mahesh katare sugam ki kavita in Hindi Book Reviews by कृष्ण विहारी लाल पांडेय books and stories PDF | महेश कटारे सुगम की कविता

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महेश कटारे सुगम की कविता

महेश कटारे सुगम की कविता : हमारे समय का यथार्थ

के0बी0एल0 पाण्डेय

कहानी, गीत, नवगीत, गजल और समकालीन कविता के अन्यतम रचनाकार महेश कटारे सुगम की रचनाओं के साथ होना अपने समय के साथ होना है, साथ होना ही नहीं अपने समकाल की संवेदना से परिचित और उसका समीक्षक होना है। हमारा समकाल आज इतना घटना बहुल हो गया है कि उसके तत्काल की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है क्योंकि वह हमारी समकालीनता की एक विच्छिन्न कड़ी न होकर उसका एक अनुच्छेद है। सुगम अपनी पूरी रचनाशीलता में समय के यथार्थ के प्रति सचेत ही नहीं पूरी प्रतिबद्धता के साथ मुखर हैं। एक ओर वह इस क्रूर समय के रेशे पर अपनी मुखालफत व्यक्त करते हैं तो दूसरी ओर अनुभूति की व्यापकता में उन प्रियताओं की तरफदारी करते हैं जो जीवन के जरूरी तत्त्व हैं। प्रेम, सौन्दर्य, करूणा, श्रम, आनन्द, ममता, राग से झूमता उठता संवेदना -सिन्धु उनके भीतर है तो उस बात के लिए संघर्ष भी है कि जीवन की यह सुन्दरता सुरक्षित रहे। मनुष्य के पक्ष में होना सुगम का काव्य प्रयोजन है। वह जो भी कहते हैं शब्दों को चुभला कर नहीं कहते और न आज कल के वक्तव्यों की तरह उन्हें यह कहना एडता है कि मेरे वक्तव्य को गलत समझा गया है। मेरा आशय यह नहीं था।

सुगम की कविता की चेतना की बात करते हुए अभी एक ताजा संदर्भ सामने आ जाता है। इस वर्ष का साहित्य का नोबल पुरस्कार अमेरिका के गीतकार गायक बॉब डिलान को मिला है। बॉब डिलान के गीतों में विश्व शान्ति, युद्ध और हिंसा का विरोध और मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा का भाव है। उनके ये सरोकार इतने निर्भय हैं कि उन्हें प्रतिरोध का गायक कवि' कहा गया। सुगम की कविता में भी जीवन की शुभताओं के बचाव में अन्यायी आघातों से मुठभेड़ है। सुगम हर तरह से व्यापक अनुभूतियों को व्यक्त करती विविध विधाओं के सृष्टा हैं। फिर भी आज कविता के मानचित्र पर सुगम का जो व्यापक भू भाग उभरा है पह गजल के क्षेत्र का है। जितने समर्थ वह हिन्दी में कविता और विशेष रूप से गजल लिखते वक्त हैं उतने ही या कभी कभी उससे भी अधिक बुन्देली में। ये
विविध विधाएँ महेश कटारे के पास ऐसे आती हैं जैसे कई बहिनें एक ही समय भायक आयी हों और एक दूसरे से मिलकर खुश हो रही हों और उन्हें सुखी देखकर पिता के मन में खुशियाँ हिलोरें ले रही हो। सनम गीत गजल और आज की कविता में केवल विधात्मक रूप से भिन्न हैं, उनके सरोकार वही हैं, संवेदना वही है और प्रतिरोध का स्वर वही है।

