एपिसोड ४
जीवन के फुर्सत के पलों में जब हृदय अतीत को निमंत्रण
देता है तो प्रकृति घटित हादसों या घटनाओं को भावी सृजन से नूतन अंशों में परिणत कर पुनर्जीवित करने का यत्न करती है और अनदेखा दृष्टव्य हो सम्मुख आ जाता है।
पढ़ें यह अफसाना...
अभी मेरा शुमार बच्चों में ही था कि एक दिन रोशनलाल मामा जी की telegram यानि कि 'तार' कलकत्ता सेआई।(तब फोन नहीं तार से संदेश भेजते थे ) " Naxal attack daughter murdered. Wife serious"
मम्मी रोने लगीं । हम सब घबरा गए । पापा ने मम्मी को कोडू भापे के साथ कलकत्ते भेज दिया । उन दिनों नक्सलियों का बहुत खतरा था बंगाल में। मामाजी Electric department में EX. E .N .थे । शहर की घनी आबादी से दूर एक बंगले में थी उनकी रिहाइश । मम्मी को जाकर पता चला कि हादसे की मनहूस रात को मामा जी टूर पर थे। नक्सली घर लूटने ट्रक लेकर आए थे । गेट पर चौकीदार ज़ख्मी पड़ा था । जवान बेटी के विवाह की तैयारियां हो रहीं थीं। उसने विरोध किया तो उसे मार डाला। मां ने बेटी को बचाना चाहा, इस कोशिश में उनके शरीर पर ६०-६५ जगह घाव थे। उनकी दोनों आंखों की रोशनी ख़त्म हो गई थी । हृदय का घाव तो जीवन पर्यंत रहा लेकिन कालांतर में बाकि घाव धीरे-धीरे भरते रहे।
मम्मी ने जब वहां का सारा ब्यौरा सुनाया तो साथ ही बताया कि इंसान के अपने कर्म ही उसके सम्मुख भेष बदल कर आते हैं। अब यह उसकी समझ है कि वो समझ पाता है या नहीं। उन्होंने अपने अतीत को खंगाला और हमें जो बताया वह अविश्वसनीय था।
वो बोलीं, " पापा (भगतराम जी) की मृत्यु के पश्चात भाई ने आगे पढ़ने के लिए होस्टल नहीं भेजा। भाभी की मदद करो, कहा। भाभी तंग करती थी, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं था। एक दिन सिर धोकर मैं ऊपर छत पर बाल सुखा रही थी तो देखा नीचे सड़क पर युवा लड़कों की एक टोली निकल रही है, वे बाहर के लगे, किसी बारात में आए हुए थे शायद । सारे एक से बढ़कर एक शहरी नौजवान । उनमें से एक छै: फुटे नौजवान की नज़र सूर्य की रश्मियों से दमकते मेरे चेहरे पर पड़ी । और यही आग़ाज़ था मेरे आने वाले कल का। "
कृष्ण नाम था उनका( पापा)! अलीबाबा के चालीस चोरों की भांति ये लोग भी उस घर पर निशान लगा आए थे। दोस्तों ने पूरी मालूमात करके वापिस घर जाकर वहां चर्चा कर दिया। संदेश भेज दिया गया । लो जी, भाभी मां चल पड़ीं अपने देवर का रिश्ता लेकर। मां सदृश्य ग्रंथी की बीवी ने अपना झालर लगा दुपट्टा कमला को ओढ़ाकर दिखाया। भाभी अंदर ताला लगाकर कहीं चली गई थी ।
कृष्ण की भाभी ने शगन के कंगन कमला के हाथों में डाले और जल्दी शादी का कह गई। इस तरह हमारे माता-पिता का ब्या़ह हो गया । बारात "बादशाहान" से आई थी। सन् १९४१ में डोली कहारों के कंधे की बजाय कार में पहुंची और वो भी चालक अंग्रेज था जिसका । उस जमाने में यह अजूबा था । कार और चालक को देखने सारा शहर ही उमड़ पड़ा था । दुल्हन को हवेली तक ले कर जाना मुश्किल हो गया था ।
महाराजा रणजीत सिंह के दीवान सावनमल का खानदान था यह, सो इनकी हवेली छोटी पहाड़ी पर स्थित थी । उन दिनों घूंघट मतलब पूरा पर्दा होता था । दुपट्टे की
दो-तीन तहों से मुंह ढंका होता था । पहले "मुंह दिखाई" की रस्म की गई, क्योंकि सब उतावले हो रहे थे दुल्हन देखने के लिए।सास तो वारे-न्यारे किए जा रही थी ।
फिर "दहेज दिखाई" की रस्म थी। कमला(मम्मी) को भीतर ले जाया गया । जब पेटी खोली तो मम्मी ने कहा, "यह मेरे कपड़े नहीं हैं। सारे रिश्तेदारों में खलबली मच गई कि माजरा क्या है आखीर ! ध्यान से देख कर बोलीं कि यह तो मेरी भाभी के पहने हुए पुराने कपड़े हैं। और घबराहट में रोने लग गईं। पापा (कृष्ण) ने बात संभाली।वे सब समझ गए थे । जोर से गरजकर जनवासे में बोले, " अब आगे से ये रस्म होगी ही नहीं ।"और सब चुपचाप वहां से चले गए । वे लाहौर रहते थे, हवेली में उनका रुआब था बहुत ।
लेकिन मम्मी को यह घटना ज़ख्मी कर गई थी अंत:स्थल तक । लाहौर लेजाकर पापा ने अनारकली बाजार में "दयाराम एंड संस" से मम्मी को खड़े पैर ढेरों "ख़ीम-ख़ाब" के सूट दिलवाए। उसी कपड़े की ३-४" हील की सैंडल और गुरगाबी (लेडिस नोक वाले शूज़) भी बनवाईं । पर, वो ज़ख्म जो राख के ढेर तले दबे पड़े थे--आज उनका रिसना फिर हरा हो गया था । जब भाभी ने उनके पैर पकड़ कर कहा,
" रानी, मैंने तो तेरा दहेज मारा था । पर उस रब्ब ने तो दहेज के साथ-साथ मेरी बेटी भी मार ली। बहुत बड़ी सज़ा दी है उसने मुझे । मेरी आंखों की रोशनी भी छीन ली । मैं तेरे चेहरे पर उसके नूर का दर्शन करने लायक भी नहीं रही ।अब माफी मांगूं भी तो कैसे।" मामी रो रही थीं।और मम्मी उनको बाहों में लिए हुईं थीं ।
यह सब सुनकर हमने भी मम्मी के गले में बाहें डाल दीं थीं।
अगले हफ्ते फिर कुछ और.....
वीणा विज'उदित