vo bharat kahan hai mera 6 in Hindi Poems by बेदराम प्रजापति "मनमस्त" books and stories PDF | वो भारत! है कहाँ मेरा? 6

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वो भारत! है कहाँ मेरा? 6

वो भारत! है कहाँ मेरा? 6

(काव्य संकलन)

सत्यमेव जयते

समर्पण

मानव अवनी के,

चिंतन शील मनीषियों के,

कर कमलों में, सादर।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

दो शब्द-

आज मानव संवेदनाओं का यह दौर बड़ा ही भयावह है। इस समय मानव त्राशदी चरम सीमा पर चल रही है। मानवता की गमगीनता चारों तरफ बोल रहीं है जहां मानव चिंतन उस विगत परिवेश को तलासता दिख रहा है,जिंसमें मानव-मानव होकर एक सुखद संसार में जीवन जीता था,उसी परिवेश को तलासने में यह काव्य संकलन-वो भारत है कहाँ मेरा । इन्हीं आशाओं के लिए इस संकलन की रचनाऐं आप सभी के चिंतन को एक नए मुकाम की ओर ले जाऐंगी यही मेरा विश्वास है।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

25.किसान आन्दोलन

जो भी किए वायदे,क्योंकर किया किनारा।

यह किशान आन्दोलन क्यों है?कभी विचारा।।

इधर अन्नदाता भी कहते,धैर्य दिलाने,

उधर समर्थन मूल्य नहीं,वादे कट जाते।

ऋण मुक्ति का,झासा देकर,मुकर रहे अब,

भूल गए अब तो सब कुछ,क्या कब कह जाते।

हमदर्दी की ढ़ोंगी नजरौं,हमें निहारा।।1।।

जब बोते हैं बीज,बीज होते ऊॅंची दर।

बहु कष्टों का खाद,और वह भी ऊॅंची दर।

आजाती जब फसल,समर्थन मूल्य न पाते-

लुटैं सभी अरमान,गृहस्थी होती चर-मर।

तब पागल हो बुद्धि,लगत साहस भी हारा।।2।।

आन्दोलन यदि करैं,माँग अपनी मनवाने।

धमकाते दिनरात,कोविडी बना बहाने।

अगर न डरपें इन्हैं ,गोलियॅा सीने भेदें-

तथा उपद्रवी कहैं,अनेकों बना बहाने।

गुण्डे,हुल्लड़बाज,रख दिया नाम हमारा।।3।।

सहयोगी कोई बने,तो कहते उसे सियासत।

बोलने देते नहीं,जुवान होती है आहत।

मढ देते तस्वीर,नाम कई एकों लेकर-

वे ही भटका रहें इन्हें,करने को बगाबत।

भटका देते,सच्चे पथ से,दे नव नारा।।4।।

क्ेवल कुछ ही मरे,सोचते तुम यह होगे।

देकर एक करोड़,प्रायश्चित क्या कर लोगे?

कई लाख के पार,हो गई उनकी गिनती-

आत्महत की मार,कहो कितनों को दोगे।

घट गया आज किशान,कृषि की मार,विचारा।।5।।

जो अमूल्य था,आज सिर्फ,इतने पर आया।

अन्नदाता को,झांसा देकर,यौं समुझाया।

होता गर तब पूत,कहानी तब क्या होती?-

इतना घटिया शोच तुम्हारा,कैसे आया।

मौसम की भी मार,झेलता करै गुजारा।।6।।

हमदर्दी सरकार!कहैं कैसे? बतलाओ।

झूंठी हामीं भरो,नहीं तो जेलों जाओ।

क्या कह दैं-सरकार चल रही है उन्नति पथ-

पाओ बटौना झूंट,गीत झूंटे ही गाओ।

है मनमस्त निहोर,बचालो,देश दुबारा।।7।।

रोज-रोज क्यों?खिंचते पाले,इसके सीने।

खेलते चैसर खेल,इसे नहीं दोगे,जीने।

कृषि कर्मण-अवार्ड,इसी से तुमने पाया-

एक न रहने दिया,उसी के टुकड़े कीने।

खूब खेल लए खेल,समझकर-वोट बिचारा।।8।।

खून पसीना किया,खुदी मिट्टी में बोई।

सस्ती बिचती फसल,आत्मा उसकी रोई।

दूध उड़िलता रोड़,फलों को गलियों फैंका-

उसकी हालत देख,विचैलिया,रोया कोई?

