Urvashi and Pururava Ek Prem Katha - 13 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | उर्वशी और पुरुरवा एक प्रेम कथा - 13

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उर्वशी और पुरुरवा एक प्रेम कथा - 13






उर्वशी और पुरुरवा
एक प्रेम-कथा

भाग 13


मानवक ने महाराज पुरुरवा का संदेश रानी औशीनरी को सुना दिया। रानी औशीनरी को अंदेशा था कि महाराज अभी भी उर्वशी के रूप के जाल में उलझे हुए हैं। अतः वह अभी गंधमदान पर्वत से नहीं लौटेंगे। उन्होंने कहला दिया कि महारानी स्वयं राज्य संचालन की ज़िम्मेदारी संभाल लें। अब तो तय था कि महाराज पुरुरवा का जल्दी वापस लौटने का कोई इरादा नहीं था।
कोई और मार्ग ना देखकर रानी औशीनरी ने राज्य का संचालन का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया। वह बहुत कुशलता से सभी कार्यों का निपटारा करती थीं। लेकिन फिर भी प्रजा में महाराज की अनुपस्थिति को लेकर चिंता थी। लोग तरह तरह की बातें कर रहे थे जो रानी औशीनरी के कानों में पड़ती रहती थीं। राज्य के पश्चिमी छोर पर पुनः दस्युओं का उत्पात आरंभ हो गया था। दक्षिणी क्षेत्र के लोगों में जल की समस्या को लेकर असंतोष था। उन्हें इस बात का भय था कि कहीं सारे राज्य की प्रजा में असंतोष ना फैल जाए।
महाराज पुरुरवा एक योग्य शासक थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। कहीं किसी प्रकार का असंतोष नहीं था। कोई भी समस्या उत्पन्न होने पर उसका शीघ्र व उचित निपटारा हो जाता था। अपने बाहुबल से महाराज ने दूर तक राज्य का विस्तार कर लिया था। किंतु जब से उर्वशी का उनके जीवन में प्रवेश हुआ था वह बस एक प्रेमी बन कर रह गए थे। पहले उर्वशी से दूर होने के दुख में डूबे थे। अब उसके सानिध्य के नशे में डूबे थे। रानी औशीनरी की चिंता थी कि क्या वह पहले की भांति राजकाज में ध्यान दे सकेंगे।
अभी निकट भविष्य में ऐसा होता दिख नहीं रहा था। अतः रानी औशीनरी अब महाराज का मोह भंग करने के विषय में सोंच रही थीं। उन्होंने मानवक को बुला कर इस बारे में बात की। मानवक ने उन्हें बताया कि जब वह महाराज से मिल कर लौट रहा था तब उसने उर्वशी को किसी अन्य पुरुष के साथ विचरण करते देखा था। वह उस पुरुष को पहचानता नहीं था किंतु उसके अनुमान से वह अवश्य कोई गंधर्व था। मानवक की सूचना महारानी औशीनरी को महत्वपूर्ण प्रतीत हुई। महाराज को अवश्य ही उर्वशी का पर पुरुष के साथ होना अच्छा नहीं लगेगा। इससे उनका उर्वशी के लिए मोह भंग हो जाएगा। उनके मन में उम्मीद की एक किरण जागी।

देवराज इंद्र ने भी यही सोंच कर केयूर को उर्वशी के पास भेजा था। वह जानते थे कि महाराज पुरुरवा को उर्वशी का केयूर के लिए स्वच्छंद आचरण पसंद नहीं आएगा। वह उस पर बंधन लगाने का प्रयास करेंगे। किंतु अप्सरा उर्वशी किसी भी तरह की मानवीय मर्यादाओं को स्वीकार नहीं करेगी। यह उन दोनों के बीच मनमुटाव पैदा कर देगा। वह चाहते थे कि उर्वशी जब इंद्रलोक वापस आए तो पुरुरवा को भुला चुकी हो।
केयूर ने लौट कर जो कुछ बताया उसे सुन कर देवराज इंद्र को अपनी योजना सफल होती प्रतीत हुई।

महाराज पुरुरवा को उर्वशी के आचरण से चोट लगी थी। उर्वशी ने उनकी बात ना मान कर उनका अपमान किया था। यह बात उन्हें असह्य प्रतीत हो रही थी।
केयूर को विदा कर जब उर्वशी महल वापस आई तो महाराज ने उसे अपने पास बुला कर कहा,

"उर्वशी तुम्हारा मेरे प्रति व्यवहार उचित नहीं था। तुमने अपने सखा केयूर के सामने मेरा अपमान किया था।"

उर्वशी ने भी तुनक कर कहा,

"महाराज अपमान तो आपने किया है मेरा। मेरे सखा के समक्ष आप जिस रुखाई से पेश आए वह बिल्कुल भी उचित नहीं था।"

यह सुनकर महाराज पुरूरवा ने कहा,

"मैंने क्या अपमान किया ? तुम मुझे सूचित किए बिना केयूर के साथ विचरण करने चली गई थीं। तुम्हें मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए था।"

