वो भारत! है कहाँ मेरा? 9
(काव्य संकलन)
सत्यमेव जयते
समर्पण
मानव अवनी के,
चिंतन शील मनीषियों के,
कर कमलों में, सादर।
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
दो शब्द-
आज मानव संवेदनाओं का यह दौर बड़ा ही भयावह है। इस समय मानव त्राशदी चरम सीमा पर चल रही है। मानवता की गमगीनता चारों तरफ बोल रहीं है जहां मानव चिंतन उस विगत परिवेश को तलासता दिख रहा है,जिंसमें मानव-मानव होकर एक सुखद संसार में जीवन जीता था,उसी परिवेश को तलासने में यह काव्य संकलन-वो भारत है कहाँ मेरा । इन्हीं आशाओं के लिए इस संकलन की रचनाऐं आप सभी के चिंतन को एक नए मुकाम की ओर ले जाऐंगी यही मेरा विश्वास है।
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
41. अमरता के दीप
अमर वे ही है इस युग में,वतन की सोच है जिनकी।
भगत सिंह आज भी जिंन्दे,शहीदी धड़कने उनकी।।
मानवी षोषणों को ही,मिटाने वे यहाँ आए।
त्रासदी,यातनाओं की,हटाने गीत नित गाऐ।
मसीहा क्रान्ति के अनुपम,अग्रणी पंक्ति है उनकी।।1।।
धड़कतीं आज भी उनकीं,धड़कनें नौंजवानों में।
मजूरों,हर तबाही-नर,मेहनत कष,किषानों में।
शहादत के तरानों में,शहीदी-गॅूज है उनकी।।2।।
मिटाना चाहते थे,समस्या की,वे इमारत को।
न्याय और नीति हो जहाँ पर,गरीबों की इबादत को।
हमारे साथ ही सब हैं,उगलियां हैं जिन्हें गिनती।।3।।
श्रद्धाज्जलि,तब सहीं उनको,होवै मिशन जब पूरा।
त्रासदी-दौर मिट जाए,देश खुशहाल हो मेरा।
धरा मनमस्त हो जाए,यही फरियाद है जन की।।4।।
42. अच्छे दिन आने को हैं
हमने तो,पहले ही कही थी,अच्छे दिन आने को हैं।
छप्पन भोग उतै ही बट गए,इतै न कुछ खाने को है।।
कैसी-कैसी मींठी बातें करते,अब समझे भइया-
ढ़ोगी राग,गातते नच-नच,बुरे दिना जाने को हैं।।1।।
मिलेबादियां,बाद खेल रए,चेहरे बदले,अभी-अभी।
तनक दिना पहले कीं बातें,भूल गए,क्या सभी-सभी।
तुम भी,चुप्पी-अभईं भोर से,उन्हीं जैसी साध गए-
पार लगेगी कैसे नइया,इस पर सोचा कहीं,कभी।।2।।
समझ रही है जनता सब कुछ,फर्जी-प्यादे चालों को।
चेहरा सब कुछ बता रहा है,कब तक रंग हो,बालों को।
सम्मांसे के मरे हुए को,कब तक रोऐंगे भइया-
फुला नहीं पाओगे अब तो,कुकड़े-सुकड़े गालों को।।3।।
रेल किराया सूची लेकर,पहली किष्त अभी आई।
सन्नाटा दुनियां में छा गया,जनता भारी घबराई।
षहजादे से,किए जो वादे,मेडम को डम बतलाकर-
कालिख को चेहरे पर पोते,नई सुबह कैसी आई।।4।।
पहली किरण,आग जब उगले,मॅंहगाई खाने को है।
फूलीं-फूलीं अवलौं खायीं,गर्म तेल,नहाने को है
यह तो टेंलर,अभी सोच लो,ऐसे,कैसे जीओगे-
भोग लेउ अब आगे भइया,अच्छे दिन जाने को है।।5।।
43.शहादत
शहीदों का अमर जीवन,अखण्डित ज्योति होती है।
जहाँ में,इन सपूतों की,कभी नहीं मौत होती है।।
शूलियाँ -भी,इन्हें छूकर,सुमन-सौगात देतीं है।
शहादत,विषम भॅंवरों में,नइया आप खेती है।
भगतसिंह,लक्ष्मी पौरुष की,अनूठीं,अमिट ज्योती हैं।।1।।
पिशाची-सौच के गढ़-क्षणिक,अपने-आप ढहते हैं।
सदां,कुर्बानियों के,युग सितारे,अमर रहते हैं।
नियति के नाट्य मन्दिर में,उनकी अमर ज्योति।।2।।
कई एक,रंग भरीं यहाँ पर,अनेकों टोलियां आईं।
क्रान्ति की लौ,अमिट होती,किसी ने,कब बुझा पाई।
शहीदों की,शहादत की,आवाजें आज होतीं है।।3।।
अमिट,आजाद भारत की,धरा को है नमन-षत-षत।
शहीदों की,शहादत की धरा को,है नमन्-षत-षत।
दिलेरों की,दिलेरी पर,धरा मनमस्त होती है।।4।।
44.क्षणिकाऐं
आ गए,औकाद अपनी पर,कुर्सियां क्या मिलीं इनको,
सींग अब,ऊगने लग गए,लग रहा-क्रूर गदहों को।
ऐंठ रए,पूंछ को खूबयीं,दुलत्ती दे रहे अब तो-
भूल कर,लेख वे सारे,रक्त-रंजित,षरहदों को।।1।।
इस षवे-मेहताव में,मुमकिन नहीं,छुप पाओगे,