षासन से,मिन्नतें करत,वह अबतक,हारा।।9।।

षासन पिट्टू बने,विचैलिए होली खेलै।

किए कृषक बदनाम,आप गहीं सकरीं गैलें।

आग लगा,वाहन भी फूंके,रोकीं राहें-

सत्ता अथवा विपक्ष,सभी ने,खेलहि खेले।

भटकाते हैं उसे,न भटकै,कृषक हमारा।।10।।

यह सब कुछ ही लखत,कृतघ्न सरकारें हो गई।

स्वार्थ और निर्दयता के,यहाँ बीजें वो गई।

तमिलनाडु,पंजाब,महाराष्ट्र,गिनना भाई-

मध्यप्रदेशी कृषक,जहाँ छह ल्हासें सो गई।

जूं नहीं रैंगी कान,सिर्फ बहसों का नारा।।11।।

हिली नही सरकार, श्वेतपत्र,किया न जारी।

लगे योजना ढेर,तौऊ बढ़ गई,बेकारी।

सूखा की भी मार,बढ़ा ऋण का,अति बोझा-

बदलीं कई सरकार,न बदली कृषक लाचारी।

कीमत तय,नहीं ले पाया वह,खुद ही हारा।।12।।

जीवन आश्रित भया,विचैलियन संग,सरकारैं।

व्यापारी,दलाल की मिन्नत,समय गुजारैं।

आशा से आसमान टिका,ले यही धारणा-

जीवन यापन करत,प्रकृति की ओर निहारैं।

फिर भी ठाड़ा आज,कृषक परिचम ले प्यारा।।13।।

कई अड़चनें खड़ी,किशानों की गलियों में।

मण्डी,लागत,मूल्य,समर्थन,विचैलियों में।

अ-विष्वासों बीच,खड़ी सरकारैं पाई-

ऋण से दवा किशान,बदल गया,नर वलियों में।

नॅंदी ग्राम,सांगली संग,मन्दसौर हमारा।।14।

आन्दोलन का दौर,त्रासदी रुप हो गया।

कल्पना से जो परे,विवेकी भाव,खो गया।

पत्थर,गोले,अश्रुगैस,लाठीं,बन्दुकें-

रोते बच्चे दूध,बुढ़ापा यहाँ रो गया।

नहीं सोचत सरकार,अमानवीय चला दुधारा।।15।।

लगा नियत में खोट,वायदे क्यों कर टूटे।

कोरा नाटक लगा,विकास गुब्बारे फूटे।

आज खुल रहीं पोल,लूटके फुटे नगारे-

लगता है-सरकार हाथ से,तोते छूटे।

कृषक शक्ति का मूल,न सोचा,कभी विचारा।।16।।

करना था जो प्रथम,आज बैठा वह करने।

उपवासों का रुप,शान्ति के धरने-धरने।

सब नौंटकीं छोड़,निर्णय वापिस लै लीजे-

यह सब,कर दो आज,समय है अभी संबरने।