पृथ्वी का क्षेत्रफल नापती सुगम की कविता अपने परिवेश की स्थानीयता से चलकर संवेदना के पूरे विश्व में विचरती है। मध्यम वर्ग, निम्न मध्यम वर्ग के ग्रामीण यथार्थ से उनकी अनुभूति, उनके मूल्यों का जन्म हुआ है। गाँव और शहर में व्यवस्था के शोषक चरित्र, धर्म की कट्टरता, जातिवाद और सत्ता के निर्बन्ध व्यवहार से द्विभाजित समाज के पीड़ित वर्ग को सुगम के पास आकर अपने हक का इनकुलाब बुलन्द करने वाला मिलता है। पोलैंण्ड की नोबल पुरस्कार प्राप्त कवयित्री विस्लावा शिक्बोस्र्का ने लिखा है कि इसके पहले कि झूठ और मक्कारी, हमारे घर को तबाह करते हमें सच की नींव डाल देनी थी हमें बेबसों के आँसुओं और सच्चाई जैसी चीजों के लिए। अपने दिल में सम्मान जगाना था। लेकिन ऐसा कुछ न हुआ। (सदी के अन्त में कविता से उधृत) सुगम अपने समय के उस विडम्बना पूर्ण यथार्थ को देख रहे हैं जिसमें विज्ञान, उद्योग, तर्क और भौतिक परीक्षण भी हुए और उसी समय अन्ध आस्था, जातिगत विद्वेष और सामाजिक विभाजनों के पुनरूदय भी हुए। पूँजी ने सत्ता से मिलकर अपने चालाक चरित्र से ऐसे विभ्रम रचे कि हमारी मृग तृष्णाएँ भटकती रहीं । सुगम की कविता ऐसे हर विभ्रम को तोड़कर सच का चेहरा सामने लाती हैं। सच यह है कि कुछ कुबेरों को छोड़कर आदमी अपनी अगली पीढ़ी को जो सौंप जाता है वह है-पैतृक सम्पत्ति के नाम पर मिली है मुझे/ बूढ़ी जवान अंग भंग खपरैल की सेना/खुरदुरा आँगन कच्ची पौर/दो भैंसें/कराहते हुए किवाड़/दो जोड़ी साँतिये/ तीन दीवानी मुकदमे/रिश्तों की कटुता /थोड़ा सा कर्ज़ / शादी, व्याह की कॉपी।

महेश कटारे सुगम के बारे में कुछ लिखते या कहते समय उनका एक शेर हमें सतर्क करता है

मेरी तारीफ उतनी ही करो जितनी सही हो। बना देगी बगरना बेवजह मगरूर मुझको।।
हल्दी की एक गाँठ पर बने पंसारियों के समय में यह विनम्र आत्मालोचन एक रचनाकार को रचनाकार बनाये रखने के लिए जरूरी है पर सुगम की कविता के बारे में ऐसा लिखने पर भी वह प्रशंसनीय लगे तो इसके लिए उनकी कविता जिम्मेवार है, हम नहीं।

जर्मनी के नाटककार और कवि श्रेख्त ने लिखा है- वे नहीं कहेंगे-कि उस समय अँधेरा था। वो पूछेंगे कि उस समय के कवि चुप क्यों थे।

सुगम अपने समय के अँधेरे को सिर्फ अँधेरा कह कर नहीं रह जाते। वह जुल्मतों के दौर के गीत गाते हुए व्यापक सन्नाटे को तोड़ते हैं, चुप्पी को चीख में, गूंजती पुकार में बदलते हैं। यह चीख कराह नहीं है बल्कि विरोध की, प्रतिरोध की आवाज है। जब कोई इस तरह के विरोध का स्वर ऊँचा करता है तो वह अकेला नहीं होता

हम कतारों में खड़े देते रहे हैं अर्ज़ियाँ

अनसुना करने की आदत आपकी पहचान है।

मैं अलेला ही नहीं हूँ इस व्यवस्था के खिलाफ अब सुगम के साथ में सम्पूर्ण हिन्दुस्तान है।

महेश कटारे सुगम आज अपनी गजलों के माध्यम से प्रतिरोध के प्रमुख कवि के रूप में पहचाने जा रहे हैं पर उनकी कविता का एक और 'जेनर' है वह जीवन को प्यार करते हैं, सौन्दर्य का नया मानवीय बोध उपजाते हैं और सम्बन्धों की मनोरम छवियाँ गढ़ते हैं। जब वह सौन्दर्य से अभिभूत होने की स्थिति बुन्देली में चित्रित करते हैं तो उनके उपकरण बिल्कुल अपने परिवेश के होते हैं, काव्य रूढ़ियों के नहीं

तुम तौ हौ सौंधी, सौंधी सी कच्ची अमिया की लौंजी सी

जी के तुम आजात सामने

ऊ खौं लगत चकाचौंधी सी

देह महेश की कविता में अपने पूरे ऐश्वर्य के साथ है। सौन्दर्य का ऐसा चित्र बुन्देली में ईसुरी जैसे समर्थ कवियों के अलावा शायद ही कहीं मिले

ऐसी भर गई देह धना फी
जैसे घंटी भरे चना की

ऊ की साँस महक ऐसी जैसे चटनी हरे धना की।

कभी-कभी हमारे अहसास इतने संश्लिष्ट होते हैं कि हम उन्हें किसी एक सम्बन्ध नाम से नहीं पुकार सकते। सुगम की गजल का एक शेर कितनी अनुभूतिया को व्यक्त कर रहा है