सब हकीकत की कहानी,यह जमाना कह रहा।
जहाँ ने खूब देखा है,सफर ये,नंगपन बाला,
भूल मत जाइए अब-भी,उल्टा दरिया,बह रहा।।2।।
क्या नहीं दिल में खटकता,ढोंग-ये-इंषाफ का,
आदमी की तरह रह लो,आदमी हो! आदमी।
बहुत कुछ कहते रहे हो,ओट में,तुम बैठकर,
फटेगी चादर तुम्हारी,चार दिन के वाद भी।।3।।
समझाना बिल्कुल कठिन,इस दौर के संवाद को,
लगाकर वे ही,बुझाने दौड़ पड़ते,आग को।
हो रहा कल्याण प्यारे,इस तरह,इस देश का,
बन सभी अनभिग्य सुनते,इनके मोहक राग को।।4।।
ऐसे देखते क्यों हो,मैं इंशा हूं,नहीं मुजरिम,
तहीं नाराज हो,लगता गया नहीं,फड़ तुम्हारे पर।
यही है खून में खूबी,बदलना है कठिन,इसको,
भला ,यह जान जा सकती,कदम नहीं मुड़ैं द्वारे पर।।5।।
कभी,जुगुनूं दिखे करते,अंधेरी रात को रोषन,
पानी ठहर कब सकता,रहा हो छेद,पैंदी में।
यह चेहरा साफ कहता है,तुम्हारे दिल-दुराबों को,
कभी-क्या बदल पायी है,ए-कालिख भी,सफेदी में।।6।।
रंगे हैं हाथ लोहू से,तुम्हारे दोस्तों कब से,
यकीनन,मान लो इतना,कि कोई षक,नही करता।
मगर यह जान लो,इकदिन,नकाबी रंग बदलेगा,
कहानी और कुछ होगी,कि मरता क्या नहीं करता।।7।।
निभाई दोस्ती कैसी,कि घौंपे पींठ में खंजर,
इतने कातिले रंग का,कोई दुश्मन नहीं होगा।
तुम्हारे कारनामों पर,कभी विश्वास रोऐगा,
तुम्हारी दोस्ती का,हर कहीं,पैगाम यह होगा।।8।।
कातिलों ने पोत दी,तस्वीर पर कालिख,
बरना,गुलिस्तां होता,ये हिन्दुस्तान का नक्षा।
टुकड़े कर दए इसके,खफा होकर,दरिन्दों ने,
इन्हीं को कोशते हरक्षण,चलाना पड़ रहा रिक्षा।।9।।
कुर्सियों ने भर दए-नफरत-समन्दर,
हौंसले-ही, पस्त हो गए, कश्तियों के।
गिदध हो करके,लड़ रहे किस तरह देखो,
बद से बदतर हो गई,शक्लें-बस्तियों की।।10।।
इस मुखौटे को हटा दो,जो छलावों से भरा,
आपकी बख्शीश,सच में,विषभरी-षमषीर है।
तुम भलां समझों-न-समझों,लोग सब कुछ समझते, भलां
और कितना-क्या कहैं,यही तो,बस पीर है।।11।।
जो चला,मंजिल उसे,निश्चय मिली है,
सुचि,सुरभि ने सुमन से,स्वागत किया है।
अगम पथ-भी,सुगम होते ही दिखे हैं।
जिन्दगी,वह-सुख-शुकूनों से,जिया है।।12।।
सच्चाई का पंथ,धार खांड़े की समझो,
चलना-भी तो,सबके बस की,बात नहीं है।
पग-पग पर भटकाव,अनेकों कंटक,रोडे,
चलने वाले चले,न हारे कभी,कहीं है।।13।।
झुलसीं फूल-सी बगियां,तपन का ताप इतना था,
वेा बूढ़े-वृद्ध दरख्त भी,तपन ने किस कदर ढाऐ।
बड़े अफसोस की बातें,जमाना किस कदर बदला,
रखाबे को करे ठाड़े,विझूकन-खेत ही खाऐ।।14।।
45.विदाई-सुमन
ओ!अनुपम ज्ञान के रहवर,तुम्हें षत-षत नमन हो।
उजालो से भरा जीवन,सुहाना-सा वतन हो।।
पथिक बन जिन्दगी पथ के,अडिग होकर,चले हर क्षण।
तुम्हारे ज्ञान सौरभ-से,सदां उपकृत हुआ,कण-कण।
कभी भटके नहीं बिल्कुल,सुदृढ़-संकल्प के पथ-से-
किए संघर्ष जीवन भर,सत्य और सुपथ के रथ से।
विदा सौगात में तुमको,श्रीफल और बसन हो।।1।।
विदाई कह रहे जिसको,क्षणिक बदलाव की बेला।
केवल क्रम बदला है,रहा जीवन सुगम मेला।
विजय होते रहे पग-पग,निरंतर जो चले पथ पर-
हटे हैं राह के रोड़े,विराजे जब विजय पथ पर।
तुम्हारी जिंदगी का हर बसर,सुरभित-सुमन हो।।2।।
तुम्हारे हर चलन में,अरु मिलन में,राग की सरगम।
सदां फहराओगे रहवर,उच्च-अनुराग का परिचम।
प्रेम के षूत्र में सज्जित,सुमन-सी माल स्वीकृत हो-
मंगल कामनाओं से भरा,सदां उपहार स्वीकृत हो।
सुवासों अरु उजालों से भरा,जीवन चमन हो।।3।।
नहीं यह छोर इस पथ का,सिर्फ ठहराव ही जानो।
अभी तो,और चलना है,करना बहुत कुछ मानो।
अनेकों संस्थानो में,तुम्हारी याद होती है-
समय-श्रंगार की वेला,तुम्हारी राह जोहती है।
सदां तब प्यार से सिंचित,यह भारत भुवन हो।।4।।
वो भारत! है कहाँ मेरा?