beti bachao beti padhao in Hindi Women Focused by ramgopal bhavuk books and stories PDF | बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।

Featured Books
Categories
Share

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।

मैंने प्रथम श्रेणी से कक्षा पाँच पास कर लिया था। मैं कक्षा छह की किताबं स्कूल बैग में पीठ पर लादकर स्कूल जाने लगी। कक्षा तीन पास करके मेरी यह आदत बन गई कि दुकानों पर लिखे हिन्दी के साइन बोर्ड पढ़ने लगी थी। अब की बार जब मैं स्कूल पहुँची तो स्कूल के सामने की दीवार पर बडे़-बड़े शब्दों में नारे लिखे थे - बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ। बेटी पढ़ाने वाली बात तो मेरी समझ में आ गई थी किन्तु बेटी बचाओ वाली बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी। बेटी बचाओ का अर्थ बूझते हुए मैं अपनी कक्षा में पहुँच गई और हमारे पड़ोस में रहने वाली वन्दना के पास जाकर बैठ गई। 0मैंने उससे पूछा-‘ वन्दना एक बात बता- ‘स्कूल के बाहर एक नारा लिखा है, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ। बेटी पढ़ाने वाली बात तो मेरी समझ में आ गई है किन्तु बेटी बचाओ वाली बात मेरी समझ में नहीं आ रही है। बेटी को कौन मार रहा है जो बचाने वाली बात लिखी है।’

वन्दना बोली-‘ तूं तो निरी बुद्धू है। इतना भी नहीं समझती- बेटी के दुश्मन तो उसी के माँ बाप होते हैं।’

मैंने प्रश्न किया-‘ कैसे ?’

वह बोली-‘ मैं अपने मम्मी-पापा की कहती हूँ। वे भइया का जितना ख्याल रखते हैं उतना मेरा नहीं। उसे अच्छा-अच्छा खाने को देते हैं। मेरे से कहते हैं कि वह तुम्हारा भाई है तुम्हें उसका ध्यान रखना ही चाहिए। वे उसके लिये खाने-पीने की चीजों के बटवारे में भी भेद-भाव करते हैं और तो और उसे खाने-पीने की चीजें अधिक देते हैं मुझे कम। ऐसे में मुझे मन मार कर रह जाना पड़ता है।’

मैंने कहा-‘क्यों री! हम लड़कियाँ न हो तो ये संसार कैसा लगेगा ?’

वह बोली-‘अरे! बच्चे जो होते हैं माँ के ही होते हैं। बिना हमारे संसार कैसे चलेगा ?’

इसी समय सर कक्षा में आ गये तो हम पढ़ने में लग गये।

रात मैं वन्दना की बातें सोच रही थी इसलिए नींद नहीं आई थी। पापा-मम्मी ने समझा मैं सो चुकी हूँ। पापा जी मम्मी से कह रहे थे-‘बेटी तो एक ही बहुत है। कल चलकर चौक करा लेते हैं।’

मम्मी बोली-‘ कहीं,लड़की ही निकली तो ?’ क्या, उसे मार दोगे ?’

‘मेरी इतनी आमदानी नहीं है कि मैं दो- दो लड़कियों का भार सह सकूँ।’

‘यानी लड़का हुआ तो उसका भार सह लोगे। मैं सब जानती हूँ, राधा को भी तुम बेटी की तरह ही देखते हो। देखना, यह हमारा नाम रोशन करने मैं पीछे नहीं रहेगी।’

बातचीत में मेरा नाम आते ही मैं सजग हो गई। मैं इतना तो जान ही गई कि अच्छे नम्बर आने से पापा-मम्मी का नाम रोशन होता है। मैंने कक्षा पॉच प्रथम श्रेणी से उतीर्ण कर लिया तो पापा सभी के लिये मिठाई लेकर आये थे। कह रहे थे राधा अच्छी तरह पढ़ती गई तो हम इसे डॉक्टर बनाना चाहेंगे।

‘बेटी तो एक ही बहुत है।’ यानी, घर में दूसरा बच्चा आने वाला है। वह लड़का है या लड़की। इस बात का पता चलाने के लिये पापा का उसे चौक करने का इरादा चल रहा है, मम्मी इस बात का विरोध कर रही है।

इसी समय मम्मी के शब्द सुनाई पड़े। ‘तुमने राधा के समय भी चौक कराने की बात कही थी। कहीं मैं उसे चौक कराने चली जाती तो तुम राधा को ही धरती पर न आने देते। क्या कमी है इसमें ? इसके सामने लड़के कहाँ ठहरते हैं ? मैं इस बच्चे को भी चौक कराने नहीं जाने वाली। जो हो हम प्रभू का आशीर्वाद मान कर इसे भी ग्रहण करेंगे।’

‘देवी जी, यह सब सिद्धान्त की बातें हैं। कोरे सिद्धान्तों से काम नहीं चलने वाला। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि पुत्र मोक्ष का कारक है। लड़कियाँ मरघट जाती नहीं हैं फिर हमारा संस्कार कौन करेगा ?’

