Wood nature in Hindi Moral Stories by Deepak sharma books and stories PDF | काष्ठ प्रकृति

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काष्ठ प्रकृति

काष्ठ प्रकृति

 जब मेरी चेतना लौटी टो मैंने अपने आपको अस्पताल के बिस्तर पर पाया|

 चिंतित चेहरों की भीड़ में अपने कॉलेज के प्रिंसिपल को देखकर मैं स्वयं चिंता एवं भय से भर उठा|

 जब कभी भी हमारे कॉलेज के किसी अध्यापक पर कोई जानलेवा विपत्ति आती है तो हमारे प्रिंसिपल अवश्य उपस्थित रहते हैं|

 तो क्या मैं मरने जा रहा था?

 "यदि ऐसा ही है," मैंने प्रभु-स्मरण किया, "तो मरते समय मैंने केवल उसी एक चेहरे को अपने साथ ले जाना चाहता हूँ| जब मेरी आँखें पथराएँ," मैंने प्रभु से विनती की, "तो केवल उसी का बिम्ब उन पर पड़े| प्रभु, मेरे प्रभु," मैंने प्रभु से भीख माँगी, "उसे मेरे पास भेज दो, मैं उसे देखना चाहता हूँ, मैं उसे देखूँगा|"

 दस वर्ष पहले वह मेरी छात्रा रही थी- आपादमस्तक कोमल, मृदु, संवेदनशील, रमणीय, प्रीतिकर तथा आनन्दप्रद.....

 "आपने यहाँ केवल झाड़-झंखाड़ और गाछ-दरख़्त जमा कर रखे हैं, सर," कॉलेज के वनस्पति उद्यान में उस वर्ष नए आए दूसरे छात्र-छात्राओं के साथ कुछ समय तक चुपचाप विचर लेने के बाद वह मेरे पास चली आयी-वनस्पति विज्ञान का मैं विभागाध्यक्ष हूँ, "थोड़े सम्मित फूल भी तो उगाने चाहिए....."

 "फूल.....?" मेरी भौंहें तनीं-पिछले पन्द्रह वर्षों के मेरे अध्यापन काल में मुझे सुझाव देने की धृष्टता किसी ने न की थी, "सम्मित फूल घास-फूस की श्रेणी में आते हैं.....सच बताऊँ टो कमजोर डंडी वाली वनस्पति मुझे तनिक पसंद नहीं, मेरी वनस्पति की जड़ें और तने चीमड़, टिकाऊ लकड़ी के हैं....."

 "किन्तु सर," उसने अपना आग्रह जारी रखा, "किसी भी वनस्पति उद्यान के लिए सुंदर लगना भी उतना ही जरूरी है|"

 "हमारे कॉलेज के पास न तो तुम्हारे फूलों के लिए फालतू जमीन है और न ही पर्याप्त साधन," मैंने सिर हिलाया|

 "हम जमीन और साधन ठीक बैठा लेंगे, सर," उसने ललकारा, "बस आपका पथ-प्रदर्शन और आशीर्वाद मिलना चाहिए.....|"

 "अच्छा|"

 शीघ्र ही उसने एक पलटन खड़ी कर ली और दो महीनों के अंदर हमारे कॉलेज के वनस्पति उद्यान का कायाकल्प हो गया|

 मानो प्रकृति अपने प्रदर्शन के लिए स्वयं तत्पर रही थी|

 इस बीच उसने मेरे मन की थाह भी पा ली|

 बात-बात पर लीक खींच देने वाली अपनी बुरी आदत मैंने त्याग दी थी| अब उसकी 'क्यों' पर मैं 'अस्तु' बोल उठता| वह 'अच्छा फिर' कहती तो मैं 'खैर, यही सही' कह बैठता| मेरा दिमाग लीक खींचना भी चाहता तो मेरा मन मेरे दिमाग पर हावी हों उठता, 'इसमें बुरा क्या है? वनस्पति उद्यान फल-फूल रहा है, ऐसे में उसकी सहायता एवं राय स्वीकार कर लेने में कोई हर्ज भी तो नहीं.....'

 अगले तीन साल कैसे उसकी और मेरी 'आहा' और 'ओहो' में कट गए, मुझे तनिक भी आभास न रहा|

 

 कॉलेज के वनस्पति उद्यान की सज्जा जब मलिन पड़ने लगी तभी मैंने एक झटके के साथ जाना कि उसकी बी.एस.सी. की पढ़ाई पूरी हों गयी थी और वह अब हमारे कॉलेज का अंश न रही थी|

 उसके बाद आए छात्र-छात्राओं में से एक से भी फूलों की उस जैसी निराई और छँटनी न हों पाई और हमारा वनस्पति उद्यान अब उद्यान न रहा, अरण्य बन गया|

 "गुड मॉर्निंग सर," क्या यह उसी की आवाज़ न थी?

 क्या मेरी चेतनावस्था मुझसे छलावा कर रही थी?

 अथवा मेरी दया-याचिका ईश-सिंहासन तक पहुँच गयी थी और सुख मृत्यु देने से पहले, प्रभु, मेरी एकल मृत्यु अभिलाषा मुझे प्रदान कर रहे थे?

 अपनी आँखें खोलने में मैंने देर न लगायी|

 "आज मैं इधर आयी तो बाहर की परिचित भीड़ ने मुझे आपके स्कूटर एक्सीडेंट के बारे में बताया, सर| आप कैसे हैं सर? आपको कुछ नहीं होना चाहिए, सर....."

 हाँ, यह वही थी| 'मैं जन्म-जन्मांतर तक तुम्हारा दास रहूँगा, प्रभु!' गद्गद् होकर मैंने प्रभु को वचन दिया, 'तुम्हारी यह अनुकम्पा मैं वृथा न जाने दूँगा, प्रभु!'

 "कौन है?" जैसे-तैसे मेरी वाणी फूटी|

 मेरी शय्यागत उपचर्या में लगे अस्पताल के डॉक्टर अपने हाथों में नया फुरतीलापन ले आए|

 "मैं आपकी एक पुरानी छात्रा हूँ, सर," वह हँसी, "शायद आप मुझे पहचान नहीं पा रहे हैं| दो साल पहले हुई एक आगजनी में मेरा चेहरा झुलसा दिया गया था, सर....."

 "कैसे?" मैंने उठने का प्रयास किया मगर असफल रहा|

 "यह इसी अस्पताल का एक केस है," एक डॉक्टर ने मेरे कंधे सहलाए, "इसे इसकी ससुराल वालों ने जलाकर मार डालना चाहा था, मगर जाने कैसे नब्बे प्रतिशत जल जाने के बावजूद भी इसके प्राण अक्षुण्ण बने रहे| चेहरे और शरीर पर अभी भी कुछ स्थानों पर कुरूप छाले और फफोले हैं, मगर जान है तो जहान है....."

 मेरी साँस रुक गयी|

 "क्यों नहीं, सर?" उसने मेरा हाथ पकड़ लिया, "बाहर से मैं जैसी भी लगूं, मगर अंदर से मैं आज भी चीमड़ और टिकाऊ लकड़ी जैसी मजबूत हूँ| आपकी वनस्पति भाषा में मैं काष्ठ प्रकृति रखती हूँ, सर| जीवन का पुनरारंभ करना अच्छी तरह जानती हूँ....."

 उसके स्पर्श ने, उसके स्वर ने, उसके बोलों ने, मेरी जीवनावधि प्रलंबित कर दी और मैं मरा नहीं!

 मैं जी उठा!