जाने का का सोचत रत हो गुड़ी परी दो दो लिलार में

जैसे यह कहते हुए कोई अपनी स्निग्ध हथेली चिन्ताग्रस्त माथे पर रख दे और उस हथेली में ममता, प्यार, करूणा स्नेह में से कौन सा स्पर्श है वह। जब महेश कहते हैं कि इत्र सभी फीके पड़ जाते हैं/खुशबू है जो श्रम से बहे पसीने में तब वह सौन्दर्य का वह बदला हुआ पाठ पढ़ रहे हैं जो रीति बद्ध कविता की स्त्री के देह से आगे का है। यह उसी तरह की सौन्दर्य दृष्टि है जो ऋतुराज यह कह कर व्यक्त करते हैं कि जब कोई बूढ़ा आदमी खेत में पानी मोड़ता है तो लगता है ब्रह्मा धरती की किताब बाँच रहे हैं। गजल की एक बिल्कुल पारंपरिक बहर में सुगम जीवन जीने की बात इस तरह कहते हैं

तुम्हारे चेहरे में पढ़ रहे हैं हम आजकल एक किताब जैसा। हर एक तसव्वुर महक रहा है हमारे दिल में गुलाब जैसा।।

कितना अच्छा होता अगर ज़िन्दगी में यही लिखा होता लेकिन यथार्थ यह है कि जीवन, ऐसा कोलाज है जिसमें अनेक तरह के कोण, वृत और रेखाएँ गाढ़े रंगों से डरावनी और त्रासद शक्लें बनाती हैं। सुगम इस कोलाज को 'डिसइंटीग्रेट' करते हैं और फिर जो हमारा अनिष्ट है उसे खुलकर कहते हैं और उससे मुठभेड़ करते हैं। इस कठिन समय में जब सत्ता और तिजोरी का वर्चस्व हमारे सामने धमकियों, प्रतिबन्धों, डर, हत्या और हर तरह के झूठ का माहौल बना रहा हैं तब सुगम निराश नहीं होते।

'घबराने की बात नहीं है। तम की कुछ औकात नहीं है। यह क्या समय है जब दशहरा एक चौरे जैसा और दिवाली गाली लगे। खेत की फसल जब घर आते आते रह जाये। जहाँ हाथ में पुस्तक पकड़ने की उम्र हो और 'मुफलिसी गायें चराते रहने पर विवश हो। जहाँ तरक्कियों की आहटें हो रही है । लेकिन पक्की बखरी की उम्मीद में ठाठ बडैरे भी नंगे रह गये। महेश कटारे सुगम की पूरी कविता इसी तरह के सवाल पूछती है क्योंकि सवाल पूछना लोकतंत्र में हमारा हक है। सवाल नहीं पूछे जायेंगे तो जो गलत है उसे बने रहने का निर्विरोध और निरापद अवसर मिलता रहेगा। प्रश्न करना यानी हिसाब माँगना

हम जनता हैं हम हिसाब तो माँगेंगे।

जलते प्रश्नों के जवाब तो माँगेंगे।। टूटे सपने इंकलाब तो माँगेंगे

मजहब हमारे समय की बहुत बड़ी चिन्ता है। कट्टरताएँ विवेकहीन हो रही हैं। इन्हें अपनी अस्मिता मान कर मनुष्य के बारे में कोई भी सोच नहीं दिख रहा। जाति, वर्ण अपने नये उभारों से खतरा बनता जा रहा है। सहिष्णुता, समता, लोकतंत्र में मनुष्य की गरिमा का अहसास जैसे मूल्य सहमे डरे हुए हैं। सुगम की पीड़ा है कि थी लड़ाई भूख से हम जाते पर लड़ते रहे।'वह चाहते हैं कि

पढ़े जब आयतें मस्जिद तो मन्दिर को मज़ा आये। पहुँचना चाहिए आवाज़ घंटों की अजानों तक

सुरेन्द्र रघुवंशी ने ठीक ही कहा है कि महेश कटारे सुगम में कबीर, निराला और नागार्जुन का विद्रोह है। इसमें केदारनाथ अग्रवाल को और जोड़ लिया जावे तो महेश का सम्पूर्ण जन कवि होना पूरा हो जाता है। सुगम की एक कविता केदारनाथ अग्रवाल की उस कविता की याद दिलाती है