वोट नहीं हैं कृषक,अन्नदाता प्रभु,न्यारा।।17।।

अहंकार रहा बोल,दिखत नहीं दूजा,कोई।

धरै न कोई कान,बुद्धि की धरती सोई।

ऋण,रुग,आरिनी,अरि,इन्हें हल्के नहिं लेना-

समय पाय विपरीत,वेणु सुत यथा घमोई।

बनो मानवीय रुप,त्याग रातनीति कारा।।18।।

अहंकार का नाश,सदां होता आया है।

जो नहीं संभला-समय,सदां गोता खाया है।

गले लगाओं इन्हें,दमन की,त्याग कहानी-

परिवर्तन का दौर लग रहा,अब यह आया।

अन्नदाता जो आज,काल कष्ट दाता-न्यारा।।19।।

मत छेड़ो तुम उसे,कष्ट उसने बहु झेले।

नोटबंदी की मार,आपदाओं के मेले।

सरकारों का कपट,कहर हिंसा का झेला-

गुजरातीं शमशान,और भी कई झमेले।

जाग जाओं मनमस्त,खेल,नहिं बिगड़े सारा।।20।।

26.गीत

प्यार के,मनुहार के,तुम गीत मत गाओ अभी।

हर तरफ आतंक है,आतंक से सहमे सभी।।

राह में,संवेदनाएं मौन हैं।

भावनाएं पूंछतीं,तुम कौन हैं?

मत लिखों,यादों भरी पाती,अभी।।1।।

रातभर,पल-पल समय,बहता रहा।

अर्थ का अनुराग,नित छलता रहा।

मत कहो,अपनी कहानी तुम अभी।।2।।

चाहता हॅू बांट लॅू,हर पीर को।

पौंछ दूं,बहते नयन के नीर को।

मत कहो,अलगाव की भाषा,अभी।।3।।

तुम चलो,हम भी चलें,मिलकर चलें।

बहके चरण भी,विश्वास की छाया बनें।

मत करो आदर्श कीं,बातें अभी।।4।।

समय का बदलाव,होगा समय पर।

तब तलक खोजन करो,विवेकी नर।

प्यार से निवटें,समस्याएं-सभी।।5।।

27.जागना होगा?

गहन तंद्रा से,हमें अब, जागना होगा।

मद,अशिक्षा,रुढ़ियों को,त्यागना होगा।।

भूलवस,उनमाद पथ पर,कई दषक बीते।

झोलियां भर भी न पांयी,हाथ हैं रीते।

व्यर्थ ही कीना परिश्रम,कष्ट सहते भी-

अनगिनत भटकाव पाऐं,मूंढ़ होकर ही।

प्राप्ति शिक्षा के लिये,अब जागना होगा।।1।।

जो चला पथ पर,सफलता ने किया वंदन।

टूटते देखे, सभी के, आपही बंधन।

खोल तोे कष्ती,समंदर लघु लगे प्यारे-

जोे चले निर्माण पथ पर,क्या कभी हारे?

