vo bharat kahan hai mera 5 in Hindi Poems by बेदराम प्रजापति "मनमस्त" books and stories PDF | वो भारत ! है कहाँ मेरा? 5

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वो भारत ! है कहाँ मेरा? 5

वो भारत! है कहाँ मेरा? 5

(काव्य संकलन)

सत्यमेव जयते

समर्पण

मानव अवनी के,

चिंतन शील मनीषियों के,

कर कमलों में, सादर।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

दो शब्द-

आज मानव संवेदनाओं का यह दौर बड़ा ही भयावह है। इस समय मानव त्राशदी चरम सीमा पर चल रही है। मानवता की गमगीनता चारों तरफ बोल रहीं है जहां मानव चिंतन उस विगत परिवेश को तलासता दिख रहा है,जिंसमें मानव-मानव होकर एक सुखद संसार में जीवन जीता था,उसी परिवेश को तलासने में यह काव्य संकलन-वो भारत है कहाँ मेरा । इन्हीं आशाओं के लिए इस संकलन की रचनाऐं आप सभी के चिंतन को एक नए मुकाम की ओर ले जाऐंगी यही मेरा विश्वास है।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

21.अब नहीं देहैं वोट

षुरु चुनाव-प्रचार,कर सोलह श्रृंगार।

सुमन भरे उपहार,बटोरती सरकार।।

कितनी छली विछात,बनी सुहागिन रात।

विन दूल्हे बारात,केवल दुल्हिन साथ।।

ढोल-तमाशा- शोर ,प्रत्यासी कमजोर।

आया कैसा दौर,बने मुखौटे चोर।।

गली न कोई दाल,अथवा है कोई चाल।

यह कैसा है हाल,गले कौन के माल।।

दिखै न कोई चाव,विके-विके सब भाव।

मन अभाव,उत्साह विन नाविक ज्यौं नाव।।

दॅंत निपोरी खीस,लगै विकाऊ पीस।

लगत छुपी कोउ टीस,धरत पांव,उन्नीस।।

पहुंचे जब,घर-द्वार,टोकत,कहाँ उधार।

ऐसैहीं हर बार,यह कैसा व्यवहार।।

तुमरी उल्टीचाल,समझ गए सब हाल।

जनजीवन बदहाल,गल नहीं पैहै दाल ।।

तुमरे मन में खोट,बट नहिं पैहैं नोट।

पहले कर गए चोट,अब नहीं,देहैं वोट।।

22. विजय तिलक

विजय-भाल के तिलक में,यही दिवस है खास।

किसके बाजे बजैंगे, किसके ढोल सु-हास।।

लिए प्रतीक्षा खड़े सब,विजय माल के हेतु।

यह जीवन का पर्व है,वोट बनत भव-सेतु।।

तांत्रिक-विधि की क्रियाऐं,करते सभी विशेष।

भजन,जाप,पूजन-विविध,अनुष्ठान,अभिषेख।।

विजय आस सबही दिखे,हार और की मान।

इस चुनाव के खेल को,खेलें सभी सुजान।।

बड़ा अचम्भा यही है,कुर्सी चांपत लोग।

कोई छोड़ता नहीं दिखा,यही बड़ा है रोग।।

राजनीति कितनी प्रबल,जो जाता इस ओर।

वैरागी,सन्यासी भी,भटके इसके दौर।।

त्यागी,रागी,रोगी भी,किन्नर,नर और नारि।

राजनीति के फेर में,भटक रहे,सब यार।।

बिकट चुनावी खेल है,इसका गहरा राज।

पक्षिराज,मृगराज भी,बन बैठे सरताज।।

भलां सभी बरबाद हो,बैठ बाप को रोय।

जो आया इस दौर में,मुड़ा न पीछे कोय।।

गधे,लोमड़ी,स्यार के,नृत्य होंय,सब ओर।

कुछ भी हो सकता यहाँ,परिवर्तन का षोर।।

चादर फटतीं दिख रहीं,खींच-तान का दौर।

बिना तली की लूटिया,लुढ़क जाए किस ओर।।

को जीतेगा स्वयंवर,किसके गर, हो माल।

पोल खोल रये,पोल सब,अपनी देकर चाल।।

नौंक-झोंक मशगूल है,पत्रकारिता आज।

प्रश्न अनेकौं पॅूछती,सजा-सजाकर साज।।

काले-पीले हो रहे,नेताओं के रुप।

दादा,परदादा कुशत,फटकैं अपने सूप।।

कसर न छोड़त कोऊ भी,अपनी करनी बीच।

उल्लू,गदहे,सुअर तक,उचटाते हैं कीच।।

न्याय,नीति,भाषा,सभी, बद से बदत्तर जान।

