एपिसोड - 15
एक खूबसूरत इमारत को देखकर अनायास ही उसके निर्माण करने वाले के लिए दिल से "वाह! " निकलती है। वहीं जिसने उसकी एक-एक ईंट को दूसरी ईंट से जुड़ कर उसे शानदार रूप लेते देखा हो, वह अपनी उपलब्धि पर संतुष्ट होने का गर्व तो कर ही सकता है न ! कुछ ऐसी ही भावनाएं उठती हैं, हमारी पीढ़ीगत लोगों को आज के युग की तस्वीर देखकर।
हमारा ताल्लुक उस युग के लोगों से है, जो समाज, उसकी संस्कृति के, प्रौद्योगिकी के बदलते स्वरूप के चश्मदीद गवाह हैं। याद है न, हमारे समय में घर में गेहूं को धोकर धूप में सुखाया जाता था। फिर सब बच्चों, बूढ़ों को थाली में डाल कर बीनने को दिया जाता था।और अंत में ढक्कन वाले पीपे में डाल कर साईकिल के पीछे बांधकर पिसने को चक्की पर भेजा जाता था। घर से आटा, सूजी, दूध, चीनी व अंडे भेजकर पीपे में बिस्कुट बनकर आते थे।क्या खुशबू आती थी ताज़े बिस्कुटों की...! देसी गेहूं, वो भी धुली हुई। हड्डियों में कैल्शियम की कमी नहीं होती थी।आज देसी गेहूं के बीज भी नहीं मिलते किसानों को। हमारी आनेवाली पीढ़ियों को तो लगता है बचपन से ही कैल्शियम की गोलियों का सहारा लेना पड़ेगा। हालांकि "आशीर्वाद", प्रेम भोग, नीवीं चक्की के आटे बहुत झांसे देते हैं ।
अब मुसीबत यह है कि बच्चे पास्ता, पीज़ा व नूडल्स खाना पसंद करते हैं। सो आटे से मैदे पर आ गए हैं, जबकि व्हाट्स अप पर दिखाया जाता है कि बच्चे के पेट से नूडल्स की बिन पचे ढेरों नूडल्स डाक्टरों ने आपरेशन से निकाले हैं। यहां मैं मुद्दे से भटक रही हूं । हां, हम घर में ढेरों काम करते थे। पापड़, फुलवड़ी, वड़ी व ढेरों तरह के अचार, मुरब्बे आदि बनते थे।
आज के बच्चों को मैंने बताया कि हमने चूल्हे के बाद सिगड़ी पर खाना बनता देखा है। अंगीठी में"छोडे" (लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े)डाल कर ऊपर कच्चे कोयले डाले जाते थे और उस पर पक्के कोयले डालते थे। भट्टी की भांति जलती थी वो ।उसके बाद आईं बुरादे की अंगीठी । कोयले की जगह लकड़ी के बुरादे ने ले ली घर के स्टोर में ।क्या कस के बुरादा भरा जाता था उस में। जब कुकिंग हो जाए तो ऊपर-नीचे ढक्कन लगा दो ।अब बारी आई "स्टोव" की । तो राशन पर मिट्टी का तेल मिलता था। जब देखो हाथ में पिन पकड़े स्टोव की नोज़ल में पिन से मोरी खोलती थीं लेडीज़ । फिर बत्तियों वाले स्टोव भी आए । तब जाकर कहीं सत्तर के आगे -पीछे गैस के चूल्हे आम हुए थे।
हम हनीमून पर बम्बई गए तो वहां मुकेश खन्ना (महाभारत के भीष्म पितामह ) के घर रसोई में गैस -पाईप्स लगी देखकर मैं हैरत में पड़ गई थी । जबकि इस बात को पचास वर्ष हो गए हैं। पंजाब में अभी तक इसके आसार भी नहीं हैं। ऐसा लगता है, कभी सुना था कुछ ऐसा पंजाब में होने वाला है। देखें...कब तक !
कश्मीर में बिजली के हीटर तो दिन-रात चलते दिखते थे, क्योंकि वहां बिजली फ्री थी। लेकिन तब कई घरों में ग़ीज़र के बदले "हमाम" में पानी गर्म किया जाता था, नहाने के लिए। मुझे कुछ समझ नहीं थी उसकी। मेरे पति के दोस्त के घर हम श्रीनगर में गए तो वहां बाथरूम में "हमाम"था।आग थी उसमें, पर काफी कम । खिड़की में एक बोतल में गंदा पेट्रोल रखा था। (उनका ड्राई क्लीनिंग का काम था।) मैंने सैंटर की मोरी में वो पेट्रोल मिट्टी का तेल समझ कर उड़ेल दिया और लगी इंतजार करने कि अभी आग की लपटें उठेंगी। यानि कि फिर पानी गर्म होगा और मैं नहा पाऊंगी । जब कुछ देर तक आग नहीं दिखी, तो मैंने सैंटर मोरी से मुंह लगाकर भीतर झांकने की कोशिश की कि देखूं आग जली कि नहीं और उसी क्षण लपटें उठीं, जिन्होंने मेरे चेहरे को अपनी लपेट में ले लिया।
मैं जोर से चीखी, लेकिन बाथरूम भीतर से बंद था ।चेहरे की जलन बर्दाश्त करते हुए, जल्दी से गाऊन लपेट कर मैंने दरवाजा खोला। सामने भाभी थीं। उन्होंने जले पर लगाने वाली " Burnol ointment" मेरे चेहरे पर लगा दी । जब आईने में मैंने चेहरा देखा तो eye brows, eye lashes पूरी नदारद थीं। तब तक रवि जी और बाकी लोग भी पहुंच गए थे। मैंने चहरे पर घूंघट डाल लिया था। पर कब तक ?उसी दिन हम घर चले गए थे पहलगाम। कहीं भी आने-जाने को मन नहीं मानता था। Tourist place का फायदा था कि वहां कोई आस-पड़ोस नहीं था । सो कहीं जाना आवश्यक नहीं था। असल में, पेंसिल से eye brows बना लेती थी मैं। लेकिन eye lashes आने में काफी समय लगा था। चेहरे की चमड़ी पर तो असर था ही। फिर भी शुक्र है प्रभु का !
अखबार में किसी के जलने की खबर पढ़कर मैं उस दर्द और जलन को महसूसती हूं, और बेहद असहज हो जाती हूं।
इस हादसे ने भी अफसाना बयां कर दिया।
वीणा विज'उदित'
7/2/2020