स्वर्ग-भी,आया धरा पर,जागना होगा।।2।।

आज भी,करवट बदल ले,खोलकर आंखें।

सभी तो,आगे निकल गए,फड़फड़ा पांखें।

हो खड़ा! साहस जुटाकर,बदल दें,सपने-

कुछ कदम,चलकर तो देखो,सभी हैं अपने।

होयगी ऊषा सुनहरी,जागना होगा।।3।।

चल पडे़ गर,तो चलेंगे सभी तो पीछे।

पौध ऐसी रोप जाना,सब जिसे,सींचे।

सजग हो,कत्र्तव्य पथ पर,तूं अमर हो जा-

मग-सुखद,संसार का हो,बीज तो बोजा।

विश्व हो मनमस्त निश्चय ,जागना होगा।।4।।

28.तुम्हें मंजिल तक जाना है।

क्यों गफलत की नींद,भनक-भॅंुसारे की सुनलो,

मुर्गा दे रहो बाग,तुम्हें मंजिल तक,जाना है।

तुम्हारा,वहीं ठिकाना है।।

तुम वो राही नहीं,थके जो राहों में,

तूफां भी,तुमरे कदमों को,रोक न पाऐ।

सागर की सतहों को,तुमने छू डाला है,

वो मोती लाए,जो कोई,ला नहिं पाऐ।

समिट गया सागर भी,तुमरी इन वांहों में-

गहरा चिंतन करो,तुम्हारा अलग ठिकाना है।।1।।

दुनियां चलती रही,पुरानी राहों पर,

तुमरे उसूल में,ऐसी कोई बात नहीं।

पर्वत काटे,नदियों को नूंतन राह दई,

तुमरे जीवन में,अबतक आई रात नहीं।

ऐसे-वैसे पथिक नहीं तुम,निज पथके,

वे बासन्ती रमे,तुम्हे कद और,बढ़ाना है।।2।।

सूलों भरीं,कठिन हैं तुमरीं जीवन राहैं,

उन पर चलना,सबके बस की बात नहीं।

दुनियां गुप-चुप हॅंसे,भलाॅं हॅंसने दो साथी,

नहीं हारों विश्वास,कभी-भी मात नहीं।

मातृभूमि की खातिर,अर्पण कर दो जीवन,

वे बैठे तट रहें,तुम्हें उस तट तक जाना है।।3।।

29.और कहो-कबतक-----।

अब भी जागो मित्र,छोड़कर विषम तरोनों को।

और कहो,कबतक पूजोगे,उन हैवानों को।।

सोचा कभी,कौन की खातिर,तुम जीवन जीते।

नंगे-भूंखे,रह कर भी तो,नित घट-विष पीते।

दिन और रात,एक कर,जग को सब कुछ देते।

कुन-कुन करतीं,इन आंतों को,समझा भी लेते।

फिर भी,हॅंसते सदां सुन रहे,फूहड़ गानों को।।1।।

किन का कब्जा?,रमचन्दी के धन,धरती पर है।

गिरवी गॅाय-बछेरू संग में,घर और छप्पर है।

रमियां बूढ़ी भई,करत बेगारें सब घर ।

वासी रोटीं और महेरी,ताऊपै है डर।

रोज सबेरेयी सुननों पड़ते,उल्टे तहानों को।।2।।

गली-गली,हर चैराहे पर,दुर्दर हावे हैं।

बिन राजी के,रजिया की,अस्मत पर धावे हैं।

फिर भी क्यों?बापू के बन्दर,खूनी ढावे हैं।

मथुरा,काषी,भलां अवध या मक्का कावे हैं।

कब खौलेगा खूंन,खोलकर,सुनलो कानों को।।3।।

दुनियां आसमान को छू रही,तुम्हें न भान हुआ।

आंखे खोल,सदां ही चलना,चारौ तरफ कुआ।

उल्टे टंगे,करत काए टैंन्टैं,ओ मनमस्त सुआ।

सोचो!क्यों अॅंधियारा ढोते,कब का सुबह हुआ।

जान न पाऐ,अबै तलक लौं,उन सैंतानों को।।4।।

30. बधाई

बड़ा बोझिल है पद-रहवर,निभाना अति कठिन होता।

मंजिल पार वह पाता,कभी-भी जो नहीं सोता।।

सभी ने,एकमत होकर,तुम्हें इस योग्य जाना है।

”हार“ उपहार मत समझो,ये कांटों का तराना है।

फूल से फूल मत जाना,पतझड़,याद भी रखना ।

समय के खेल,अति नाजुक,समझ के,सोचकर चलना।

वाद-अपवाद के नद से,पार होना,कठिन होगा।।1।।

राह में बहुत रोड़े हैं,किनारे कर,हटा देना।

कई गहरे जमे होगें,किनारा उनसे कर लेना।

विजय हाँसिल तभी होगी,बनोगे जब कहीं बहरे।

मोती पा सका बोही,गया हो डूब,जो गहरे।

काटता है फसल वो ही,पहले बीज जो बोता।।2।।

सभी के साथ ही रहकर,सभी का साथ है देना।

झांझरि नाव,ओ नाविक,संभल करके इसे खेना।

भरोसा बहुत है तुम पर,और तो, दांए-बांए हैं।

सफल होओगे निश्चय ही,तुम्हें सबकीं दुआए है।

बहारैं होंयगी माफिक,समय मनमस्त ही होगा।।3।।