लगा,बने नेता यहाँ,मानव से हैवान।।

कितना, क्या बतलाएं जो,नीच हुआ संवाद।

आजादी क्या है यही?,क्या उत्तर का नाॅंद।।

अगर नहीं सोचा अभी,फिर मुश्किल हो मीत।

सब कुछ सुलझत समय पर,यही नियति की नीति।।

बापू के बन्दर बने,भारत के बहुलोग।

इसे संभालो मनीषी!,यह नाषूरी रोग।।

23. खुद बदलो

खुद बदलो,परिवेश,भाव,भाषा भी बदलो।

मिलन सार स्नेह,आम जनता-सा कद लो।

मिलन परस्पर,यथा दूध-पानी हो जैसे-

हो जाओगे अजय,विसद-सागर-सा मद लो।।

जन मन भाए बहुत,बने भारत के प्यारे।

भैंट-प्यार दई मात,विपक्षी नयन उघारे।

ढह गए अपने आप,कि उनके गर्व कंगूरे-

मन की मन में रही,कहाँ जीते,कहाँ हारे।।

समदर्षी तब भाव,अजय चक्का व्यूह भेदा।

उलटे पहाड़े पढ़े कि,उनको ऐसा रेदा।

दांत उॅंगलियां लिए,सोचते रातें बीतीं-

क्या करतव कर गए,तुम्हारी अदभुत मेधा।।

सब्यसांची बन लड़ो,अजय गांड़ीव तुम्हारा।

विजय करो कुरुक्षेत्र,सुमंगल नेह हमारा।

ईष कामना यही,चक्रवर्ती बन जाओ-

हो भारत मनमस्त,आयु हो दीर्घ,हजारा।।

मन में था जो,आज आपको सौंप रहे हैं।

अन्दर के उदगार,आपसे खोल रहे हैं।

अजय रहोगे सदां,यही जनता फरमाना-

वादे जो कुछ किए,याद में,याद रहे हैं?।।

24. मातृभूमि ऋण

कब तक ठकुर सोहाती कहनों,

सच कहने पर है,पाबन्दी।

अगर कभी,भूले सच कहदी,

रोजी-रोटी पर हदबन्दी।

सच को जिसने किया वायरल,

उनकीं कहानीं,पढ़ी आपने-

किधर जा रहा,भारत मेरा,

भई व्यवस्था,कितनी गंदी।।1।।

अन्दर षीत युद्ध की सिहारिन,

सीमा की,अनबूझ कहानी।

रोज-कफन लिपटी अस्मितता,

भई जवानी,पानी-पानी।

सिंह-नांद की,नांदे कहतीं,

निर्भय हो,सच को कह डालो-

कितनीं दुमुंही भाषा हो गई,

क्या कह दें,सब जानी-मानी।।2।।

कितना हुआ,जमाना वोदा,

विष्वासों की,हाट उठगई।

वादों की-इन भरमारों ने,

नई कहानी,आज लिख दई।

आज कहा,कल ही जो पलटा,

उनका चेहरा,कैसा होगा-

खूंनी चैराहे,हॅंसतें हैं,

लगता,दागी दुनियां हो गई।।3।।

शकुनी के पांसे चलते हैं,

छल-छद्भों की,इस धरती पर।

नहीं ठिकाना,किसी ओर का,

ताप रहें हैं,सब ही बरती पर।

मान और सम्मान खो गए,

मतलब से,सब करैं,इबादत-

दर्दों का ऐहसास नहीं है,

राजनीति की,इस अर्थी पर।।4।।

हमदर्दी, रश्मों में बदली,

श्रद्धांजली समाऐं कोरीं।

जनता का जीवन,खिलवाड़ें,

इतने बन बैठे,अॅंघोरी।

कभी-कभी तो,इतना सबकुछ,

न्याय,ताक पर रख,चलदेते-

अॅंधी-बहरीं दौड़े हो गई,

उनमें भी हठ अरु बरजोरी।।5।।

ऐड़ी से-चोटी तक देखो,

दुर्योधन,धृतराष्ट,खड़े हैं।

पीछे देख रहे नहिं,बिल्कुल,

आसमान परवान,चढ़े हैं।

खुद को राष्ट्र हितैषी,उनको-

राष्ट्रद्रोही तमगा देते हैं-

कुटनीति के अॅंधे हाथी,

अनजाने पथ,आज अड़े हैं।।6।।

राजनीति के,इस अॅंधड़ में,

क्या गति होगी,मानवता की।

जड़ से उखड़ गए,बहुतेरे,

जिन गाढ़ी ध्वज,पावनता की।

बुला रही,भू-भारति तुमको,

बरद पुत्र,तुम ही हो प्यारे-

करने कुछ,कर कलम सॅंभालो,

चले नहीं यहाँ,दानवता की।।7।।

मातृभूमि ऋण,तुम्हें चुकाने,

इसी धरा पर,आना होगा।

जीवन दायक,उन बीजों को,

पुनः यहाँ पर,बोना होगा।

अगर नहीं सोचा तुमने तो,

सब कुछ ही,बंजर होऐगा-

तुम्हें बचाना,इस थाथी को,

नहिं तो,दोष तुम्हीं शिर होगा।।8।।