मम्मी बोली-‘ सब झूठी बातें हैं। मोक्ष तो अपने कर्मों से मिलता है। कर्म करें हत्या र्के और सोचें पुत्र से मोक्ष मिल जायेगा। यदि ऐसा मोक्ष मिल भी गया तो मुझे नहीं चाहिए ऐसा मोक्ष। मैं तो आपकी इस चौक कराने वाली बात के लिये कैसे भी तैयार नहीं हूँ। यदि लड़की हुई तो हम इसे भी अच्छा इन्सान बनायेंगे।’

उनकी ये बातें सुनकर मैं सोचने लगी कि लड़की तो एक ही बहुत है। इसका मतलब हैं, लड़के चाहे जितने हों। मम्मी तो सब कुछ समझ रहीं हैं। पापा को मैं कैसे समझाऊँ। वे मेरे बोझ से दबें नहीं, मैं अपना बोझ स्वयम् उठाने लायक बनूंगी।

मैं फिर रात भर सो नहीं सकी। वन्दना ठीक ही कह रही थी। बेटी के सबसे बड़े दुश्मन उसके माँ-बाप ही होंते हैं।

सुबह मुझे तेज बुखार आ गया। मैं देख रही थी, पापा- मम्मी की आपस में बातें बन्द हो गईं हैं। मैं यह कुछ समझी नहीं, रात में दोनों आपस में खुलकर बातें कर रहे थे। अब ऐसी क्या बात हो गयी कि दोनों एक दूसरे से बात ही नहीं कर रहे हैं। दूसरे दिन पापा ने मेरे पास आकर कहा-‘चल राधा, मैं तुझे हॉस्पीटल में दिखा लाता हूँ।’

मम्मी ने यह बात सुनी तो बोली-‘ आप, इतना क्यों कष्ट उठाते है, उसे मैं ही दिखा लाऊँगी।’ फिर मम्मी ही मुझे हॉस्पीटल लेकर गई। घर आकर चिन्ता में डूबी मैंने बिस्तर पकड़ लिया। पापा भी मेरे बिस्तर पर बैठकर मेरा सिर सहलाने लगे। मुझे लगता रहा, पापा सब दिखावटी नाटक कर रहे हैं। ये मुझे लड़की होने से प्यार ही नहीं करते हैं। ये पता चल जाता तो जन्म लेने से पहले ही मुझे मार देते। इस तरह पापा से मेरा मन बहुत कुछ टूट गया।

चार -पाँच दिन में मेरा बुखार ठीक हुआ। पापा- मम्मी अभी भी आपस में बात नहीं कर रहे थे। मैं समझ रही थी इनकी लड़ाई का कारण मैं ही हूँ। मुझे लगने लगा, मुझे यह घर छोड़कर चले जाना चाहिए। मैं घर से भागने की योजना बनाने लगी। कैसे घर से भागूँ ? मैंने अपने कुछ खास -खास कपड़े एक बैग में सँभाल कर रख लिये और घर से भाग जाने की योजना बनाने लगी। कैसे कैसे कहाँ जाउंगी ? क्या क्या झूठ बोलना पड़ेंगे ? सम्भव है भूखा भी रहना पड़े। इन लोगों के साथ रहने से तो भूख से मर जाना अच्छा है।

इन्हीं दिनों एक घटना घटी, मेरे ही विद्यालय की एक लड़की जाने कहाँ गायब हो गई। उसके बारे में तरह-तरह की बातें सुनाई पड़ने लगीं। कोई कह रहा था-‘घोर कलियुग है। वह लड़की ही बहुत तेज थी। किसी से आँखें लग गई हांेगी, चली गई होगी उसी के साथ।’

कुछ कह रहे थे-‘ घर के लोगों ने उसे डॉटा होगा, चली गई कहीं।’