केयूर ने जिस मर्यादा की बात कही थी महाराज पुरुरवा उसी के बारे में बात कर रहे थे। उसे यह बात अच्छी नहीं लगी कि महाराज पुरुरवा उसे किसी तरह के बंधन में बांधने का प्रयास करें। उसने कहा,

"कैसी मर्यादा महाराज ? मैं अप्सरा हूँ। किसी के भी साथ विचरण करने के लिए स्वतंत्र हूँ। मुझ पर मानवीय मर्यादाओं का बंधन नहीं है।"

महाराज पुरुरवा ने अधिकार जताते हुए कहा,

"तुम पर भी मर्यादाओं का बंधन है। तुम मेरी प्रेयसी हो। मेरी इच्छा अनिच्छा का तुम्हें ध्यान रखना होगा।"

इस बात से उर्वशी चिढ़ कर बोली,

"मैं आपकी प्रेयसी हूँ दासी नहीं। मैं किसी की इच्छा से बंधी नहीं हूँ।"

अपनी बात कह कर उर्वशी वहाँ से चली गई। महाराज पुरुरवा को उससे इस प्रकार के व्यवहार की आशा नहीं थी। वह गहरी सोंच में पड़ गए।
उर्वशी बहुत अधिक क्रोध में थी। वह भी महाराज से प्रेम करती थी। किंतु महाराज का उस पर किसी वस्तु की भांति अधिकार जमाना उसे उचित नहीं लगा। महल से बाहर निकल कर वह अपने विचारों में खोई चली जा रही थी। चलते हुए वह एक ऐसे क्षेत्र में प्रवेश कर गई जो स्त्रियों के लिए वर्जित था।
इस क्षेत्र को कुमार वन के नाम से जाना जाता था। इस पर भगवान शिव व देवी पार्वती के पुत्र कार्तिकेय का अधिकार था। कार्तिकेय ने ब्रह्मचर्य का व्रत ले रखा था। अतः अपनी शक्तियों से उन्होंने इस क्षेत्र को स्त्रियों के लिए वर्जित कर दिया था। यदि कोई स्त्री इस क्षेत्र में प्रवेश कर जाती थी तो वह पुष्प लता में बदल जाती थी। इस क्षेत्र में कदम रखते ही उर्वशी भी एक पुष्प लता में बदल गई।

महाराज पुरुरवा बहुत देर तक अपने ही विचारों में खोए हुए बैठे रहे। उनके मन में बार बार एक ही बात उठ रही थी।
'मैंने उर्वशी को अपने ह्रदय की गहराई से प्रेम किया। किंतु वह कितनी निष्ठुर निकली। उस केयूर के लिए मेरा अपमान कर दिया। वह इतनी कठोर ह्रदय होगी मैंने कभी नहीं सोंचा था।'
उर्वशी के व्यवहार से लगी ठेस के कारण महाराज पुरुरवा बहुत दुखी थे। उन्हें उर्वशी पर क्रोध भी आ रहा था। किंतु समय के साथ गुस्सा उतरने लगा और उर्वशी का प्यार पुनः दिल में हिलोरे मारने लगा। क्रोध उतरने पर उनका मन द्रवित हो गया। उन्हें उर्वशी की याद सताने लगी।
वह उर्वशी को पूरे महल में खोजने लगे। सबसे पहले वह उस कक्ष में गए जहाँ बैठ कर उर्वशी वीणा बजाती थी। लेकिन वीणा शांत पड़ी थी। फिर वह मेष शावकों के पास यह सोंच कर गए कि शायद अपने मन को शांत करने के लिए उनके साथ खेलने के लिए आई हो। उर्वशी वहाँ भी नहीं थी। उन्होंने महल के हर कोने में ढूंढ़ा किंतु उर्वशी कहीं नहीं मिली। महल में उर्वशी को ना पाकर महाराज परेशान होकर पूरे गंधमादन पर्वत पर उसे आवाज़ देते हुए घूमने लगे।

महाराज पुरुरवा विक्षिप्त से इधर उधर उर्वशी की तलाश में भटक रहे थे। कई विचार उनके मन को व्यथित कर रहे थे। कहीं उर्वशी को कोई दैत्य उठा कर तो नहीं ले गया। यह विचार आते ही वह स्वयं को धिक्कारने लगे। वह मन ही मन सोच रहे थे कि जब दैत्य ने उस पर आक्रमण किया होगा तो वह सहायता के लिए अवश्य चिल्लाई होगी। किंतु वह अपने क्रोध में इतना डूबे थे कि उसकी आवाज़ नहीं सुनी होगी। अपने क्रोध में उन्होंने अपनी प्रेयसी का ह्रदय दुखाया। अब ना जाने उनकी प्रिया किस हालत में होगी ?
उन्हें अपने ऊपर क्रोध आ रहा था। वह विलिप्त से उर्वशी को पुकारते हुए भटक रहे थे।