उर्वशी और पुरुरवा
एक प्रेम-कथा
भाग 12
महाराज पुरुरवा को उनके कर्तव्यों का बोध कराने के लिए रानी औशीनरी ने मानवक को बुलाया। उन्होंने मानवक को आदेश दिया कि महाराज पुरुरवा के पास जाकर उन्हें समझाए।
मानवक महाराज पुरुरवा के समक्ष हाथ जोड़ कर खड़ा था। महाराज पुरुरवा ने पूँछा,
"तुम्हारे यहाँ आने का प्रायोजन क्या है ? पता है ना कि हम कुछ समय आनंद विहार के लिए गंधमदान पर्वत पर आए हैं।"
मानवता ने डरते हुए कहा,
"क्षमा चाहता हूँ महाराज किंतु आपको यहाँ पधारे बहुत समय व्यतीत हो चुका है। आपकी अनुपस्थिति में राज्य में बहुत अव्यवस्था फैली है।"
"महामंत्री लतव्य क्या अपने दायित्व का पालन नहीं कर रहे हैं।"
"महाराज वह तो यथायोग्य अपने कर्तव्यों का अनुपालन कर रहे हैं। किंतु कई विषयों पर निर्णय लेना उनके अधिकार में नहीं है।"
"तो महारानी औशीनरी से मंत्रणा कर लिया करें।"
"जी कई महत्वपूर्ण मामलों का निपटारा महारानी ने अपनी उचित सलाह देकर किया है। लेकिन महाराज आप मुखिया हैं। प्रजा के लिए पिता तुल्य हैं। पिता की अनुपस्थिति में जिस प्रकार संतान परेशान रहती है वैसे ही आपकी अनुपस्थिति में प्रजा परेशान है।"
मानवक की बात सुन कर महाराज सोंच में पड़ गए। उन्हें तो लगता था कि उर्वशी का साथ अभी कुछ ही पलों पहले प्राप्त हुआ है। किंतु मानवक के अनुसार एक लंबी अवधि बीत चुकी थी। राज्य संचालन हेतु उनकी आवश्यक्ता महसूस हो रही थी। पर वह अभी उर्वशी के अतिरिक्त किसी के भी बारे में सोंचना नहीं चाहते थे। उन्होंने मानवक को आदेश दिया,
"तुम जाकर महारानी औशीनरी से कहो कि महाराज अभी कुछ और समय गंधमादन पर्वत पर बिताने के इच्छुक हैं। राज्य के कार्यों से संबंधित निर्णय लेने का अधिकार महारानी को दिया जाता है। वह अपने विवेक से जो उचित निर्णय हो कर सकती हैं।"
मानवक उनसे आज्ञा लेकर चला गया।
जिस समय महाराज मानवक से बातें कर रहे थे उस समय उर्वशी महल के उद्यान में अपने मेष शावकों के साथ टहल रही थी। वह जिन पुष्पों को छू लेती थी वह और अधिक सुंदर दिखाई पड़ने लगते थे। मेष शावकों के साथ क्रीड़ा करती हुई वह पूरे उद्यान में भाग रही थी। खेलते हुए एक शावक दृष्टि से ओझल हो गया। उर्वशी चिंतित होकर उसे ढूंढ़ने लगी।
वह इधर उधर नज़रें दौड़ा रही थी। तभी एक दिशा से केयूर शावक को गोद में उठाए आता दिखाई दिया। उर्वशी दौड़ कर उसके पास पहुँच गई। उसने पूँछा,
"तुम यहाँ कैसे आए ?"
"तुमसे मिलने के लिए आया हूँ। तुम तो इस सखा को भूल ही बैठी हो।"
"क्या करूँ। इंद्रलोक से निष्काशित हूँ।"
"किंतु तुम तो बहुत प्रसन्न लग रही हो। लगता है महाराज पुरुरवा का संग बगुत पसंद आया तुम्हें।"
"सही कहा सखा। महाराज पुरुरवा के साथ समय का पता ही नहीं चलता है।"
"तभी तो तुम इंद्रलोक को भी बिसरा बैठीं। किंतु तुम्हारे बिना तो वहाँ सब सूना सूना है। हम सबको तो सदैव तुम्हारी स्मृति सताती है। क्या तुम भी कभी हमें याद करती हो ?"