कुछ उसे अपहरण का मामला बतला रहे थे। बाद में सुना, कोई उसे कुछ खिला- पिलाकर रेल में बैठा कर ले गया। वह तो आगरा पहुँच कर कुछ लोगों को उस आदमी पर शक हो गया और पूछताछ करने लगे तो डर के वह उस लड़की को छोड़कर भाग गया। वह लड़की पुलिस के सुरक्षित हाथों में आ गई । उन्होंने उसे घर पहुँचा दिया।

इस घटना ने मेरे घर से भाग जाने के सोच पर विराम लगा दिया। मैं सोचने लगी- मेरे भाग जाने पर मम्मी का क्या होगा ? वे तो मुझ से बहुत प्यार करती हैं। वे मेरे बिना न रह पायेंगी। यह सोच कर तो भाग जाने वाला विचार मेरे दिमाग से निकल गया। अब तो एक ही सोच रह गया । पापा को कैसे समझाऊँ ? दिन-रात यही सोच चलने लगा। पापा को समझाने के तरीके सोचने लगी। कभी सोचती-पापाजी से सीधे जाकर कह दूँ , ‘आप मेरी चिन्ता छोड़ दे। मैं अपने लिये खुद रास्ता खोज लूंगी। भगवान ने दो हाथ दिये हैं, मैं कुछ न कुछ कर ही लूँगी।’

एक ही उपाय सूझा मैं दिन-रात पढ़ाई करके अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊँ। यह सोचकर मैंने उसी क्षण किताब उठाली। कुछ पढ़ने का प्रयास किया। कुछ भी समझ नहीं आया। हर बार जाने क्या- क्या सोचने में आता रहा। बातें आकर दिमाग में चलने लगतीं तो दिमाग में कुछ भी नहीं बैठता। किताब बन्द करके सोचने लगती। क्या करूँ ? क्या नहीं ? मैं सोचती इस तरह सोचते रहना ही समस्या का हल नहीं है।

इन दिनों मेरे पड़ोस में रहने वाली कक्षा की सबसे होशियार लड़की वन्दना मेरी दोस्त बन गई। मैं उसी के पास बैठने लगी। वह हर समय इधर-उधर की बातें न करके पढ़ाई की ही बातें करती। उसकी बातों से मेरा मन पढ़ाई में लगने लगा। सबसे अच्छी बात यह रही कि उसका घर मेरे पास ही था। मेरा उसके घर जाना- आना शुरू हो गया। वह भी मेरे घर आ जाती। उसके बूढ़े बाबा और दादी भी उन्हीं के साथ रहते थे। उसके एक छोटा भाई भी था। उसके पिता जी किसी प्रायवेट कम्पनी में नौकरी करते थे। वन्दना अक्सर कहा करती-‘हमारे पापा की आमदनी कम है। घर का खर्च मुश्किल से चल पाता है।’

वन्दना मन लगाकर पढ़ती थी, इसलिये कक्षा में सबसे अधिक अंक उसी के आते थे। उससे विद्यालय के सभी शिक्षक खुश रहते थे। मैं उसका साथ पाकर खुश थी।

एक दिन मेरे पापा ने कहा-‘ राधा, तूं वन्दना के यहाँ अधिक न जाया कर। उनके यहाँ तेरा जाना मुझे अच्छा नहीं लगता।’

पापा की बात सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा। मैं एक अच्छी पढ़ने वाली दोस्त को खोना नहीं चाहती थी। मैंने पापा से पूछना चाहा- ‘क्यों ?’ ठीक उसी समय पर कोई उन्हें बुलाने आगया। पापा उसी समय उसके साथ चले गये। मेरे मन में प्रश्न घुमड़ने लगा। उनके यहाँ न जाने देने का कारण मेरी समझ में ही नहीं आ रहा था। पापा के मना करने के कारण मैं दो दिन तक उसके यहाँ नहीं जा पाई। वन्दना ही मुझे बुलाने आ गई। मैं सोच में पड़ गई, इससे इसके घर जाने की कैसे मना करू ? मैंने झूठ का सहारा लिया-‘मुझे मम्मी को उनके काम में मदद करना है। काम निपटाकर आती हूँ। उससे कैसे भी बहाना बना कर रह गई। इन दिनों मुझे उससे मिले बिना चौन न मिलता था। आज अब उससे दूरी बनाना पड़ रही है। मैंने पापा जी की निगाह बचाकर उसके यहाँ जाना-आना शुरू कर दिया। पापा ने इनके यहाँ जाने की मना क्यों की। इतने दिनों में मुझे कोई बात समझ में नहीं आई।