मैने उसको जब जब देखा/लोहा देखा/लोहा जैसा गलते देखा/ढलते देखा/मैंने उसको जब जब देखा/गोली जैसा चलते देखा।

सुगम की 'नब्बा' शीर्षक कविता इसी तरह श्रम के गौरव की कथा है नब्बा संजा को घर लौटा का हुआ मुस्का कर लौटा मिट्टी को फैलाकर लौटा डामर को पिघला कर लौटा अच्छी राह बनाकर लौटा हल से खेत कमा कर लौटा बीजों को बिखरा कर लौटा -6-

उसकी प्यास बुझा कर लौटा

समता और शोषण की आर्थिकी श्रम से शुरू होती है, श्रम को वंचित रख कर ही उत्पादक सारा लाभ खा जाते हैं। सुगम इस सैद्धान्तिकी को अपनी कविता की आधार भूमि बनाकर चलते हैं।

घर मकान नहीं, एक कामना है, कामना का आकार है। घर वह है जहाँ सम्बन्धों की भाव तरलताहै, जहाँ मूल्यों का निवास है घर सबकी चाहत है, सुगम की भी है लेकिन सुगम की चाहत का घर अलग है

मेहनत का अभियान हमारे घर में है

प्यार और मुस्कान हमारे घर में है नब्बे ऋतुएँ देख चुकी हैं माता जी बूढ़ी सफल थकन हमारे घर में है पूज्य पिताजी साथ छोड़कर चले गये पर उनका वरदान हमारे घर में है जीवन की खातिर है बहुत जरूरी जो मूल्यों का सम्मान हमारे घर में है।

एक दृश्य की कल्पना कीजिए। पेड़ की एक डाली पर तोता और तोती बैठी हैं। वे एक दूसरे से बात करते हुए लग रहे हैं। सुगम उनकी बात सुन ही नहीं रहे हैं, समझ भी रहे है

जा कै रये हैं तोता तोती

अपनी एक टपरिया होती

अगले क्षण दृश्य बदल जाता है। अब वहाँ एक दम्पत्ति खड़ा है। वह जब एक झोपड़ी की इच्छा कर रहा है तो सुगम अपने गहरे संकेत से व्यक्त कर रहे हैं कि ऐसे लोगों की संख्या

कम नहीं है, घर आज भी जिनकी चाहत है, हकीकत नहीं।

रूप या विधा कोई भी हो, अभिव्यक्ति की भाषा कोई भी हो लेकिन एक रचनाकार की संवेदना सभी रूपों में समान होती है। संवेदना खण्डों में विभक्त नहीं होती। महेश कटारे की कविता अपनी संवेदना में, अपनी अनुभूति में सरोकारों से जुड़ी है। उनका अधिकांश काव्य आज गज़ल विधा में व्यक्त हो रहा है और वह भी बुन्देली भाषा या बोली में। बुन्देली बोली में ही अनेक विधाएँ हैं, छन्द व्यवस्थाएँ हैं लेकिन बुंदेली में गजल की इतनी सम्पन्नता और इतनी वैचारिकता महेश कटारे सुगम में ही है । बोली में कविता या गद्य लेखन प्रायः पारंपरिक और भावपरक विषयों पर ही होता रहा है जिसमें श्रृंगार, हास्य, व्यंग्य, करूणा और वीरता का समावेश रहा है। बोली की कविता तब महत्त्वपूर्ण होती है जब भाषा की दृष्टि से उसे रचनात्मक शक्ति सम्पन्न बना दी जा सके और वह आज भी संवेदना तथा विचार को व्यक्त कर सके। वह अपने समय के संदर्भों की वाचक बन सके। ईसुरी ने बुन्देली को इतना समर्थ बनाया था और वह बुन्देली कविता के माध्यम से किसी भी श्रेष्ठ कवि के साथ रखे जा सकते है। आज बुन्देली गजल का नाम आते ही महेश कटारे सुगम का नाम स्वाभाविक रूप से लिया जा रहा है। बुन्देली गजल के पर्याय सुगम बुन्देली की मौलिकता, उसकी भाषिक रचनात्मकता और व्यंजकता के विरल प्रयोक्ता हैं और उनकी विशिष्टता यह है कि वे अपने शब्द उस जीवन की भाषा से ही उठते हैं जिसे वह अपनी गजल का विषय बना रहे हैं। गजल का रूप उसमें विचार के स्तर पर समय से संवाद की हिम्मत और निरन्तर नयापन, महेश कटारे सुगम इन सभी निकषों पर इस तरह के विरल रचनाकार हैं। ऐसे वह इसलिए है क्योंकि अधिकतर कवियों लेखकों की तरह वह बुन्देली में रुचि परिवर्तन के लिए नहीं लिखते न बुन्देली को हिन्दी से अनुवाद के रूप में प्रयुक्त करते हैं वह बुन्देली में पूरी तरह सहज और आयासहीन

