मैं सुबह-सुबह ‘रमता जोगी, बहता पानी’ की तरह बहता ही जा रहा था। एकदम बरसाती नदी की तरह! कि ना जाने कहाँ से चच्चा अचानक ही मेरे सामने प्रकट हो गए। एकदम ही रामायण और महाभारत में दिखाए गए आकाशवाणी करने वाले किरदारों की तरह! मैं भी हैरान होकर शक्तिमान की तरह गोल-गोल घूमने के बाद उनकी ओर आँखे फाड़कर देखने लगा परन्तु जैसे ही उनकी किलविश के जैसी फटी-फटी आँखों को देखा तो मैं गिलहरी की तरह अपने डर को कुतरते हुए बोला,
‘क्या बात है चच्चा? आज कुछ ज्यादे ही नाराज लग रहे हो! देश में कहीं कुछ अनर्थ हो गया क्या?’
चच्चा बहुत सामाजिक आदमी हैं। सामाजिक बोले तो हमेशा ही देश और समाज की चिन्ता में मोटे होते जा रहे हैं। उनके अनुसार चिन्ता में मोटा होना रहस्य नहीं बल्कि एक बौद्धिक कला है। वैसे तो उन्होंने देश समाज की सफाई करने के इरादे से सफेद कुर्ता पहनना शुरू किया था परन्तु वो कुर्ता बाद में साफ-सफाई की कमी के कारण गंदा रहने लगा। खैर।
मेरी बात सुनकर वो छूटते ही बोल पड़े जैसे कि उनको इसी का इंतजार था, ‘तुम अनर्थ की बात कर रहे हो! यहाँ कयामत आ गई है! कयामत!’
उनकी इस बात को सुनकर मैं भी एक खच्चर की तरह अपने हाथों के बल खड़ा हो गया (मैं तो गदहे की तरह खड़ा होना चाहता था परन्तु खच्चर होना थोड़ा सम्मानजनक है)। मेरे अंदर क्योरिसिटी का लेवल एकदम मेरे ब्लड शुगर की तरह बढ़ गया। मैं भी भड़कते हुए बोल पड़ा,
‘हुआ क्या है चच्चा? कहीं बम फट गया क्या?’
हालांकि मेरा ये भड़कना भी अपने बचाव का ही एक तरीका था। नहीं तो उनके सहिष्णु होने का डर बना रहता है।
चच्चा ने एक गहरी सांस ली जैसे कई दिनों के बाद उन्हे सांस लेने की फुरसत मिली हो। हो सकता है उन्होंने कई दिनों से सांस भी ना लिया हो! खैर! वो अपनी वाली पुरी और गहरी सांस खींचकर अपने ऊँचे नथूने में भरकर प्रश्ववाचक मुद्रा में बोले,
‘वीडियो देखा?’
मैं हैरान होकर उनकी ओर देखकर बोला, ‘वीडियो? कौन सा वीडियो? आपने कुछ…… व्हाट्सएप्प किया है क्या?’
ये सुनकर उनका गुस्सा आठवें तल्ले पर पहुँच गया परन्तु मुझे नीचे देखकर चच्चा तुरन्त वापस ग्राउंड फ्लोर पर उतर आए।
‘देखा नहीं कि जामिया की लाइब्रेरी में पुलिस विद्यार्थियों को किस दरिंदगी से मार रही है? भाई विद्यार्थी हैं वो, कोई अपराधी नहीं!’
‘चच्चा खुद को थोड़ा अपडेट भी कर लिया करो’।, मैंने चुहल करते हुए बोला।
चच्चा ये सुनते ही परशुराम का फरसा लहराकर दहाड़े,
‘क्या बोल रहे हो? कुछ तमीज है कि नहीं?’
‘सॉरी चच्चा! मैं बस इत्ता ही कह रहा था कि ‘जामिया लाइब्रेरी में मूँह छिपाकर पढाई करते हुए’ फिल्म का काटा हुआ क्लाइमेक्स जारी हुआ तो असिस्टेंट डायरेक्टर ने नाराज होकर फिल्म का प्रील्यूड ही जारी कर दिया है’।
‘मतलब?’
‘मलतब ये कि ढेर सारी वीडियोज का राष्ट्रीय प्रसारण हुआ है जिसमें वो विद्यार्थी पुलिस पर और पुलिस विद्यार्थियों पर पत्थर से राष्ट्रीय खेलकुद प्रतियोगिता में खेलते हुए देखे गए हैं। दोनों ही देखने में झक्कास ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ वाले पुलिस और विद्यार्थी लगते हैं। भगत सिंह और सांडर्स टाइप!’