एक दिन स्कूल में जाने क्यों, जल्दी ही छुटटी हो गई। मैंने घर में प्रवेश किया उस समय वन्दना के बाबा और दादी पापा के पास बैठे बातें कर रहे थे। उसके बाबा कह रहे थे-‘ शर्मा जी, हमारा लड़का हमें बहुत ही तंग कर रहा है। बात- बात पर मारने पीटने खड़ा रहता है। हम यदि पुलिस में जाकर शिकायत करेंगे तो यह बात ठीक नहीं है। रामबरण को पुलिस परेशान करे, हमें यह अच्छा नहीं लगेगा इसलियेे पड़ौसी के नाते आपसे कहना ही हमें उचित लगा।’

पापा ने पूछा- अंकल, आपके यहाँ ऐसा पहले तो कुछ नहीं था। अब ऐसा क्या होगया जो ? आप सच- सच बताये, ?’

वे बोले-‘ आपको पता है हमारे एक लड़की भी है। रामबरण अपनी बहन की बिल्कुल नहीं सोचता। हमारे पास कुछ पुराने जेवर थे। उसमें से हमने कुछ अपनी बेटी को दे दिये। उसी दिन से रामबरण और इसकी पत्नी हमारे खिलाफ हो गये हैं। मारने-पीटने पर उतारू रहते हैं। कहते हैं हम अपनी लड़की के यहाँ जाकर रहने लगें।’

उनकी बातें सुनकर पापा ने उनके लड़के रामबरण को बुलाया और आपस में समझा-बुझा कर दोनों में राजीनामा करा दिया।

मैं अपनी किताबें पढ़ रही थी कि मम्मी पापा से बोली-‘ आज कल के लड़के सोचते है माता- पिता की सम्पति पर केवल पुत्र का ही अधिकार है। आजकल किसी के पुत्र सेवा ही नहीं करते। इनसे तो लड़कियाँ हीं अच्छी। ’

पापा बोले-‘ राधा की मम्मी, मैं तुम्हारी बात समझ रहा हूँ। देखना, तुम्हारे अबकी बार पुत्र ही होगा। मैंने इसके लिये हर मंगलवार को सुन्दरकाण्ड का पाठ शुरू कर दिया है। कहते हैं सच्चे मन से की गई साधना फलदाई होती है।’

पापा जी लड़का पाने के लिए जंत्र -मंत्र का भी सहारा लेने लगे थे। इस तरह घर में बाबा- जोगियों का आना शुरू हो गया था। उनके द्वारा मम्मी को कहीं प्रसाद खिलाया जाता, कहीं उन्हें ताबीज पहनने को दिया जाता। मम्मी पापा से यह कहते हुए ताबीज पहन लेतीं और प्रसाद भी खा लेतीं कि इससे कुछ नहीं होता। वे कहतीं-‘प्रभू ने जो रचना रच दी उसे अब बदला नहीं जा सकता। मैं तुम्हारी संन्तुिष्ट के लिये यह सब कर रही हूँ जिससे बाद में तुम मुझे दोष न देते रहो।’

उनकी बात सुनकर पापा ने मम्मी से हर बार की तरह यह मुहावरा दोहराया- बिटियाँ बाप कें साठ हैं। तोऊ बाकी नाँठ।

यह सुनकर मम्मी उनकी इस बात में इसी तुक में संशोधन करतीं-

कहन पुरातन चल बसी, निकस रही अब गाँठ।।

मम्मी की यह बात सुनकर मुझे बहुत ही अच्छा लगता। मुझे लगता मैं तालीं बजाकर जोर- जोर से हँसू किन्तु सोचती इससे पापा को बहुत बुरा लगेगा।

मेरा पढ़ने-लिखने में मन लग गया था। सर जो सवाल समझाते मेरी समझ में आने लगे थे। हर विषय की बातें चित्त में बैठने लगीं। धीरे-धीरे पढ़ने में मन लगने लगा। अब तो सर जो भी प्रश्न पूछते मैं उत्तर देने का प्रयास करने लगी थी। विद्यालय में जो होमवर्क दिया जाता उसे घर आकर करने लग जाती।