हैं।

पंच सबइ पथरा हो जैहैं ऐसौ नई जानत तें। हीरा सब ककरा हो जैहें ऐसौ नई जानत ते।।

ऐसे कबै मुकद्दर हुइएँ

सबरे दूर दलिद्दर हुइएँ

जित्ते लम्बे पाँव हमाये उत्तेये लम्बे चद्दर हुइएँ। जैसे अनुभवों और प्रश्नों से आरंभ करते हुए वह बड़े निष्कर्षों और निर्भीक बयानों की

ओर प्रस्थान करते हैं

जिनके हियरा पथरा हो गये

वे सब मक्का मथरा हो गये।

जब ये पत्थर हृदय ऊपर से दयावान होने लगे तो उनके आन्तरिक छल को सुगम

तुरन्त पहचान लेते हैं

पथरा दिल में प्यार कछू तौ गड़बड़ है।

जालिम करै जुहार कछू तो गड़बड़ है।

शोषण का एक बहुत पैना हथियार नैतिकता है। अनैतिक और अन्याय को धर्म और कर्त्तव्य के रूप में मानने का अनुकूलन समाज में नैतिकता के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया है। पता नहीं 'बुभुक्षितः किं न करोति पापम दोष मुक्त करता है या दंडित करता है। सुगम का फैसला साफ है

भूँके कौ का धरम कका जू

हमें बता दो मरम कका जू कैबे में का सरम कका जू

करने परत पेट के लाने

बड़े बड़े ठठ करम कका जू हाँ हम रोटी खों पूजत हैं

अद्म गोंडवी भी तो इसकी ताईद करते हैं चोरी न करें झूठ न बोलें तो क्या करें

चूल्हें पै क्या उसूल पकायेंगे शाम को ।

अब यह तो स्पष्ट है कि यह चोरी और झूठ की पक्षधरता नहीं है बल्कि उस व्यवस्था की मुखालफत है जिसमें आदमी जीवित रहने के लिए यह सब करने को विवश है। सुगम की संवेदना में वे सभी स्थितियाँ आती हैं। जो मनुष्य को निर्जीव बना रही हैं, वह सियासत हो, मजहब हो, आर्थिक सामाजिक शोषण हो। सुगम प्रतिपक्ष की भूमिका में खड़े होकर उन सब सवालों के उत्तर माँग रहे हैं जो आज तक अनुत्तरित हैं। आज जैसा मनुष्य विरोधी समय सुगम की युयुत्सा से ओझल नहीं होता। एक तरफ वह देख रहे हैं

खेत धरो है गानें कक्कू

বिटिया आसौं व्यानें कक्कू

तीन साल से फसल निपट रई

खाबे नइयाँ भ्यानें कक्कू

दूसरी ओर उनका स्पष्ट संकेत है जीभन में कैंची की धारें आज चमेली करत गुहारें

मन में बैठी हैं फुफकारें

भिंची बमूरा की बाँहन में

कविता जीवन की व्याख्या हो या जीवन की समग्र प्रार्थना, वह अपने समय से निरपेक्ष भी नहीं होती, न इतनी अमूर्त होती है कि वह अज्ञानता के कारण ही पूज्य हो। कविता जीवन की चाह है, जो होना चाहिए उसकी कामना है, जो नहीं होना चाहिए, उसका विरोध है. कविता एक बेहतर संसार की सिसृक्षा है। महेश कटारे सुगम की कविता उनकी गज़ले कविता की इन सभी शुभकामनाओं की वाचक हैं। वह जो कुछ भी चाहते हैं उसे प्रसिद्ध कवि पाश के शब्दों

में इस तरह कहा जा सकता है हम झूठ मूठ का कुछ भी नहीं चाहते जिस तरह सूरज, हवा और बादल घरों और खेतों में हमारे अंग संग रहते हैंहम उसी तरह। हुकूमतों, विश्वासों और खुशियों को अपने साथ-साथ देखना चाहते हैं, हम जिन्दगी बराबरी या कुछ भी और सचमुच का चाहते हैं।

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70,हाथीखना

दतिया (म0प्र0)

मो. 9479570896