इंद्रलोक की बात सुन कर उर्वशी के ह्रदय में एक टीस सी उठी। यह एहसास कि अब वह एक अप्सरा नहीं है उसके दिल में शूल की तरह चुभने लगी। केयूर समझ गया कि उसने लक्ष्य भेदन कर दिया है।
"बहुत समय के पश्चात तुमसे मिला हूँ सखी। मैंने सुना है कि गंधमादन बहुत रमणीय स्थल है। क्या मुझे यहाँ का भ्रमण करवाओगी।"
"अवश्य करवाऊँगी। आओ मेरे साथ।"
उर्वशी ने मेष शावकों को एक दासी को सौंप दिया और केयूर को लेकर उस स्थान पर गई जहाँ वह और महाराज पुरुरवा अक्सर भ्रमण करते हुए जाते थे। यह स्थान बहुत ही मनोरम था। पहाड़ से एक निर्झर गिरता था। आसपास सुंदर पुष्प खिले थे। केयूर को भी वह स्थान बहुत रमणीय लगा।
"जैसा सुना था वैसा ही पाया। धरती पर प्रकृति की विशेष कृपा है। इस निर्झर का जल कितना शीतल है। आओ सखी इसमें जलक्रीड़ा करते हैं।"
उर्वशी और केयूर निर्झर के जल से खेलने लगे।
मानवक के जाने के बाद महाराज पुरुरवा उर्वशी को खोजते हुए उद्यान में आए। किंतु उर्वशी उन्हें दिखाई नहीं दी। वह परेशान होकर उसे आवाज़ देने लगे। वह उर्वशी को खोजते हुए गंधमादन पर्वत पर घूमने लगे। उसी क्रम में वह निर्झर के पास पहुँचे तो उन्हें उर्वशी की उन्मुक्त हंसी सुनाई पड़ी। वह उस तरफ भागे।
निर्झर में नहाती उर्वशी पर उनकी दृष्टि पड़ी तो उसके रूप को देख कर वह मोहित हो गए। वह अपनी प्रेयसी की तरफ बढ़े ही थे तभी उनकी दृष्टि केयूर पर पड़ी। उसे देखते ही वह वहीं ठिठक कर खड़े हो गए। तभी उर्वशी की नज़र उन पर पड़ी। वह भाग कर उनके पास आ गई।
"आप यहाँ आ गए महाराज।"
महाराज पुरुरवा ने रूखे स्वर में उत्तर दिया,
"तुम तो बिना बताए यहाँ आ गई। मैं तुम्हें ना पाकर परेशान हो तुम्हें ढूंढ़ने लगा। पर तुम तो यहाँ किसी और के साथ आनंद मना रही हो।"
महाराज के स्वर की रुखाई को उर्वशी ने भांप लिया। उसे यह बात अच्छी नहीं लगी कि महाराज केयूर के सामने उसके साथ ऐसा व्यवहार करें। उसने भी उसी तेवर में जवाब दिया,
"आप भी तो मुझे भूल कर अपने उस दूत के संग मंत्रणा में व्यस्त थे। मैं अकेली उद्यान में घूम रही थी। तभी मेरा सखा केयूर इंद्रलोक से मुझसे मिलने आया। उसकी इच्छा पर उसे यहाँ भ्रमण करने के लिए लेकर आई थी।"
महाराज को उर्वशी का केयूर के साथ होना अच्छा नहीं लगा था। उन्होंने उसी प्रकार रुखाई दिखाते हुए कहा,
"अब वापस महल में चलो।"
उर्वशी को भी उनका व्यवहार उचित नहीं लगा था। वह महाराज का आदेश मान कर स्वयं को छोटा नहीं दिखाना चाहती थी। उसने भी उसी अंदाज़ में जवाब दिया,
"अभी मैं अपने सखा के साथ कुछ और समय बिताना चाहती हूँ। बहुत सी बातें करनी हैं। आप जाइए।"
महाराज पुरुरवा उसके इस उत्तर से रुष्ट हो गए। किंतु अपनी भावना वह केयूर के सामने व्यक्त नहीं करना चाहते थे। वह चुपचाप वहाँ से लौट गए।
केयूर सारी स्थिति को भलीभांति समझ रहा था। उसने उर्वशी से कहा,
"सखी यह तुमने उचित नहीं किया। महाराज को रुष्ट कर दिया।"
"तो क्या हुआ ? वह भी तो मुझसे रुखाई से पेश आए।"
"सखी इतने दिनों से मनुष्यलोक में रहने के बाद भी तुम मानव जाति की सामाजिक मर्यादाओं को समझ नहीं सकी।"
"कैसी मर्यादा ?"
"तुम अभी महाराज की प्रेयसी हो। तुम्हारा मेरे साथ इस प्रकार भ्रमण करना उचित नहीं है। यहाँ स्त्रियों पर कई बंधन हैं।"
केयूर की बात सुन कर उर्वशी सोंच में पड़ गई। महाराज की बातों से उसे समझ आ गया था कि उन्हें केयूर का उसके साथ होना अच्छा नहीं लगा। पर वह इस तरह के बंधन में बंधने को तैयार नहीं थी। वह अप्सरा थी। किसी के साथ भी आमोद प्रमोद करने के लिए स्वच्छंद थी। उसने कहा,
"मुझे मानव जाति की मर्यादाओं से क्या प्रयोजन ? मैं एक अप्सरा हूँ।"
केयूर जो चाह रहा था वही हुआ।
"सखी तुम अब एक मानुषी हो। अप्सरा नहीं रहीं। तुम्हें महाराज के साथ रहना है तो मर्यादाओं का पालन तो करना ही होगा।"
उर्वशी ने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया किंतु वह गंभीर हो गई। केयूर ने आगे कहा,
"सखी अब मैं इंद्रलोक वापस जाता हूँ। तुम महाराज के पास महल में लौट जाओ।"
केयूर जाने के लिए उठा। लेकिन जाते हुए बोला,
"सखी देवराज इंद्र भी आपको बहुत याद करते हैं।"
केयूर इंद्रलोक वापस चला गया। कुछ देर और ठहर कर उर्वशी भी महल वापस चली गई।