मैं तो ओढ चुनरिया
अध्याय छ:
घर आते ही माँ ने सामान सम्हाल कर रखते हुए शगुण में मिले पैसे गिने । कुल जमा तीन सौ रुपए हुए नोट और सिक्के मिलाकर । इतनी बङी रकम ! माँ पुलकित हो उठी । सगन काफी थे ,इसका अनुमान था उसे पर इतने निकलेंगे ऐसा तो उसने सपने में भी नहीं सोचा था । पूरा दिन वह जोङतोङ और कतरव्योंत में लगी रही । क्या करे वह इतने रुपयों का ।
हैरान हो रहे हो न आप यह सब सुनकर । आज तो पैसे की कीमत ही नहीं है । उस जमाने में इतने पैसों से सोने के सैट बन सकते थे । पूरे साल का राशन खरीदा जा सकता था । अब भी विश्वास नहीं है न , तो जान लो तब पिताजी को पूरे महीने की पगार मिलती थी चालीस रुपए । इस तरह यह हुई दस महीने की तनख्वाह । तो एक सामान्य परिवार की गृहणी के सामने समस्या होना स्वाभाविक ही था कि इतने रुपयों से वह क्या खरीदे । उसने झाई के सामने बुझारत रखी –
“ झाई , मान लो , कोई तुम्हे तीन सौ रुपए दे तो तुम पहले क्या करोगी “?
“इतने पैसे हैं कहाँ और कोई मुझे क्यों देगा सारे मुट्ठी भर रुपए ? “
“औफो ये पहेली है । बूझो न “
“ मेरे पास तीन सौ है ? ”
“ जी, हैं ”
“ मैं तो लङकी के लिए एक टूम बनवा डालूंगी । फिर वैष्णो देवी जाऊँगी दर्शन करके मन्नत उतारने । पर तू क्यूं पूछ रही है ? “
“ ऐवें ई “ संतुष्ट होकर वह कमरे में लौट आई ।
शाम को पिताजी के आते ही उसने वैष्णों देवी और बाकी बहनों देवियों के दर्शन करने की बात की । पिताजी अभी अभी साले की शादी निपटाकर आए थे इसलिए कहीं जाने में आनाकानी कर रहे थे ।
मां बक्सा खोलकर रुपयों की पोटली उठा लाई और पिताजी के हाथ में रख दी । पैसों की व्यवस्था हो गयी देख उनका विरोध फीका पङ गया । अगले दिन से ही माँ सातों देवियों के दर्शन की तैयारी में जुट गयी । शनिवार को सवेरे ही हम जालंधर के लिए निकल पङे । जालंधर में माँ मुझे शीतला माता मंदिर , देवीतालाब माथा टिकाने भी ले गयी । आखिर मेरी मन्नत जो देनी थी ।
जालंधर बहुत बङा और खूबसूरत शहर था । बङी – बङी दुकानें , चौङी सङकें , भागती गाङियाँ एक से एक सुंदर घर ।
शहर जालंधर जो देश के विभाजन के बाद और चंडीगढ बनने से पहले पंजाब की राजधानी थी ।
जालंधर जिसमें रिफ्यूजी लोगों की बहुतायत थी जो तब भी , आजादी के तेरह साल बाद भी पैर जमाकर खङे होने के लिए संघर्ष कर रहे थे ।
मंदिर के पुजारी ने बताया कि जालंधर शब्द का अर्थ होता है पानी के धुर अंदर का क्षेत्र । यह शहर दो नदियों की लाई मिट्टी से बने क्षेत्र में बसा है । आम भाषा में इस इलाके के दुआबे का इलाका कहते हैं । दुआबा यानी दो आबा यानी दो नदियों वाला ।
वैसे जालंधर नाम के एक दैत्याकार राजा का उल्लेख पुराणों में मिलता है जो समुद्र का बेटा था । उसकी पत्नी वृंदा अत्यंत रूपवती सती रानी थी । बाद में वह तुलसी का पौधा बन गयी । विष्णु भगवान हमेशा शालीग्राम के ऱूप में तुलसी के अंग संग रहते हैं । कहा जाता है , यह शहर उसी जलंधर ने बसाया था ।
देवीतालाब मंदिर रेलवे स्टेशन से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक तालाब है । इसी तालाब की परिक्रमा में विराजती हैं माँ त्रिपुरमालिनी देवी जो माँ सती का ही एक रूप हैं । यह मंदिर भी दुर्गा या सती के 51 शक्तिपीठों में से एक मंदिर है । जो शक्ति का आराधना स्थल है । यहाँ माता की मनोहारिणी मूर्ति है । परिसर में भीषण भैरव केनाम से शिव की प्रतिमा भी है जिनके दर्शन के बिना माँ प्रसन्न नहीं होती ।
मंदिर में माता और भैरव के दर्शन करके मन खुश हो गया । शाम को हम पिताजी की एक रिश्ते की बहन के घर गये । वे हमसे बहुत प्यार से मिले । उनसे मिलकर सामान वहीं छोङकर माँ और पिताजी अपने मामा –मामी से मिलने गये । मामा आजकल कोई काम नहीं करते थे । पूरा दिन घर पर रह मामी से बकझक करते या मामी की झकझक सुनते । तीन बच्चे पहले से थे , तीन इन पाँच सालों में और हो गये थे । एक आने की तैयारी में था या थी । मामा मामी से मिलकर लस्सी का एक एक गिलास पीकर हम लौट आए बुआ के पास । न मामा – मामी ने हमें रुकने को कहा , न हमने रुकने की जरुरत समझी पर हमें चलने को तैयार देख मामा के बङे दोनों बच्चे कालू और विद्या उदास हो गये । शायद हमारे रुक जाने से उनको भी कुछ अच्छा खाने को मिल जाता । चलने से पहले माँ ने दोनों बच्चों को एक रुपया दिया तो उनके चेहरे पर हल्की सी हँसी कौंधी ।
बुआ हमारे लिए खाने की तैयारी में लगी थी । माँ भी चौके में चली गयी और हाथ बँटाने लगी । ये बुआ पिताजी की बुआ की बेटी थी । बरफ जैसी सफेद , लंबी ,सेहतमंद । काले बालों में कहीं कहीं सफेद बाल यूँ दिखाई दे रहे थे जैसे काले स्याह बादलों में बिजली । बातें बहुत करती वह भी तेज तेज । पर जमाने के छल फंद से दूर । माँ ने दूध पिलाकर मुझे पिताजी को पकङा दिया । पिताजी बैठे थे फूफी के पास । फूफा जी पहली नजर देखने से ही रौबदार लगे । साढे छ फुट लंबा कद , कुरता और चादरा सफेद , सिर पर जोगिया तुरले वाली पगङी जिसका लङ उनका चेहरा पौंछने के काम आ रहा था । लंबी ,बङी कुंडलदार मूछें । पर थे अखरोट जैसे । बाहर से जितने कङक दिखाई दे रहे थे ,भीतर से उतने ही प्रेमिल निकले । आग्रह करके खाना खुद परोसा । मेरे साथ जी भर खेलते रहे । रात वहाँ उनके साझ बिताकर सुबह पहली बस से हम सब चिंतपुरणी के लिए निकल पङे ।
शेष अगली कङी में ...