इस सब के बावजूद मैं देख रही थी- पापा-मम्मी में घर के काम- काज की ही बातें होती हैं। वह भी हाँ हूँ तक ही सीमित रहती हैं। माँ का पेट बड़ा सा दिखने लगा था। वे अक्सर उस पर प्यार से हाथ फेरा करतीं थीं। मुझे लगता वे मेरी तरह उससे भी प्यार कर रहीं हैं। कभी-कभी मैं भी मम्मी के पास पहुँच जाती। उनसे लिपड़कर उनके पेट पर हाथ फेरने लगती। उस समय मैं देखती इससे मम्मी बहुत खुश होतीं।

और घर में एक बड़ी घटना घटी कि हमारी मां को फिर से एक बेटी का जन्म हो गया। उसी दिन से पापा बिना बात चीखने- चिल्लाने लगे। मम्मी ने उसका नाम सुम्मी रख लिया। मम्मी-पापा से कह रही थीं-‘बस, हमें अब और बच्चे नहीं चाहिए। हमें इन दोनों को ही अपने पैरों पर खड़ा करना है।’

इन दिनों मैं कक्षा सात की छात्रा थी। इन दिनों मैंने दिन-रात एक करके अध्ययन शुरू कर दिया। पापा की नजर हर पल मेरे ऊपर रहने लगी। एक दिन मेरे से बोले-‘ बेटी इतना मत पढ़ाकर कि सेहत ही खराब हो जाये।’

मैंने संकोच करते हुये कहा-‘ पापा, हम दो- दो बहिनें हैं। आप इतना कैसे कर पायेंगे ? आप मेरी चिन्ता नहीं करें। मैं पढ़ाई करके आप का नाम रोशन करना चाहती हूँ जिससे लोग देखें कि बेटियों के पिता कैसी शान से रहते हैं।’

‘बेटी राधा, जिसकी बेटी इस तरह सोचने लगे उसे किसी बात की चिन्ता करने की जरूरत नहीं है।, यह कह कर वे मुस्कराते हुए घर से बाहर निकल गये।

सर्दी के दिन थे। एक दिन पापा किसी परिचित की मौत पर मरघट गये थे और वहाँ से लौटकर आये। मम्मी ने उनके स्नान करने के लिए गरम पानी उन्हें लाकर दिया। उस समय तक मैं विद्यालय से लौट आई थी। मम्मी ने उनसे ही पूछा-‘सुना है अपने कस्बे की नगर पालिका अध्यक्षा के पिता जी नहीं रहे। उनके यही एक लड़की हैं। उनका अन्तिम संस्कार किसने किया था ?’

पापा जी बोले’- अपनी नगर पालिका अध्यक्षा के एक बेटा भी है। सभी ने उनसे कहा-अपने बेटे से उनका संस्कार कराओ। लड़का न होने पर इस स्थिति में लड़की के लड़के को नाना का अन्तिम संस्कार करने की परम्परा है पर हमारी नगर अध्यक्षा नहीं मानी और मरधट जाकर उन्होंने ही विधि- विधान से अपने पिता जी का अंतिम संस्कार किया। मैं वही से लौटकर आ रहा हूँ।’

दूसरे दिन हमारे स्कूल में भी यही प्रसंग चर्चा में रहा। कोई कह रहा था हमारी नगर अध्यक्षा ने अच्छा नहीं किया। परम्परायंे कुछ सोचकर ही बनतीं है, हमें उन परम्पराओं का पालन करना ही चाहिए। कुछ अर्थहीन परम्पराओं का विरोध कर, नई परम्परा चलाने के लियेे नगर अध्यक्षा को धंन्यवाद भी दे रहे थे।

इन्हीं विचारों को सोचते- समझते हुए मैं घर लौट आई। मम्मी पापा से कह रहीं थीं-‘ देखा जमाना तेजी से बदल रहा है। अब लड़का और लड़की में कोई अन्तर नहीं रहा। मेरा अन्तिम संस्कार मेरी लड़की ही करेगी। पूरा विश्वास है कि इससे मुझे निश्चय ही मोक्ष मिलेगा। ’

मम्मी की यह बात सुनकर इस समय मुझे अपने मित्र वेदराम प्रजापति की यह कविता याद आ रही है जिसे मम्मी अक्सर गुनगुनाती रहतीं हैं-

हर कहीं पर गूँजती ध्वनि, उठ रहे दोउ हाथ हैं।

तुम करो सघर्ष खुलकर, हम तुम्हारे साथ हैं।

भ्रुण हत्या नहीं होगी, आत्म हत्या कहीं नहीं।

कहीं नहीं रोयेगी बेटी, प्रण इसी के साथ है।