‘नहीं वो वीडियो फर्जी है। किसी ने एडिट किया है’।
उनकी इस बौद्धिकता को सुनकर मेरा मन गुलशन ग्रोवर की तरह गार्डेन-गार्डेन हो बसंती की तरह कथक करने लगा। करना तो भारतनाट्यम चाहता था परन्तु भारतनाट्यम आता नहीं!
‘चच्चा! एक बात जानते हैं?’
‘क्या?’, चच्चा रौब से बोले।
‘यही कि दिल्ली पुलिस के अंतर्मन का आफिसियल स्टेटमेंट आया है कि दिल्ली पुलिस लाइब्रेरी में विद्यार्थियों को फूल माला पहना रही थी। वो तो बस कैमरे का एंगल गडबड था इसलिए माला बैटन में बदल गई।‘
‘मैं तुमसे इतनी गंभीर बात कर रहा हूँ और तुम मजाक कर रहे हो! तुम्हें कोई शर्म है या नहीं?’
चच्चा ने गुस्से में अपनी वरिष्ठता का ऐसा फाँस फेंका कि मैं सचमुच शर्म के पानी का परनाला बन गया। मुझे लगा कि मैं अबौद्धिक गया हूँ। तो बुद्धिजीवी बनने का सपना पाले मेरे लोभी मन ने उसी परनाले में से एक तर्क का तीर मेरे उपर से फेंका
‘चच्चा! मुझे तो लगता है कि कैमरा खुद में ही तानाशाही का प्रतीक है। बताइए लाइब्रेरी में कैमरे की क्या जरूरत है?’
मेरी बात सुनकर चच्चा कुछ सहमत से लगने लगे।
‘बच्चा! तुमने मजाक-मजाक में बहुत बड़ी बात कह दी है। मतलब इतनी बड़ी कि…।’
फिर क्या था। उत्साहित होकर मैंने कहना शुरू किया
‘मुझे लगता है कि लाइब्रेरी में कैमरा लगाया ही जाता है विद्यार्थियों की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए!! लाइब्रेरी में ये कैमरे कहीं पूंजीपतियों का फासीवादी षडयंत्र तो नहीं है लोकतंत्र को कमजोर करने का?’
मेरे लिए ये तो एक सवाल था परन्तु यह सवाल सुनते ही चच्चा का टेंशन फिर आठवें तल्ले पर पहुँच गया। अपनी भौं की जलेबी बनाते हुए घोषणा किए,
‘जाहिल के जाहिल ही रहोगे।’
उनके इस अचानक आग्नेयास्त्र से हमले में घायल होकर मैं भी समझ गया कि बुद्धिजीवी होना कोई हँसी ठट्ठा का खेल नहीं है। मतलब बहुत मेहनती काम है। इसलिए मैंने बुद्धिजीवी के अस्थाई पद से इस्तीफा देकर सीटी बजाते हुए अपने कुतर्क की गोली चलाई ‘जानते हैं चच्चा! कसाब के हैंडलर्स से सबसे बड़ी गलती ये हो गई कि वो कसाब को लाइब्रेरी पहुँचने का रास्ता बताना भूल गए। नहीं तो अब तक एक और भारतीय को नोबेल पुरस्कार मिल चुका होता!’
‘तुम मानोगे नहीं।’ चच्चा फूल के बर्तन की तरह झनझनाते हुए बोले।
‘चच्चा आप मेरा दर्द नहीं समझेंगे। ये कम दुखद है कि कसाब कसाब के रुप में ही पकड़ा गया। समीर चौधरी के रुप में नहीं मारा गया! बताइए इस देश को एक ऑफिशियल हिन्दू आतंकवादी मिलते-मिलते रह गया! यदि ऐसा हो गया होता तो मेरा देश पूर्ण रुप से धर्मनिरपेक्ष गंगा जमुनी तहजीब वाला हो गया होता! आप मेरा दर्द नहीं समझ सकेंगे।’
मैंने रंग छोड़ते पीतल की भैंस की तरह जुगाली करते हुए उनकी ओर देखा कि वो अपना चप्पल निकालकर सड़क पर फेंकते हुए निकल पड़े।
मैंने बुद्धिजीवी होने का मौका खो दिया था। कि तभी मेरे अंतर्मन ने मुझे फोन कर बोला, ‘तू देशद्रोही है’।