम मत उठा वरना तेरी बहन बदनाम हो जायेगी। मुझे अपने हाथ में बहन द्वारा बाँधी गई राखी के धागे टूटते नज़र आने लगे तथा मन में तरह तरह के वाक्य गूँजने लगे जैसे उसकी बहन चिल्ला-चिल्ला कर कह रही हो कि वाह भैया वाह! यही मेरे द्वारा बाँधी गई राखी की कीमत आप अदा कर रहे हैं? तभी मैं अपनी बहन की खोज में घर से निकल पड़ा परन्तु वह कहीं नहीं मिली। मैं बहुत उदास रहने लगा। इसी तरह काफी दिन बीत गए परन्तु मेरी बहन मुझे नहीं मिली।

एक दिन मैं बाजार जा रहा था तभी एकाएक मुझे अमित तथा चाँदनी आते हुए दिखाई दिए। दोनों बात करते हुए चले आ रहे थे। अमित को देखते ही मेरे अंदर क्रोध की ज्वाला भड़कने लगी। मैंने उसे वहीं धर दबोचा और पिटाई लगानी शुरू कर दी। अमित ने भी कोई प्रतिरोध नहीं किया। मैं उसे तब तक मारता रहा जब तक कि वह बेहोश हो न गिर पड़ा। राह में बहुत सी भीड़ जमा हो गई थी तभी मेरी निगाह चाँदनी को ढूंढने लगी परन्तु वह वहाँ उपस्तिथ न थी। शायद वह चली गई थी। मैं अमित को वहीं छोड़कर अपने घर की ओर यह सोच कर चल दिया कि शायद चाँदनी मेरे ही घर चली गई हो परन्तु घर पहुँच कर मैंने देखा कि चाँदनी वहाँ भी नहीं थी। तभी अचानक ख्याल आया कि हो सकता है कि वह अमित के घर ही चली गई हो। यह सोच कर मेरा क्रोध चरम सीमा पर पहुँच गया।

दूसरे दिन रक्षाबन्धन का त्यौहार था। इसी दिन मैंने अमित से अपना प्रतिशोध लेने की ठानी और राखी बँधवाने के बहाने से चाकू अपने साथ लेकर प्रातः ही अमित से बदला लेने उसके घर की ओर चल दिया। चलता चलता मैं अमित के मौहल्ले में तो पहुँच गया परन्तु मुझे उसका घर नहीं मालूम था। अतः मैं चलता रहा तभी एकाएक मेरा सिर एक दरवाज़े से टकराया और वहीं मैंने अपना सर उठाकर देखा तो नेम प्लेट पर लिखा था 'अमित श्रीवास्तव'। यही मकान अमित का था। मैंने दरवाज़े पर यह सोचकर थपकी दी कि जैसे ही अमित दरवाज़ा खोलेगा वैसे ही मैं उससे अपना प्रतिशोध ले लूंगा। मैंने एक हाथ में चाक़ू पकड़ रखा था तथा दरवाज़ा खुलने का इंतज़ार कर रहा था। परन्तु न जाने दरवाज़ा कब खुल गया। मुझे इस बात का आभास तब हुआ जब कि मैंने दरवाज़े को अंदर की ओर धकेला तो दरवाज़ा खुल गया। मैं अंदर चला गया। अंदर एक कमरे से आवाज़ें आ रही थी। मैं वहीं रुक गया और आवाज़ें सुनने का प्रयास करने लगा। यह आवाज़ें अमित और चाँदनी की थी।

तभी मैंने सुना कि चाँदनी अमित से कह रही थी, "भैया, आपसे बिछड़ने के बाद मेरा आपके साथ यह पहला रक्षाबंधन है। आज से मैं आपके राखी बाँधा करुँगी, जो कि अभी तक मैं रमेश भैया के बाँधा करती थी।" यह कह कर उसने अमित के राखी बाँधी। अमित ने अपनी बहन को आशीर्वाद दिया।

इसके साथ ही रमेश की आँखों से आँसू बहने लगे। उसने अपने हाथ के चाक़ू को बंद करके अपनी जेब में रख लिया क्योंकि इसकी अब उसे कोई आवश्यकता नहीं थी तथा उस कक्ष का दरवाज़ा खोलकर वह अंदर जाकर चाँदनी के पैरों पर गिर पड़ा और माफ़ी माँगने लगा। तभी उसका ध्यान अमित की ओर गया। वह अपने सिर को दोनों पैरों के ऊपर रखे बैठा रो रहा था। उसे ऐसा महसूस हुआ कि जैसे अमित उससे कह रहा हो कि 'प्यार के इस रूप को एक दिन तुम भी देखोगे'। रमेश अमित के पास पहुँच कर उससे माफ़ी माँगने लगा। इसके साथ ही वह दोनों एक दूसरे से लिपट गए। दोनों की आँखों से आँसू बह रहे थे। तभी वह उससे अलग होकर चाँदनी के पास पहुँचा और हाथ आगे करके उसने चाँदनी से राखी बँधवाई और अपनी जेब से चाकू निकाल कर उससे अपनी ऊँगली काट कर, उस खून से अपना तिलक कराया।

आज उन दोनों की दोस्ती फिर से मजबूत धागे में बंध गई क्योंकि आज रमेश अँधेरे से उजाले में आ गया था और उन दोनों को ही एक गुड़िया जैसी बहन मिल गई थी।....

द्वारा

मुकेश सक्सैना 'अमित'

(पुरानी विजय नगर कॉलोनी,

आगरा, उत्तर प्रदेश – 282004)

26/जनवरी/1982 को लिखी गई एक कहानी